धन
रुपयोंको सबसे बढ़िया मानना बुद्धि भ्रष्ट होनेका लक्षण है॥२२७॥
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धर्मके लिये धन नहीं चाहिये, मन चाहिये॥२२८॥
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धन किसीको भी अपना गुलाम नहीं बनाता। मनुष्य खुद ही धनका गुलाम बनकर अपना पतन कर लेता है॥२२९॥
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रुपयोंके कारण कोई सेठ नहीं बनता, प्रत्युत कँगला बनता है! वास्तवमें सेठ वही है, जो श्रेष्ठ है अर्थात् जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये॥२३०॥
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अभी जो धन मिल रहा है, वह वर्तमान कर्मका फल नहीं है, प्रत्युत प्रारब्धका फल है। वर्तमानमें धन-प्राप्तिके लिये जो झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी आदि करते हैं, उसका फल (दण्ड) तो आगे मिलेगा!॥२३१॥
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अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन हमारे काम आ जाय—यह नियम नहीं है; परन्तु उसका दण्ड भोगना पड़ेगा—यह नियम है॥२३२॥
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जहाँ रुपयोंकी जरूरत होती है, वहाँ परमार्थ नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंकी गुलामी होती है॥ २३३॥
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जैसे अपना दु:ख दूर करनेके लिये रुपये खर्च करते हैं, ऐसे ही दूसरेका दु:ख दूर करनेके लिये भी खर्च करें, तभी हमें रुपये रखनेका हक है॥२३४॥
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धनके लिये झूठ, कपट, बेईमानी आदि करनेसे जितनी हानि होती है, उतना लाभ होता ही नहीं अर्थात् उतना धन आता ही नहीं और जितना धन आता है, उतना पूरा-का-पूरा काम आता ही नहीं। अत: थोड़ेसे लाभके लिये इतनी अधिक हानि करना कहाँकी बुद्धिमानी है?॥२३५॥
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मरनेपर स्वभाव साथ जायगा, धन साथ नहीं जायगा। परन्तु मनुष्य स्वभावको तो बिगाड़ रहा है और धनको इकट्ठा कर रहा है। बुद्धिकी बलिहारी है!॥२३६॥
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रुपये मिलनेसे मनुष्य स्वाधीन नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंके पराधीन होता है; क्योंकि रुपये ‘पर’ हैं॥२३७॥
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धनके रहते हुए तो मनुष्य सन्त बन सकता है, पर धनकी लालसा रहते हुए मनुष्य सन्त नहीं बन सकता॥२३८॥
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दरिद्रता धन मिलनेसे नहीं मिटती, प्रत्युत धनकी इच्छा छोड़नेसे मिटती है॥२३९॥
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मनुष्यकी इज्जत धन बढ़नेसे नहीं है, प्रत्युत धर्म बढ़नेसे है॥२४०॥
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धनसे वस्तु श्रेष्ठ है, वस्तुसे मनुष्य श्रेष्ठ है, मनुष्यसे विवेक श्रेष्ठ है और विवेकसे भी सत्-तत्त्व (परमात्मा) श्रेष्ठ है। मनुष्य-जन्म उस सत्-तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये ही है॥२४१॥