गुरु और शिष्य
जो दुनियाका गुरु बनता है, वह दुनियाका गुलाम हो जाता है और जो अपने-आपका गुरु बनता है, वह दुनियाका गुरु हो जाता है॥१४४॥
••••
कल्याण-प्राप्तिमें खुदकी लगन काम आती है। खुदकी लगन न हो तो गुरु क्या करेगा? शास्त्र क्या करेगा?॥१४५॥
••••
जो हमसे कुछ भी चाहता है, वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है?॥१४६॥
••••
पुत्र और शिष्यको अपनेसे श्रेष्ठ बनानेका विधान तो है, पर अपना गुलाम बनानेका विधान नहीं है॥१४७॥
••••
गुरुमें मनुष्यबुद्धि करना और मनुष्यमें गुरुबुद्धि करना अपराध है; क्योंकि गुरु तत्त्व है, शरीरका नाम गुरु नहीं है॥ १४८॥
••••
शिष्य दुर्लभ है, गुरु नहीं। सेवक दुर्लभ है, सेव्य नहीं। जिज्ञासु दुर्लभ है, ज्ञान नहीं। भक्त दुर्लभ है, भगवान् नहीं॥ १४९॥
••••
जो हमारेसे धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधा, मान-आदर, पूजा-सत्कार आदि कुछ भी चाहता है, वह हमारा कल्याण नहीं कर सकता॥१५०॥
••••
जगत्, जीव और परमात्मा—इन तीनोंको न जानना अन्धकार है। जो इस अन्धकारको मिटा दे, वह गुरु है॥१५१॥
••••
गुरु शिष्यके लिये होता है, शिष्य गुरुके लिये नहीं होता। राजा प्रजाके लिये होता है, प्रजा राजाके लिये नहीं होती॥१५२॥
••••
भगवान् जगद्गुरु होते हुए भी मनुष्यको कभी चेला नहीं बनाते, प्रत्युत सखा ही बनाते हैं॥१५३॥
••••
गुरु शिष्यको कोई नया ज्ञान नहीं देता, प्रत्युत उसके भीतर पहलेसे विद्यमान जो ज्ञान है, उसको ही जाग्रत् करता है॥१५४॥
••••
सच्चा गुरु दूसरेको गुरु ही बनाता है, चेला नहीं बनाता। जो चेला बनाना चाहता है, वह चेलादास होता है॥१५५॥
••••
हमारा वास्तविक गुरु हमारे भीतर है, वह है—विवेक। यह विवेक भगवान्ने दिया है। भगवान्ने अपने कल्याणके लिये मनुष्यशरीर दे दिया, सब साधन-सामग्री दे दी तो क्या गुरुको बाकी छोड़ दिया!॥१५६॥