Hindu text bookगीता गंगा
होम > अमृत बिन्दु > दोषदृष्टि

दोषदृष्टि

अपनेमें गुणोंका अभिमान होनेसे ही दूसरोंमें दोष दीखते हैं और दूसरोंमें दोष देखनेसे अपना अभिमान पुष्ट होता है॥२१७॥

••••

जो साधक अपने दोषोंको मिटाना चाहता है, उसे दूसरेके दोषोंकी ओर नहीं देखना चाहिये। दूसरोंके दोष देखनेसे अपने दोष पुष्ट होते हैं और दोषोंके साथ सम्बन्ध हो जानेसे नये-नये दोष उत्पन्न होते हैं॥२१८॥

••••

दूसरोंके दोष देखनेसे न हमारा भला होता है, न दूसरोंका॥२१९॥

••••

मनुष्यका अन्त:करण जितना दोषी (मलिन) होता है, उतना ही उसको दूसरोंमें दोष दीखता है। रेडियोकी तरह मलिन अन्त:करण ही दोषको पकड़ता है॥२२०॥

••••

यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरेको बुरा समझनेका आपको कोई अधिकार नहीं है॥२२१॥

••••

किसीको भी बुरा न समझनेसे भलाई भीतरसे प्रकट होती है। भीतरसे प्रकट हुई भलाई ठोस और व्यापक होती है॥२२२॥

••••

यदि आप अपनी निर्दोषताको सुरक्षित रखना चाहते हैं तो किसीमें भी दोष न देखें; न अपनेमें, न दूसरेमें॥२२३॥

••••

दूसरेको निर्दोष बनानेकी नीयतसे उसके दोष देखनेमें बुराई नहीं है। बुराई है—दूसरेके दोष दीखनेपर प्रसन्न होना॥२२४॥

••••

सबका स्वरूप स्वत: निर्दोष है। अत: पुत्र, शिष्य आदिको स्वरूपसे निर्दोष मानकर और उनमें दीखनेवाले दोषको आगन्तुक मानकर ही उनको शिक्षा देनी चाहिये, उनके आगन्तुक दोषको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये॥२२५॥

••••

अगर हम दूसरेमें दोष मानेंगे तो उसमें वे दोष आ जायँगे; क्योंकि उसमें दोष देखनेसे हमारा त्याग, तप, बल आदि भी उस दोषको पैदा करनेमें स्वाभाविक सहायक बन जायँगे, जिससे वह व्यक्ति दोषी हो जायगा और हमारा भी नुकसान होगा॥२२६॥

अगला लेख  > धन