भगवान्
एक भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व ही वास्तविक तत्त्व है। उसके सिवाय सब अतत्त्व हैं॥३७२॥
••••
जबतक अन्त:करणमें संसारका महत्त्व है, तबतक भगवान्का महत्त्व समझमें नहीं आ सकता॥३७३॥
••••
भगवान्को मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे नहीं, प्रत्युत स्वयंसे ही जाना जा सकता है॥३७४॥
••••
हम दूर-से-दूर जिस वस्तुको मानते हैं, शरीर उससे भी अधिक दूर है और नजदीक-से-नजदीक जिस वस्तुको मानते हैं, परमात्मा उससे भी अधिक नजदीक हैं॥३७५॥
••••
मिलनेवाली प्रत्येक वस्तु बिछुड़नेवाली होती है, पर जो नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व है, वह कभी किसी अवस्थामें भी नहीं बिछुड़ता, चाहे हमें उसका अनुभव हो अथवा न हो॥३७६॥
••••
संसार अभावरूप ही है। भावरूपसे केवल एक अक्रिय-तत्त्व परमात्मा ही है, जिसकी सत्तासे अभावरूप संसार भी सत्तावान् प्रतीत हो रहा है॥३७७॥
••••
हम ‘है’-पन (सत्ता)-को परमात्माका न मानकर संसारका मान लेते हैं—यही गलती है॥३७८॥
••••
संसारमें कोई भी नौकरको अपना मालिक नहीं बनाता; परन्तु भगवान् शरणागत भक्तको अपना मालिक बना लेते हैं! ऐसी उदारता केवल प्रभुमें ही है॥३७९॥
••••
एक भगवान्के सिवाय ऐसी कोई चीज है ही नहीं, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें॥३८०॥
••••
प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारपर विश्वास ही भगवान् पर विश्वास नहीं होने देता॥३८१॥
••••
जैसे सूर्य प्रकट होता है, पैदा नहीं होता, ऐसे ही अवतारके समय भगवान् प्रकट होते हैं, हमारी तरह पैदा नहीं होते॥३८२॥
••••
परमात्मा हैं—इतना मान लेना पर्याप्त है। परमात्मा कैसे हैं—यह जाननेकी जरूरत नहीं है॥३८३॥
••••
भगवान् सर्वसमर्थ होते हुए भी हमारेसे दूर होनेमें असमर्थ हैं॥३८४॥
••••
भगवान् कहाँ हैं? भगवान् वहाँ हैं, जहाँ ‘कहाँ-यहाँ-वहाँ’ नहीं हैं अर्थात् भगवान् देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिसे सर्वथा अतीत हैं॥३८५॥
••••
भगवान् सब जगह मौजूद हैं, पर ग्राहक चाहिये। खम्भे कई हैं, पर प्रह्लाद चाहिये॥३८६॥
••••
भगवान्का कहीं भी अभाव नहीं है। केवल उनको देखनेवालेका अभाव है॥३८७॥
••••
जिसकी दृष्टि संसारपर रहती है, वह कहता है कि ‘भगवान् कहाँ हैं?’ और जिसकी दृष्टि भगवान् पर रहती है, वह कहता है कि ‘भगवान् कहाँ नहीं हैं?’॥३८८॥
••••
जैसे सूर्य बादलोंसे नहीं ढकता, प्रत्युत हमारे नेत्र ही बादलोंसे ढके जाते हैं, ऐसे ही परमात्मा आवृत नहीं होते, हमारी बुद्धि ही आवृत होती है॥३८९॥
••••
भगवान् जीवको अपना दास (गुलाम) नहीं बनाना चाहते, प्रत्युत सखा (अपने समान) बनाना चाहते हैं॥३९०॥
••••
सत् असत् का विरोधी नहीं है, प्रत्युत उसको सत्ता देनेवाला है। सत् की जिज्ञासा ही असत् की विरोधी है॥३९१॥
••••
सत् के बिना असत् को देख नहीं सकते और असत् के बिना सत् का वर्णन नहीं कर सकते॥३९२॥
••••
परमात्मतत्त्वका वर्णन नहीं होता, प्रत्युत अनुभव होता है॥३९३॥
••••
परमात्मतत्त्वके सिवाय अन्यकी जितनी भी स्वीकृति है, उतना ही अज्ञान है॥३९४॥
••••
जगन्नाथ भगवान्के रहते हुए अपनेको अनाथ मानना भूल है॥३९५॥
••••
मनुष्यको ईश्वरमें केवल विश्वास ही करना चाहिये। अगर वह संसारमें विश्वास और ईश्वरमें विवेक लगायेगा तो नास्तिक हो जायगा॥३९६॥
••••
साधकको पहले भगवान् दूर दीखते हैं, फिर नजदीक दीखते हैं, फिर अपनेमें दीखते हैं, फिर केवल भगवान् ही दीखते हैं॥३९७॥
••••
परमात्मामें जीव है और जीवमें जगत् है। अत: परमात्माकी तो स्वतन्त्र सत्ता है, पर जीव और जगत्की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है॥३९८॥
••••
सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिका अभाव होनेपर भी जो शेष रहता है, वही परमात्मतत्त्व है॥३९९॥