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दोष (विकार)

सर्वथा निर्दोष जीवन तो सबका हो सकता है, पर सर्वथा दोषी जीवन कभी किसीका हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान‍्का अंश होनेसे जीव स्वयं निर्दोष है। दोष आगन्तुक हैं और नाशवान‍्के संगसे आते हैं॥२०७॥

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साधक जब अपने दोषोंको दोषरूपसे देखकर उनके दु:खसे दु:खी हो जाता है, उनका रहना उसे असह्य हो जाता है, तो फिर उसके दोष ठहर नहीं सकते। भगवान‍्की कृपा उन दोषोंका शीघ्र ही नाश कर देती है॥२०८॥

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जितने भी विकार हैं, वे सब नाशवान‍् वस्तुको महत्त्व देनेसे ही पैदा होते हैं॥२०९॥

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ठगनेमें दोष है, ठगे जानेमें दोष नहीं है॥२१०॥

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सबमें भगवद्भाव करनेसे सम्पूर्ण विकारोंका नाश हो जाता है॥२११॥

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सन्तोषसे काम, क्रोध और लोभ—तीनों नष्ट हो जाते हैं॥२१२॥

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दोषोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। गुणोंकी कमीका नाम ही दोष है और वह कमी असत् को सत्ता और महत्ता देनेसे ही आती है॥२१३॥

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सभी विकार विकारी (शरीर)-में ही होते हैं, निर्विकार (स्वरूप)-में कोई विकार नहीं होता॥२१४॥

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मूल दोष एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं, वह है—संसारका सम्बन्ध। इसी तरह मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण गुण प्रकट होते हैं, वह है—भगवान‍्का सम्बन्ध॥२१५॥

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लोभके कारण आवश्यक वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती और प्राप्त वस्तुका सदुपयोग नहीं होता॥२१६॥

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