पाप और पुण्य
कोई हमारा अपकार करता है तो उससे वस्तुत: हमारा उपकार ही होता है; क्योंकि उसके अपकारसे हमारे पाप कटते हैं॥२५२॥
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दूसरोंकी बुराई करनेसे तो पाप लगता ही है, बुराई सुनने और कहनेसे भी पाप लगता है॥२५३॥
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अपने कल्याणकी तीव्र इच्छा होनेपर साधकके पाप नष्ट हो जाते हैं॥२५४॥
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भगवान्से विमुख होकर संसारके सम्मुख होनेके समान कोई पाप नहीं है॥२५५॥
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अब मैं पुन: पाप नहीं करूँगा—यह पापका असली प्रायश्चित्त है॥२५६॥
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मनुष्यजन्ममें किये हुए पाप नरकों एवं चौरासी लाख योनियोंमें भोगनेपर भी समाप्त नहीं होते, प्रत्युत शेष रह जाते हैं और जन्म-मरणका कारण बनते हैं॥२५७॥
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जहाँ मनुष्य अनुकूलतासे सुखी और प्रतिकूलतासे दु:खी होता है, वहाँ ही वह पाप-पुण्यसे बँधता है॥२५८॥
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नाशवान्को महत्त्व देना ही बन्धन है। इसीसे सब पाप पैदा होते हैं॥२५९॥
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अगर सुखकी इच्छा है तो पाप करना न चाहते हुए भी पाप होगा। सुखकी इच्छा ही पाप करना सिखाती है। अत: पापोंसे छूटना हो तो सुखकी इच्छाका त्याग करो॥२६०॥
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जहाँ दूसरोंको दु:ख देनेकी और अपना मतलब सिद्ध करनेकी नीयत होती है, वहीं पाप लगता है और बन्धन होता है॥२६१॥
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छिपानेसे पाप और पुण्य—दोनों विशेष फल देनेवाले हो जाते हैं। इसलिये अपने पाप तो प्रकट कर देने चाहिये, पर पुण्य प्रकट नहीं करने चाहिये—छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥ (मानस, लंका० ७२। २)॥२६२॥
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किसी व्यक्तिको भगवान्की तरफ लगानेके समान कोई पुण्य नहीं है, कोई दान नहीं है॥२६३॥
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मुझे सुख मिल जाय—यह सब पापोंकी जड़ है॥२६४॥
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पहले पाप कर लें, पीछे प्रायश्चित्त कर लेंगे—इस प्रकार जान-बूझकर किये गये पाप प्रायश्चित्तसे नष्ट नहीं होते॥२६५॥