Hindu text bookगीता गंगा
होम > अमृत बिन्दु > लेना और देना

लेना और देना

सुख लेनेसे अन्त:करण अशुद्ध होता है और सुख देनेसे अन्त:करण शुद्ध होता है॥५७८॥

••••

इस संसार-समुद्रसे जो लेना चाहता है, वह डूब जाता है और जो देना चाहता है, वह तर जाता है॥५७९॥

••••

‘देने’ के भावसे समाजमें एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और ‘लेने’ के भावसे संघर्ष उत्पन्न होता है॥५८०॥

••••

‘देने’ का भाव उद्धार करनेवाला और ‘लेने’ का भाव पतन करनेवाला होता है॥५८१॥

••••

शरीरको ‘मैं’, ‘मेरा’ अथवा ‘मेरे लिये’ माननेसे ही ‘लेने’ का भाव उत्पन्न होता है॥५८२॥

••••

केवल सेवा करनेके लिये ही दूसरोंसे सम्बन्ध रखो। लेनेके लिये सम्बन्ध रखोगे तो दु:ख पाना पड़ेगा॥५८३॥

••••

लेकर दान देनेकी अपेक्षा न लेना ही बढ़िया है॥ ५८४॥

••••

लेकर देनेकी अपेक्षा न लेनेका बड़ा भारी पुण्य है। पर इस बातको समझनेवाले बहुत कम हैं!॥५८५॥

••••

संसारसे कुछ भी लेना पाप है और देना पुण्य है॥ ५८६॥

••••

सुख लेनेके लिये शरीर भी अपना नहीं है और सुख देने (सेवा करने)-के लिये पूरा संसार अपना है॥५८७॥

••••

लेनेकी इच्छासे मनुष्य दास हो जाता है और केवल देनेकी इच्छासे मालिक हो जाता है॥५८८॥

••••

लेनेके भावसे भोग होता है और देनेके भावसे योग होता है॥५८९॥

••••

शरीरको आवश्यकतानुसार अन्न-जल-वस्त्र तो देना है, पर शरीरसे सम्बन्ध जोड़कर अन्न-जल-वस्त्र लेनेवाला नहीं बनना है। लेना बन्धन है और देना मुक्ति है॥५९०॥

अगला लेख  > शरणागति