प्रारब्ध
प्रारब्ध चिन्ता मिटानेके लिये है, निकम्मा बनानेके लिये नहीं॥२८३॥
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मनुष्य प्रारब्धके अनुसार पाप-पुण्य नहीं करता; क्योंकि कर्मका फल कर्म नहीं होता, प्रत्युत भोग होता है॥२८४॥
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प्रारब्धका काम तो केवल सुखदायी-दु:खदायी परिस्थितिको उत्पन्न कर देना है, पर उसमें सुखी-दु:खी होने अथवा न होनेमें मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है॥२८५॥
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यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ प्रभुका विधान है कि अपने पापसे अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह अपने किसी-न-किसी पापका ही फल होता है॥२८६॥
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जो होता है, वह ठीक ही होता है, बेठीक होता ही नहीं। इसलिये करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहना चाहिये॥२८७॥
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शास्त्रनिषिद्ध आचरण प्रारब्धसे नहीं होते, प्रत्युत कामनासे होते हैं॥२८८॥
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एक ‘करना’ होता है और एक ‘होना’ होता है, दोनोंका विभाग अलग-अलग है। ‘करना’ पुरुषार्थके अधीन है और ‘होना’ प्रारब्धके अधीन है। इसलिये मनुष्य करने (कर्तव्य)-में स्वाधीन है और होने (फलप्राप्ति)-में पराधीन है॥२८९॥