भक्त
भगवद्भक्तके द्वारा कर्म नहीं होते, प्रत्युत उसके द्वारा प्रतिक्षण पूजा होती है; क्योंकि प्रत्येक कर्ममें उसका भाव पूजाका रहता है॥३५८॥
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जिसका मन भगवान्में लगा रहता है, उसे सामान्य मनुष्य नहीं समझना चाहिये; क्योंकि वह भगवान्के दरबारका सदस्य है॥३५९॥
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जैसे लोभी आदमीकी दृष्टि धनपर ही रहती है, ऐसे ही भक्तकी दृष्टि भगवान् पर ही रहनी चाहिये॥३६०॥
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देवतालोग अपने उपासकोंको (उनकी उपासना सांगोपांग होनेपर) उनके हित-अहितका विचार किये बिना उनकी इच्छित वस्तुएँ दे देते हैं। परन्तु परमपिता भगवान् अपने भक्तोंको अपनी इच्छासे वे ही वस्तुएँ देते हैं, जिसमें उनका परमहित हो॥३६१॥
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आप भगवान्के दास बन जाओ तो भगवान् आपको मालिक बना देंगे॥३६२॥
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भगवान्का भक्त कितनी ही नीची जातिका क्यों न हो, वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मणसे भी श्रेष्ठ है॥३६३॥
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भगवान्के हृदयमें भक्तका जितना आदर है, उतना आदर करनेवाला संसारमें दूसरा कोई नहीं है॥३६४॥
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जिस भक्तको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती, अपनेमें किसी बातका अभिमान नहीं होता, उस भक्तमें भगवान्की विलक्षणता उतर आती है॥३६५॥
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शरणागत भक्तको भजन करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक भजन होता है॥३६६॥
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भक्त भगवान्को जिस रूपमें देखना चाहता है, भगवान् उसके भावके अनुसार वैसे ही बन जाते हैं॥३६७॥
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भगवद्भक्तको देवता कहना उसकी निन्दा है; क्योंकि उसका दर्जा देवताओंसे भी बहुत ऊँचा होता है॥३६८॥
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प्रेमी भक्त भगवान्के प्रभावसे आकृष्ट नहीं होते, प्रत्युत भगवान्के अपनेपनसे आकृष्ट होते हैं॥३६९॥
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प्रेमीकी बात प्रेमी ही समझ सकता है, ज्ञानी नहीं। फिर अज्ञानी तो समझ ही कैसे सकता है!॥३७०॥
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भक्तको भगवान्की सेवामें आनन्द आता है और भगवान्को भक्तकी सेवामें आनन्द आता है॥३७१॥