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भगवान‍्से सम्बन्ध (अपनापन)

मनुष्य सांसारिक वस्तु-व्यक्ति आदिसे जितना अपना सम्बन्ध मानता है, उतना ही वह पराधीन हो जाता है। अगर वह केवल भगवान‍्से अपना सम्बन्ध माने तो सदाके लिये स्वाधीन हो जाय॥४७५॥

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साधक अपनेको भगवान‍्का समझकर संसारका काम करे तो संसारका भी काम ठीक होगा और भगवान‍्का भी। परन्तु अपनेको संसारका समझकर संसारका काम करे तो संसारका काम भी ठीक नहीं होगा और भगवान‍्का काम (भजन) तो होगा ही नहीं!॥४७६॥

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प्रभु अपने हैं, पर अपने लिये नहीं हैं, प्रत्युत हम प्रभुके लिये हैं। तात्पर्य है कि हमें प्रभुसे कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको उन्हें देना है और विपरीत-से-विपरीत परिस्थिति आनेपर भी उसको प्रभुका भेजा प्रसाद समझकर प्रसन्न रहना है॥ ४७७॥

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सदुपयोग करनेके लिये ही वस्तु अपनी है और अपने-आपको देनेके लिये ही भगवान‍् अपने हैं। इसलिये वस्तुको संसारमें लगा दे और अपने-आपको भगवान‍्में लगा दे॥४७८॥

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पति मर सकता है, स्त्रीको छोड़ भी सकता है, फिर भी नये घर जाते समय लड़कीको चिन्ता नहीं होती। परन्तु भगवान‍् न तो कभी मरते हैं और न कभी छोड़ते ही हैं, फिर भगवान‍्से सम्बन्ध जोड़नेपर किस बातकी चिन्ता? भगवान‍्को पकड़ना तो आता है, पर छोड़ना आता ही नहीं!॥४७९॥

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‘मैं भगवान‍्का हूँ और भगवान‍् मेरे हैं’—इस अपनेपनके समान कोई भी योग्यता, पात्रता, अधिकारिता आदि नहीं है॥४८०॥

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भक्तको अपनी योग्यता आदिकी तरफ न देखकर केवल भगवान‍्के अपनेपनकी तरफ ही देखते रहना चाहिये॥ ४८१॥

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भगवान‍्में अपनापन सबसे सुगम और श्रेष्ठ साधन है॥४८२॥

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भगवान‍्के सिवाय कोई मेरा नहीं है—यह असली भक्ति है॥४८३॥

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भगवान‍् सर्वसमर्थ होते हुए भी हमारेसे दूर होनेमें असमर्थ हैं॥४८४॥

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भगवान‍् हमारे हैं, पर मिली हुई वस्तु हमारी नहीं है, प्रत्युत भगवान‍्की है॥४८५॥

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मनुष्य पदार्थों और क्रियाओंको अपनी मानता है तो सर्वथा परतन्त्र हो जाता है और भगवान‍्को अपना मानता है तथा उनके अनन्य शरण होता है तो सर्वथा स्वतन्त्र हो जाता है॥४८६॥

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भगवान‍्के साथ हमारा सम्बन्ध स्वत:-स्वाभाविक है। इस सम्बन्धके लिये किसी बल, योग्यता, दूसरेकी सहायता आदिकी जरूरत नहीं है॥४८७॥

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अभी जैसे संसारका सम्बन्ध माना है कि वह प्राप्त है, नजदीक है, वैसे ही परमात्माका सम्बन्ध मान लें और जैसे परमात्माका सम्बन्ध माना है कि वह अप्राप्त है, दूर है, वैसे ही संसारका सम्बन्ध मान लें॥४८८॥

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ऐसा मान लो कि मैं भगवान‍्का हूँ। अगर ‘मैं संसारका हूँ’ ऐसा मानोगे तो संसारका काम दूर रहा, भगवान‍्का भजन करते हुए भी भगवान‍्को भूल जाओगे॥४८९॥

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आप कैसे ही हों, अभी इसी क्षण मान लें कि ‘मैं भगवान‍्का हूँ।’॥४९०॥

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भगवान‍्का ध्यान करनेकी अपेक्षा उनमें अपनापन करना श्रेष्ठ है। अपनापन होनेसे ध्यान अपने-आप होता है। अपने-आप होनेवाला साधन श्रेष्ठ होता है॥४९१॥

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भगवान‍्को अपनापन जितना प्रिय है, उतने त्याग, तपस्या आदि प्रिय नहीं हैं॥४९२॥

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परमात्माके सम्मुख होनेका उपाय है—संसारसे सर्वथा विमुख होना॥४९३॥

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भगवान‍्के साथ दृढ़ अपनापन सम्पूर्ण दोषोंको खा जाता है॥४९४॥

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जबतक भगवान‍्का सम्बन्ध नहीं होता, तबतक सब लौकिक ही होता है। भगवान‍्का सम्बन्ध होनेसे सब अलौकिक हो जाता है॥४९५॥

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हम भगवान‍्से कोई वस्तु माँगते हैं तो हमारा सम्बन्ध उस वस्तुके साथ होता है, भगवान‍्के साथ नहीं॥४९६॥

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जो अपना है, वह अपनेमें निरन्तर मौजूद है, केवल उसकी स्वीकृति करनी है। जो अपना नहीं है, वह अपनेसे निरन्तर अलग हो रहा है, केवल उसकी अस्वीकृति करनी है॥ ४९७॥

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मनुष्यमात्रका भगवान‍्के साथ साक्षात् (सीधा) सम्बन्ध है, उसमें किसी दलाल या माध्यमकी जरूरत नहीं है॥ ४९८॥

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