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मृत्यु और अमरता

शरीर-संसारके सम्बन्धसे मृत्युका और भगवान‍्के सम्बन्धसे अमरताका अनुभव होता है॥५४६॥

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अपने लिये कर्म करनेसे पहले कर्मके साथ और फिर फलके साथ सम्बन्ध जुड़ता है। कर्म और फल—दोनों ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं, पर अन्त:करणमें जो आसक्ति रह जाती है, वह बार-बार जन्म-मरण देती है॥५४७॥

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शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना प्रमाद है; प्रमाद ही मृत्यु है॥५४८॥

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किसी भी कामका होना या न होना अनिश्चित है, पर मरना बिलकुल निश्चित है॥५४९॥

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जैसे शरीरके लिये मृत्यु सुलभ है, ऐसे ही अपने लिये अमरता सुलभ है॥५५०॥

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