भगवत्कृपा
जैसे गायका दूध गायके लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके लिये ही है, ऐसे ही भगवान्की कृपा भगवान्के लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरों (हम सभी)-के लिये ही है॥४००॥
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अगर भगवान्की दया चाहते हो तो अपनेसे छोटोंपर दया करो, तब भगवान् दया करेंगे। दया चाहते हो, पर करते नहीं—यह अन्याय है, अपने ज्ञानका तिरस्कार है॥४०१॥
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जो गीता अर्जुनको भी दुबारा सुननेको नहीं मिली, वह हमें प्रतिदिन पढ़ने-सुननेको मिल रही है—यह भगवान्की कितनी विलक्षण कृपा है॥४०२॥
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आजतक जितने भी महात्मा हुए हैं, वे भगवत्कृपासे ही जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ तथा भगवत्प्रेमी हुए हैं, अपने उद्योगसे नहीं॥४०३॥
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स्वत:सिद्ध परमपदकी प्राप्ति अपने कर्मोंसे, अपने पुरुषार्थसे अथवा अपने साधनसे नहीं होती। यह तो केवल भगवत्कृपासे ही होती है॥४०४॥