भगवत्प्राप्ति
सच्चे हृदयसे भगवान्को चाहनेवाला मनुष्य किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, परिस्थिति आदिमें क्यों न हो और कितना ही पापी, दुराचारी क्यों न हो, वह भगवत्प्राप्तिका पूर्ण अधिकारी है॥४०५॥
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साधक संसारसे कभी आशा न रखे; क्योंकि वह सदा नहीं रहता और परमात्मासे कभी निराश न हो; क्योंकि उनका कभी अभाव नहीं होता॥४०६॥
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भगवान्के विषयमें सन्तोष करना और संसारके विषयमें असन्तोष करना महान् हानिकारक है॥४०७॥
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जैसे मछली जलके बिना व्याकुल हो जाती है, ऐसे ही हम यदि भगवान्के बिना व्याकुल हो जायँ तो भगवान्के मिलनेमें देर नहीं लगेगी॥४०८॥
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भगवान्की प्राप्ति होनेपर फिर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता। इसीमें मनुष्यजीवनकी पूर्णता, सफलता है॥४०९॥
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साधकको विचार करना चाहिये कि भगवान् सब देशमें हैं, इसलिये यहाँ भी हैं; सब कालमें हैं, इसलिये अब भी हैं; सबमें हैं, इसलिये अपनेमें भी हैं; सबके हैं, इसलिये मेरे भी हैं॥४१०॥
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भगवत्प्राप्तिमें व्याकुलतासे जितना जल्दी लाभ होता है, उतना जल्दी लाभ विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं होता॥४११॥
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स्वयंमें तीव्र उत्कण्ठा न होनेके कारण ही भगवत्प्राप्तिमें देर हो रही है॥४१२॥
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खेलमें छिपे हुए बालकको दूसरा बालक देख ले तो वह सामने आ जाता है कि अब तो इसने मुझे देख लिया, अब क्या छिपना! ऐसे ही भगवान् सब जगह छिपे हुए हैं। अगर साधक सब जगह भगवान्को देखे तो फिर भगवान् उससे छिपे नहीं रहेंगे, सामने आ जायँगे॥४१३॥
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सब ओरसे विमुख होनेपर साधक अपनेमें ही अपने प्रियतम भगवान्को पा लेता है॥४१४॥
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भगवत्प्राप्तिका सरल उपाय क्रिया नहीं है, प्रत्युत लगन है॥४१५॥
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अपनी प्राप्तिके लिये भगवान्ने यदि जीवको मनुष्यशरीर दिया है तो उसके लिये पूरी योग्यता और सामग्री भी साथ ही दी है। इतनी योग्यता और सामग्री दी है कि मनुष्य अपने जीवनमें कई बार भगवत्प्राप्ति कर ले!॥४१६॥
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उत्कट अभिलाषाकी कमीसे ही परमात्मप्राप्तिमें देरी लगती है, उद्योगकी कमीसे नहीं॥४१७॥
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परमात्माके साथ हरेक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदिका समानरूपसे सम्बन्ध है। इसलिये जो जहाँ है, वहीं परमात्माको पा सकता है॥४१८॥
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असत् का आश्रय लेकर असत् के द्वारा सत् को प्राप्त करनेकी चेष्टा करना महान् भूल है॥४१९॥
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जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है, उसकी प्राप्ति कठिन है तो सुगम क्या है?॥४२०॥
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भगवान्के दर्शनके लिये क्या करें? भगवान्के नामका जप करें और भगवान्से प्रार्थना करें कि ‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ तो इससे भगवान्में प्रेम हो जायगा और प्रेम होनेसे भगवान् प्रकट हो जायँगे॥४२१॥
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जबतक अपने लिये कुछ भी ‘करने’ और ‘पाने’ की इच्छा रहती है, तबतक नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता॥४२२॥
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भगवत्प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषासे होती है। उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न होनेमें मुख्य कारण सांसारिक भोगोंकी कामना ही है॥४२३॥
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सत्ययुग आदिमें बड़े-बड़े ऋषियोंको जो भगवान् प्राप्त हुए थे, वे ही आज कलियुगमें भी सबको प्राप्त हो सकते हैं॥४२४॥
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भोगोंकी प्राप्ति सदाके लिये नहीं होती और सबके लिये नहीं होती। परन्तु भगवान्की प्राप्ति सदाके लिये होती है और सबके लिये होती है॥४२५॥
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परमात्माकी प्राप्तिमें भावकी प्रधानता है, क्रियाकी नहीं॥४२६॥
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भगवान् हठसे नहीं मिलते, प्रत्युत सच्ची लगनसे मिलते हैं॥४२७॥
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परमात्माकी प्राप्तिमें मनुष्यके पारमार्थिक भाव, आचरण आदिकी मुख्यता है, जाति या वर्णकी मुख्यता नहीं॥४२८॥
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परमात्मप्राप्तिमें विवेक, भाव और वैराग्य (रागका त्याग) जितना मूल्यवान् है, उतनी क्रिया मूल्यवान् नहीं है॥४२९॥
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जब प्रत्येक क्रियाका आदि-अन्त होता है तो फिर उसका फल कैसे अनन्त होगा? अत: अनन्त तत्त्व (परमात्मा) क्रियासाध्य नहीं है॥४३०॥
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परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होनेसे एक विरहाग्नि उत्पन्न होती है, जो अनन्त जन्मोंके पापोंका नाश करके परमात्मप्राप्ति करा देती है॥४३१॥
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परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा न होनेमें खास कारण है—सांसारिक सुखकी इच्छा, आशा और भोग॥४३२॥
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कोई चीज समानरूपसे सबको मिल सकती है तो वह परमात्मा ही है। परमात्माके सिवाय कोई भी चीज समानरूपसे सबको नहीं मिल सकती॥४३३॥
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हम परमात्माके सिवाय और कुछ प्राप्त कर ही नहीं सकते, जो प्राप्त करेंगे, वह सब ‘नहीं’ में चला जायगा॥४३४॥
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परमात्मतत्त्वका अनुभव तभी होगा, जब ‘विषयभोग निद्रा हँसी जगतप्रीत बहु बात’—ये पाँचों सुहायेंगे नहीं॥४३५॥
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साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण यही है कि वह भगवान्के वियोगको सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाय तो भगवान्के मिलनेमें देरी नहीं होगी॥४३६॥
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जबतक असत् की कामना, आश्रय, भरोसा है, तबतक सत् का अनुभव नहीं हो सकता॥४३७॥
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परमात्मप्राप्ति वास्तवमें सुगम है, पर लगन न होनेके कारण कठिन है॥४३८॥
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भगवान् क्रियाग्राही नहीं हैं, प्रत्युत भावग्राही हैं—‘भावग्राही जनार्दन:’। अत: भगवान् भाव (अनन्यभक्ति)-से ही दर्शन देते हैं, क्रियासे नहीं॥४३९॥
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अनित्य वस्तुसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर नित्य-तत्त्व स्वत: अनुभवमें आ जाता है॥४४०॥
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मनुष्यमात्र भगवत्प्राप्तिका अधिकारी है और वह प्रत्येक परिस्थितिमें भगवान्को प्राप्त कर सकता है॥४४१॥
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परमात्माकी प्राप्तिमें देरी नहीं लगती। देरी लगती है—सम्बन्धजन्य सुखकी इच्छाका त्याग करनेमें॥४४२॥
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केवल भगवान्की इच्छा हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे अथवा कोई भी इच्छा न हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे। अधूरापन नहीं होना चाहिये॥४४३॥
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सत् को जानो चाहे मत जानो, पर जिसको असत् जानते हो, उसका त्याग कर दो तो सत् की प्राप्ति हो जायगी॥४४४॥
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परमात्मप्राप्तिमें मनुष्य जितना स्वतन्त्र है, उतना और किसी कार्यमें स्वतन्त्र नहीं है॥४४५॥
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परमात्मप्राप्तिके लिये उपायोंकी उतनी जरूरत नहीं है, जितनी भीतरकी लगनकी जरूरत है॥४४६॥
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भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी आदिको नहीं मिलते, प्रत्युत ‘भक्त’ को मिलते हैं॥४४७॥
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धनकी प्राप्तिमें तो क्रियाकी मुख्यता है, पर परमात्माकी प्राप्तिमें लालसाकी मुख्यता है॥४४८॥
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भगवत्प्राप्ति कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत कृपाका फल है। परन्तु चाहना खुदकी होनी चाहिये॥४४९॥
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संसार अधूरा है, इसलिये अधूरा ही मिलता है और परमात्मा पूरे हैं, इसलिये पूरे ही मिलते हैं॥४५०॥
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जिसने भगवान्को प्राप्त नहीं किया, उसने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं किया, कुछ नहीं किया!॥४५१॥
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भगवत्प्राप्तिमें सबसे बड़ी बाधा है—भोग और संग्रहकी रुचि। दूसरोंके सुखसे सुखी होनेपर ‘भोग’ की रुचि और दूसरोंके दु:खसे दु:खी होनेपर ‘संग्रह’ की रुचि मिट जाती है॥४५२॥
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जो निरन्तर बदल रहा है, उस संसारपर विश्वास करना, उसको सच्चा मानना ही भगवत्प्राप्तिमें मुख्य बाधा है॥४५३॥
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संयोगजन्य सुखकी लोलुपता ही नित्यप्राप्त भगवान्के अनुभवमें प्रधान बाधक है॥४५४॥
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भगवत्प्राप्तिमें आड़ वस्तुओंने नहीं, प्रत्युत वस्तुओंके महत्त्वने लगायी है॥४५५॥
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अपने लिये कर्म करनेसे एवं जड़ता (शरीरादि)-के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) लग जाती है॥४५६॥
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परमात्मा सब देश, काल आदिमें परिपूर्ण हैं। संसारकी सत्यता माननेसे ही मनुष्य परमात्मासे दूरीका अनुभव करता है॥४५७॥
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कोई भी परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिका कारण नहीं है और कोई भी परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिमें बाधक नहीं है; क्योंकि परमात्मा सम्पूर्ण परिस्थितियोंसे अतीत हैं॥४५८॥
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परमात्मा दूर नहीं हैं, केवल उनको पानेकी लगनकी कमी है॥४५९॥
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संसार है, अभी है और अपना है—ऐसा माननेसे ही परमात्मा है, अभी है और अपना है—इसका अनुभव नहीं होता॥४६०॥
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साधक ‘परमात्मा है’ यह तो मान लेता है, पर ‘संसार नहीं है’ यह नहीं मानता, इसीसे परमात्मप्राप्तिमें बाधा लग रही है॥४६१॥
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किसी एक मार्गका आग्रह रखनेसे तथा दूसरे मार्गोंका विरोध करनेसे पूर्णताकी प्राप्तिमें बड़ी बाधा लगती है॥४६२॥
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हमारे हृदयमें परमात्माके सिवाय दूसरेकी महत्ता है—यही परमात्मप्राप्तिमें बाधक है॥४६३॥
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भगवान्का विश्वास भगवान्से भी बड़ा है; क्योंकि जो भगवान् सदा सब जगह रहते हुए भी नहीं मिलते, वे विश्वाससे मिल जाते हैं॥४६४॥
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परमात्मतत्त्व अनुभवस्वरूप है। केवल हमारी दृष्टि उधर नहीं है॥४६५॥
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कुछ करेंगे, तभी तत्त्व मिलेगा—यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला है। करनेसे जो मिलेगा, वह अनित्य होगा॥ ४६६॥
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संसारके त्यागमें ‘विवेक’ काम आता है और भगवान्की प्राप्तिमें ‘विश्वास’ काम आता है॥४६७॥
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वास्तवमें भगवान् भी विद्यमान हैं, गुरु भी विद्यमान है, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और अपनेमें योग्यता, सामर्थ्य भी विद्यमान है। केवल नाशवान् सुखकी आसक्तिसे ही उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है!॥४६८॥
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शरीरसे संसारका काम (व्यवहार) अथवा सेवा तो हो सकती है, पर परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्माकी प्राप्ति तो शरीरसे असंग होनेपर अपने-आपसे ही होती है और अपने-आपको ही होती है॥४६९॥