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शरणागति

संसारका आश्रय लेनेसे पराधीनता और भगवान‍्का आश्रय लेनेसे स्वाधीनता प्राप्त होती है॥५९१॥

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भगवान‍्का आश्रय लिये बिना भगवान‍्को जानना असम्भव है॥ ५९२॥

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एक भगवान‍्के सिवाय और किसीका आश्रय न लेना ही ‘अनन्यता’ है॥ ५९३॥

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संसारका आश्रय ही भगवान‍्की शरणागतिमें बाधक है॥५९४॥

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भय दूसरेसे होता है, अपनेसे नहीं। भगवान‍् अपने हैं, इसलिये उनके शरण होनेपर मनुष्य सदाके लिये निर्भय हो जाता है॥५९५॥

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भगवान‍्की शरणागति स्वीकार कर लेनेपर फिर भक्तको किसी प्रकार सन्देह, परीक्षा, विपरीत भावना और कसौटी नहीं लगानी चाहिये॥५९६॥

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भगवान‍्के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचानना ही भगवान‍्की शरण होना है। शरण होनेपर भक्त निश्चिन्त, निर्भय, नि:शोक और नि:शंक हो जाता है॥५९७॥

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भगवान‍्के लिये अपनी मनचाही छोड़ देना ही शरणागति है॥५९८॥

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शरणागति मन-बुद्धिसे नहीं होती, प्रत्युत स्वयंसे होती है॥५९९॥

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परमात्माके आश्रयसे बढ़कर दूसरा कोई आश्रय नहीं है॥६००॥

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शरणागति और प्रारब्ध—इन दोनोंका तात्पर्य चिन्ताको छोड़नेमें है, पुरुषार्थ (शास्त्रोक्त कर्तव्य कर्म)-को छोड़नेमें नहीं॥६०१॥

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जीवमात्र साक्षात् परमात्माका अंश है। अत: जबतक यह जीव अपने अंशी परमात्माका आश्रय नहीं लेगा, तबतक यह दूसरोंका आश्रय लेकर पराधीन होता ही रहेगा, दु:ख पाता ही रहेगा॥६०२॥

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जबतक मनुष्य भगवान‍्का सहारा नहीं लेगा, तबतक कोई भी सहारा टिकेगा नहीं और वह दु:ख पाता ही रहेगा॥६०३॥

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जिसमें अपने साधनका अभिमान नहीं है और जिसे अपने कल्याणका और कोई उपाय नहीं दीखता, वही भगवान‍्की शरणागतिका अधिकारी है॥६०४॥

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आश्रय उसीका लेना चाहिये, जो हमारेसे अलग, दूर, विमुख और भिन्न न हो सके तथा हम उससे अलग, दूर, विमुख और भिन्न न हो सकें॥६०५॥

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अपनेमें कुछ भी विशेषता दीखती है तो यह शरणागतिमें बाधक है॥६०६॥

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वेदोंका सार उपनिषद् हैं, उपनिषदोंका सार गीता है और गीताका सार भगवान‍्की शरणागति है॥६०७॥

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जबतक अपने बलका अभिमान रहता है, तबतक शरणागति नहीं होती॥६०८॥

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शरणागति बहुत सुगम है, पर अभिमानी व्यक्तिके लिये बहुत कठिन है। मैं कुछ कर सकता हूँ—यह अभिमान जबतक रहेगा, तबतक शरण होना कठिन है॥६०९॥

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भगवान‍्के शरण होनेसे जो तत्त्व मिलता है, वह अपने उद्योगसे नहीं मिलता॥६१०॥

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सब प्रकारसे एक भगवान‍्के शरण होनेसे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है॥६११॥

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