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चिन्ता

शरीर-निर्वाहके लिये तो चिन्ता (विचार) करनेकी जरूरत ही नहीं है, पर शरीर छूटनेके बाद क्या होगा—इसके लिये चिन्ता करनेकी बहुत जरूरत है॥१५७॥

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जो होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा और जो नहीं होनेवाला है, वह कभी नहीं होगा, फिर चिन्ता किस बातकी?॥१५८॥

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हमें अपने लिये कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है और शरीरको जो चाहिये, वह प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही निश्चित है, फिर चिन्ता किस बातकी?॥१५९॥

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भगवान‍्की ओरसे हमारे निर्वाहका प्रबन्ध तो है, पर भोगका प्रबन्ध नहीं है। इसलिये निर्वाहकी चिन्ता और भोगकी इच्छा नहीं करनी चाहिये॥१६०॥

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भगवान‍् जो कुछ करते हैं और करेंगे, उसीमें मेरा हित है—ऐसा विश्वास करके हर परिस्थितिकी प्राप्तिमें निश्चिन्त रहना चाहिये॥१६१॥

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दु:ख-चिन्ताका कारण वस्तुओंका अभाव नहीं है, प्रत्युत मूर्खता है। यह मूर्खता सत्संगसे मिटती है॥१६२॥

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मनुष्य ज्यों-ज्यों अपने शरीरकी चिन्ता छोड़ता है, त्यों-त्यों उसके शरीरकी चिन्ता संसार करने लगता है॥१६३॥

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भगवान‍्के भरोसे रहनेपर किसी प्रकारकी चिन्ता टिक ही नहीं सकती॥१६४॥

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जिसे नहीं करना चाहिये, उसे करनेसे और जिसे करना चाहिये, उसे नहीं करनेसे ही चिन्ता और भय होते हैं॥१६५॥

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भगवान‍् हमसे ज्यादा जानते हैं, हमसे ज्यादा समर्थ हैं और हमसे ज्यादा दयालु हैं, फिर हम चिन्ता क्यों करें?॥१६६॥

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