मनुष्य
सुख भोगनेके लिये स्वर्ग है, दु:ख भोगनेके लिये नरक है और सुख-दु:ख दोनोंसे ऊँचा उठकर अपना कल्याण करनेके लिये मनुष्यशरीर है॥५०७॥
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वास्तवमें मनुष्यजन्म ही सब जन्मोंका आदि तथा अन्तिम जन्म है। यदि मनुष्य परमात्मप्राप्ति कर ले तो अन्तिम जन्म भी यही है और परमात्मप्राप्ति न करे तो अनन्त जन्मोंका आदि जन्म भी यही है॥५०८॥
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अपना उद्धार करना अथवा परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना मनुष्यमात्रका स्वधर्म है; क्योंकि मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है॥५०९॥
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शरीरसे अपना सम्बन्ध मानकर भोग और संग्रहमें लगना मनुष्यमात्रका पर धर्म है॥५१०॥
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आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है॥५११॥
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मनुष्यमें अगर मनुष्यता नहीं है तो मनुष्य पशुसे भी नीचा है। कारण कि पशु तो अपने पूर्वकृत पापकर्मोंका फल भोगकर मनुष्यताकी तैयारी कर रहा है, पर मनुष्य नये पाप-कर्म करके नरकोंकी, पशुताकी तैयारी कर रहा है॥५१२॥
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ऊँची-से-ऊँची जीवन्मुक्त अवस्था मनुष्यमात्रमें स्वाभाविक है॥५१३॥
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शरीरका सदुपयोग केवल संसारकी सेवामें ही है॥५१४॥
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भगवान्को याद रखना और सेवा करना—इन दो बातोंसे ही मनुष्यता सिद्ध होती है॥५१५॥
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मनुष्यशरीर मिल गया, पर परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई तो यह बड़े शोककी, दु:खकी बात है!॥५१६॥
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मनुष्यशरीर केवल सुनने-सीखनेके लिये नहीं है, प्रत्युत तत्त्वका अनुभव करनेके लिये है। सुनना-सीखना तो पशु-पक्षियोंमें भी होता है, जिससे वे सर्कसमें काम करते हैं॥५१७॥
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जो दूसरोंकी सेवा नहीं करता और भगवान्को याद नहीं करता, वह मनुष्य कहलानेका अधिकारी ही नहीं है॥५१८॥
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किसी भी सुखभोगके आरम्भकालको देखना पशुता है और उसके परिणामको देखना मनुष्यता है॥५१९॥
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सृष्टिकी रचना ही इस ढंगसे हुई है कि मनुष्योंका जीवन दूसरोंके लिये है, अपने लिये नहीं॥५२०॥
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परमात्माकी प्राप्तिके बिना मनुष्यशरीर किसी कामका नहीं है॥५२१॥
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जिनकी भगवान्की तरफ रुचि हो गयी है, वे ही भाग्यशाली हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलानेयोग्य हैं॥५२२॥
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मनुष्यजन्मकी सफलताके लिये हरदम सावधान रहनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है॥५२३॥
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मनुष्यशरीरकी महिमा विवेकको लेकर है, क्रियाको लेकर नहीं॥५२४॥
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वास्तवमें मनुष्य कर्मयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि है। जो साधक नहीं है, वह देवता या असुर तो हो सकता है, पर मनुष्य नहीं हो सकता॥५२५॥
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‘मनुष्य’ नाम उसीका है, जो परमात्मप्राप्तिका जन्मजात अधिकारी हो॥५२६॥