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कामना

जबतक साधकमें अपने सुख, आराम, मान, बड़ाई आदिकी कामना है, तबतक उसका व्यक्तित्व नहीं मिटता और व्यक्तित्व मिटे बिना तत्त्वसे अभिन्नता नहीं होती॥८८॥

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जब हमारे अन्त:करणमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहेगी, तब हमें भगवत्प्राप्तिकी भी इच्छा नहीं करनी पड़ेगी, प्रत्युत भगवान‍् स्वत: प्राप्त हो जायँगे॥८९॥

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संसारकी कामनासे पशुताका और भगवान‍्की कामनासे मनुष्यताका आरम्भ होता है॥९०॥

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‘मेरे मनकी हो जाय’—इसीको कामना कहते हैं। यह कामना ही दु:खका कारण है। इसका त्याग किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता॥९१॥

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मुझे सुख कैसे मिले—केवल इसी चाहनाके कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है॥९२॥

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कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे, अपने स्वरूपसे और अपने इष्ट (भगवान‍्)-से विमुख हो जाता है और नाशवान‍् संसारके सम्मुख हो जाता है॥९३॥

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साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये॥९४॥

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कामनाओंके त्यागमें सब स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ हैं। परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं है॥९५॥

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ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है॥९६॥

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कामनामात्रसे कोई भी पदार्थ नहीं मिलता, अगर मिलता भी है तो सदा साथ नहीं रहता—ऐसी बात प्रत्यक्ष होनेपर भी पदार्थोंकी कामना रखना प्रमाद ही है॥९७॥

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जीवन तभी कष्टमय होता है, जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं॥९८॥

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यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते। परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है॥९९॥

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इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है और इच्छाकी पूर्ति करनेमें सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है॥१००॥

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सुखकी इच्छा, आशा और भोग—ये तीनों सम्पूर्ण दु:खोंके कारण हैं॥१०१॥

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नाशवान‍्की चाहना छोड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती है॥१०२॥

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ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये—इसीमें सब दु:ख भरे हुए हैं॥१०३॥

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हमारा सम्मान हो—इस चाहनाने ही हमारा अपमान किया है॥१०४॥

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मनमें किसी वस्तुकी चाह रखना ही दरिद्रता है। लेनेकी इच्छावाला सदा दरिद्र ही रहता है॥१०५॥

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नाशवान‍्की इच्छा ही अन्त:करणकी अशुद्धि है॥१०६॥

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मनुष्यको कर्मोंका त्याग नहीं करना है, प्रत्युत कामनाका त्याग करना है॥१०७॥

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मनुष्यको वस्तु गुलाम नहीं बनाती, उसकी इच्छा गुलाम बनाती है॥१०८॥

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यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाका त्याग करो॥१०९॥

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कुछ भी लेनेकी इच्छा भयंकर दु:ख देनेवाली है॥११०॥

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जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा॥१११॥

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अपने लिये सुख चाहना आसुरी, राक्षसी वृत्ति है॥११२॥

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जैसे बिना चाहे सांसारिक दु:ख मिलता है, ऐसे ही बिना चाहे सुख भी मिलता है। अत: साधक सांसारिक सुखकी इच्छा कभी न करे॥११३॥

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भोग और संग्रहकी इच्छा सिवाय पाप करानेके और कुछ काम नहीं आती। अत: इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये॥११४॥

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अपने लिये भोग और संग्रहकी इच्छा करनेसे मनुष्य पशुओंसे भी नीचे गिर जाता है तथा इसकी इच्छाका त्याग करनेसे देवताओंसे भी ऊँचे उठ जाता है॥११५॥

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जो वस्तु हमारी है, वह हमें मिलेगी ही; उसको कोई दूसरा नहीं ले सकता। अत: कामना न करके अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये॥११६॥

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जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय—यह इच्छा जबतक रहेगी, तबतक शान्ति नहीं मिल सकती॥११७॥

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मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंको चाहता है—यह आश्चर्यकी बात है!॥११८॥

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शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे ही नाशवान‍्की इच्छा होती है और इच्छा होनेसे ही शरीरमें अपनी स्थिति दृढ़ होती है॥११९॥

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कुछ चाहनेसे कुछ मिलता है और कुछ नहीं मिलता; परन्तु कुछ न चाहनेसे सब कुछ मिलता है॥१२०॥

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निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं। हम प्रशंसा चाहते हैं तो वास्तवमें हम प्रशंसाके योग्य नहीं हैं; क्योंकि जो प्रशंसाके योग्य होता है, उसमें प्रशंसाकी चाहना नहीं रहती॥१२१॥

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दूसरोंसे अच्छा कहलानेकी इच्छा बहुत बड़ी निर्बलता है। इसलिये अच्छे बनो, अच्छे कहलाओ मत॥१२२॥

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सांसारिक सुखकी इच्छाका त्याग कभी-न-कभी तो करना ही पड़ेगा तो फिर देरी क्यों?॥१२३॥

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जहाँतक बने, दूसरोंकी आशापूर्तिका उद्योग करो, पर दूसरोंसे आशा मत रखो॥१२४॥

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विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं, क्या वह सर्वथा सुखी है? क्या वह दु:खी नहीं है? दु:खी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा?॥१२५॥

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कामना छूटनेसे जो सुख होता है, वह सुख कामनाकी पूर्तिसे कभी नहीं होता॥१२६॥

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परमात्माकी उत्कट अभिलाषा चाहते हो तो संसारकी अभिलाषाको छोड़ो॥१२७॥

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जो बदलनेवाले (संसार)-की इच्छा करता है, उससे सुख लेता है, वह भी बदलता रहता है अर्थात् अनेक योनियोंमें जन्मता-मरता रहता है॥१२८॥

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जिसको हम सदाके लिये अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करनेसे और उसको पानेसे भी क्या लाभ?॥१२९॥

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कामनाके कारण ही कमी है। कामनासे रहित होनेपर कोई कमी बाकी नहीं रहेगी॥१३०॥

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कामनाका सर्वथा त्याग कर दें तो आवश्यक वस्तुएँ स्वत: प्राप्त होंगी; क्योंकि वस्तुएँ निष्काम पुरुषके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं॥१३१॥

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जो अपने सुखके लिये वस्तुओंकी इच्छा करता है, उसको वस्तुओंके अभावका दु:ख भोगना ही पड़ेगा॥१३२॥

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जिसके भीतर कोई भी इच्छा नहीं होती, उसकी आवश्यकताओंकी पूर्ति प्रकृति स्वत: करती है॥ १३३॥

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जो सदा हमारे साथ नहीं रहेगा और हम सदा जिसके साथ नहीं रहेंगे, उसको प्राप्त करनेकी इच्छा करना अथवा उससे सुख लेना मूर्खता है, पतनका कारण है॥१३४॥

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सुखकी इच्छासे सुख नहीं मिलता—यह नियम है॥ १३५॥

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चाहे साधु बनो, चाहे गृहस्थ बनो, जबतक कामना (कुछ पानेकी इच्छा) रहेगी, तबतक शान्ति नहीं मिल सकती॥१३६॥

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अगर शान्ति चाहते हो तो ‘यों होना चाहिये, यों नहीं होना चाहिये’—इसको छोड़ दो और ‘जो भगवान‍् चाहें, वही होना चाहिये’—इसको स्वीकार कर लो॥१३७॥

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कामनापूर्वक किया गया सब कार्य असत् है, उसका फल नाशवान‍् होगा॥१३८॥

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कुछ भी चाहना गुलामी है और कुछ नहीं चाहना आजादी है॥ १३९॥

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वस्तुके न मिलनेसे हम अभागे नहीं हैं, प्रत्युत भगवान‍्के अंश होकर भी हम नाशवान‍् वस्तुकी इच्छा करते हैं—यही हमारा अभागापन है॥१४०॥

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सुखकी इच्छासे ही द्वैत होता है। सुखकी इच्छा न हो तो द्वैत है ही नहीं॥१४१॥

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जबतक शरीरको अपना मानते रहेंगे, तबतक हमारी कामना नहीं मिट सकती॥१४२॥

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विचार करें, कामनाकी पूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं और अपूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं, फिर कामनाकी पूर्तिसे हमें क्या मिला और अपूर्तिसे हमारी क्या हानि हुई? हमारेमें क्या फर्क पड़ा?॥१४३॥

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