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एकान्त

शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे अपना सम्बन्ध न रखना ही सच्चा एकान्त है॥५०॥

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एकान्त मिले या समुदाय मिले, साधकको अपना साधन किसी परिस्थितिके अधीन नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपना साधन बनाना चाहिये॥ ५१॥

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एकान्तकी इच्छा करनेवाला परिस्थितिके अधीन होता है। जो परिस्थितिके अधीन होता है, वह भोगी होता है, योगी नहीं॥५२॥

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साधकका न तो जन-समुदायमें राग होना चाहिये, न एकान्तमें। कल्याण परिस्थितिसे नहीं होता, प्रत्युत रागरहित होनेसे होता है॥ ५३॥

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निर्जन-स्थानमें चले जानेको अथवा अकेले पड़े रहनेको एकान्त मान लेना भूल है; क्योंकि सम्पूर्ण संसारका बीज यह शरीर तो साथमें है ही। जबतक शरीरके साथ सम्बन्ध है, तबतक सम्पूर्ण संसारके साथ सम्बन्ध बना हुआ है॥५४॥

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शरीर भी संसारका ही एक अंग है। अत: शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होना अर्थात् उसमें अहंता-ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है॥५५॥

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साधकमें एकान्त-सेवनकी रुचि होनी तो बढ़िया है, पर उसका आग्रह (राग) होना बढ़िया नहीं है। आग्रह होनेसे एकान्त न मिलनेपर अन्त:करणमें हलचल होगी, जिससे संसारकी महत्ता दृढ़ होगी॥५६॥

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