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नामजप

साधककी समझमें चाहे कुछ न आता हो, उसको भगवान‍्की शरण लेकर भगवन्नाम-जप तो आरम्भ कर ही देना चाहिये॥२४२॥

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भगवन्नामका जप और कीर्तन—दोनों कलियुगसे रक्षा करके उद्धार करनेवाले हैं॥२४३॥

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नामजपमें प्रगति होनेकी पहचान यह है कि नामजप छूटे नहीं॥२४४॥

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नामजपमें रुचि नामजप करनेसे ही होती है॥२४५॥

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नामजप अभ्यास नहीं है, प्रत्युत पुकार है। अभ्यासमें शरीर-इन्द्रियाँ-मनकी और पुकारमें स्वयंकी प्रधानता रहती है॥२४६॥

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नामजप सभी साधनोंका पोषक है॥२४७॥

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भगवन्नाम सबके लिये खुला है और जीभ अपने मुखमें है, फिर भी नरकोंमें जाते हैं—यह बड़े आश्चर्यकी बात है!॥२४८॥

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भगवान‍्का होकर नाम लेनेका जो माहात्म्य है, वह केवल नाम लेनेका नहीं है। कारण कि नामजपमें नामी (भगवान‍्)-का प्रेम मुख्य है, उच्चारण (क्रिया) मुख्य नहीं है॥२४९॥

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संख्या (क्रिया)-की तरफ वृत्ति रहनेसे निर्जीव जप होता है और भगवान‍्की तरफ वृत्ति रहनेसे सजीव जप होता है। इसलिये जप और कीर्तनमें क्रियाकी मुख्यता न होकर प्रेमभावकी मुख्यता होनी चाहिये कि हम अपने प्यारेका नाम लेते हैं!॥ २५०॥

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भगवान‍्का कौन-सा नाम और रूप बढ़िया है—यह परीक्षा न करके साधकको अपनी परीक्षा करनी चाहिये कि मुझे कौन-सा नाम और रूप अधिक प्रिय है॥२५१॥

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