योग और भोग
सुखदायी परिस्थिति आनेपर सुखी तथा दु:खदायी परिस्थिति आनेपर दु:खी होनेवाला मनुष्य भोगी है,योगी नहीं। योगी तो सुख और दु:ख दोनोंमें समान रहता है॥५५१॥
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भोगी व्यक्ति रोगी होता है, दु:खी होता है और दुर्गतिमें जाता है॥५५२॥
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अपने सुखसे सुखी होनेवाला कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता॥५५३॥
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भोगी योगी नहीं होता, प्रत्युत रोगी होता है—‘भोगे रोगभयम्’॥५५४॥
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भोग दो वस्तुओं आदिके संयोगसे होता है और योग (परमात्मासे नित्य-सम्बन्ध) अकेला, स्वत:सिद्ध होता है। जबतक भोग है, तबतक योगका अनुभव नहीं होता। भोगका सर्वथा त्याग होनेपर ही योगका अनुभव होता है और योगका अनुभव होनेपर भोगकी इच्छा सर्वथा मिट जाती है॥५५५॥
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परमात्माके संगसे योग और संसारके संगसे भोग होता है॥५५६॥
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एकान्तका सुख लेना, मन लगनेका सुख लेना भोग है, योग नहीं॥५५७॥
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संसारसे सम्बन्ध जोड़नेका नाम ‘भोग’ है और सम्बन्ध तोड़नेका नाम ‘योग’ है॥५५८॥
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किसी भी अवस्थामें राजी होना भोग है। भोगसे व्यक्तित्व नहीं मिटता। अत: साधकको किसी भी अवस्थामें राजी नहीं होना चाहिये॥५५९॥
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संसारका वियोग भी स्वत:सिद्ध है और परमात्माका योग भी स्वत:सिद्ध है॥५६०॥
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जिसका स्वत: वियोग हो रहा है, उसके संयोगकी इच्छाका त्याग कर दें—इसका नाम ‘योग’ है॥५६१॥
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जो कभी योगी और कभी भोगी होता है, वह वास्तवमें भोगी ही होता है॥५६२॥
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योगीके द्वारा सबको सुख मिलता है और भोगीके द्वारा सबको दु:ख मिलता है॥५६३॥
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मेरेको मिल जाय—यह भोग है, और दूसरोंको मिल जाय—यह योग है॥५६४॥
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अपनी सुख-सुविधाको देखनेवाला भोगी होता है, योगी नहीं होता॥५६५॥
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जो सदाके लिये और सबके लिये है, उसकी प्राप्ति ‘योग’ है। जो सदाके लिये और सबके लिये नहीं है, उसकी प्राप्ति ‘भोग’ है॥५६६॥
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भगवान्को अपना मानना योग है और भगवान्से कुछ चाहना भोग है॥५६७॥
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‘योग’ वियोगसे होता है और ‘भोग’ संयोगसे होता है॥५६८॥
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भोगी व्यक्ति तो कइयोंका ऋणी होता है, पर योगी किसीका भी ऋणी नहीं होता॥५६९॥