मन
मनको भगवान्में लगाना उतना जरूरी नहीं है, जितना जरूरी भगवान्में खुद लगना है। खुद भगवान्में लग जायँ तो मन अपने-आप भगवान्में लग जायगा॥४९९॥
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मनकी एकाग्रता योग-मार्गमें जितनी आवश्यक है, उतनी भक्तिमें नहीं। भक्तिमें तो भगवान्के सम्बन्धकी दृढ़ता होनी चाहिये॥ ५००॥
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शान्ति त्यागसे मिलती है, मनकी एकाग्रतासे नहीं॥ ५०१॥
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मनको स्थिर करना मूल्यवान् नहीं है, प्रत्युत स्वरूपकी स्वत:सिद्ध निरपेक्ष स्थिरताका अनुभव करना मूल्यवान् है॥५०२॥
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मनमें संसारका जो राग है, उसे मिटानेकी जितनी जरूरत है, उतनी मनकी चंचलताको मिटानेकी जरूरत नहीं है॥५०३॥
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जबतक मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेकी वृत्ति रहेगी, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं हो सकेगा। मनका सर्वथा निरोध तब होगा, जब एक परमात्माके सिवाय अन्य सत्ताकी मान्यता नहीं रहेगी॥५०४॥
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निष्कामभावसे बुद्धि स्थिर होती है और अभ्याससे मन स्थिर होता है। कल्याण बुद्धिकी स्थिरतासे होता है, मनकी स्थिरतासे नहीं। मनकी स्थिरतासे सिद्धियाँ होती हैं॥५०५॥
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मनकी एकता परमात्माके साथ नहीं है, प्रत्युत प्रकृतिके साथ है। इसलिये मन परमात्मामें लीन तो हो सकता है, पर लग नहीं सकता॥ ५०६॥