ममता
जबतक मनुष्यकी स्त्री, पुत्र आदिमें ममता रहेगी, तबतक उसके द्वारा स्त्री, पुत्र आदिका सुधार होना असम्भव है; क्योंकि ममता ही मूल अशुद्धि है॥५२७॥
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मनुष्य अपने पास ममतापूर्वक जितनी सामग्री रखता है, उतना ही असत् का संग है। जितना असत् का संग होता है, उतना ही मनुष्यका पतन होता है॥५२८॥
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जिन-जिन वस्तुओंको हम अपनी मानते हैं, उन-उन वस्तुओंके हम पराधीन हो जाते हैं। पराधीन व्यक्तिको स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता—‘पराधीन सपनेहु सुखु नाहीं।’॥५२९॥
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संसारमात्र परमात्माका है, पर जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धनमें पड़ जाता है॥५३०॥
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शरीर, इन्द्रियाँ आदि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुद्धि है—‘ममता मल जरि जाइ।’॥५३१॥
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हम घरमें रहनेसे नहीं फँसते, प्रत्युत घरको अपना माननेसे फँसते हैं॥५३२॥
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मनुष्य संसारमें जितनी चीजोंको अपनी और अपने लिये मानता है, उतना ही वह फँसता है॥५३३॥
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मनुष्य संसारमें जितनी वस्तुओंको अपनी मानता है, उतना ही वह उनके पराधीन हो जाता है। परन्तु परमात्माको अपना माननेसे वह स्वाधीन हो जाता है॥५३४॥
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शरीरादिको ‘अपना’ और ‘अपने लिये’ मानना बहुत बड़ी भूल है। इस भूलको मिटा दें तो कल्याण होनेमें कोई सन्देह नहीं है॥५३५॥
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जिसके साथ हम सदा न रह सकें और जो हमारे साथ सदा न रह सके, उसको अपना माननेसे परिणाममें रोनेके सिवाय और कुछ नहीं मिलेगा। अत: उसको अपना न मानकर उसकी सेवा करे॥ ५३६॥
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मिली हुई वस्तुको अपनी माननेवाला न संसारके कामका है, न अपने कामका है और न भगवान्के कामका है॥५३७॥
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ममतारहित पुरुष दुनियाका जितना भला कर सकता है, उतना ममतावाला कर ही नहीं सकता॥५३८॥
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न तो किसी वस्तुको अपनी और अपने लिये मानना चाहिये तथा न किसी वस्तुकी कामना करनी चाहिये; क्योंकि वस्तुको अपनी माननेसे अशुद्धि आती है और कामना करनेसे अशान्ति आती है॥५३९॥
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संसार प्रतिक्षण जा रहा है। जानेवालेके साथ ममता करोगे तो रोना ही पड़ेगा, पर रहनेवाले भगवान्से आत्मीयता करोगे तो सदाके लिये निहाल हो जाओगे॥५४०॥
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मेरी कहलानेवाली कोई भी वस्तु सदा हमारे साथ नहीं रह सकती, फिर उसकी ममताके त्यागमें क्या कठिनता?॥५४१॥
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शरीरको अपना मानना केवल दु:ख पानेके लिये है और संसारका मानना मुक्ति पानेके लिये है॥५४२॥
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जो वस्तु अपनेसे अलग होती है, वह अपनी नहीं होती। अलग वही वस्तु होती है, जो वास्तवमें अपनेसे अलग है॥५४३॥
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शरीरको अपना मानना असत् का संग है और शरीरको अपना न मानना सत् का संग है॥५४४॥
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हम शरीरको अपना मानेंगे तो शरीरमें होनेवाली चीज अपनेमें दीखेगी और शरीरतक पहुँचनेवाली चीज अपनेतक पहुँचती दीखेगी॥५४५॥