प्रेम
संसारसे सर्वथा राग हटते ही भगवान्में अनुराग (प्रेम) हो जाता है॥२९०॥
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जो चीज अपनी होती है, वह सदा अपनेको प्यारी लगती है। अत: एकमात्र भगवान्को अपना मान लेनेपर भगवान्में प्रेम प्रकट हो जाता है॥२९१॥
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कितने आश्चर्यकी बात है कि जो नित्य-निरन्तर विद्यमान रहता है, वह (परमात्मा) तो प्रिय नहीं लगता, पर जो नित्य-निरन्तर बदल रहा है, वह (संसार) प्रिय लगता है॥२९२॥
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जबतक संसारमें आसक्ति है, तबतक भगवान्में असली प्रेम नहीं है॥२९३॥
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संसारकी सुखासक्ति ही भगवत्प्रेममें खास बाधक है। अगर सुखासक्तिका त्याग कर दिया जाय तो भगवान्में प्रेम स्वत: जाग्रत् हो जायगा॥२९४॥
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जबतक नाशवान्की तरफ खिंचाव रहेगा, तबतक साधन करते हुए भी अविनाशीकी तरफ खिंचाव (प्रेम) और उसका अनुभव नहीं होगा॥२९५॥
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भगवान्में अनन्यप्रेमका नाम राधातत्त्व है। जबतक संसारमें आकर्षण रहता है, तबतक राधातत्त्व अनुभवमें नहीं आता॥२९६॥
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भगवान्में प्रेम होनेके समान कोई भजन नहीं है॥२९७॥
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जबतक साधक अपने मनकी बात पूरी करना चाहेगा, तबतक उसका न सगुणमें प्रेम होगा, न निर्गुणमें॥२९८॥
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भगवत्प्रेम यज्ञ, तप, दान, व्रत, तीर्थ आदिसे नहीं प्राप्त होता, प्रत्युत भगवान्में दृढ़ अपनेपनसे प्राप्त होता है॥२९९॥
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तपस्यासे प्रेम नहीं मिलता, प्रत्युत शक्ति मिलती है। प्रेम भगवान्में अपनापन होनेसे मिलता है॥३००॥
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भगवत्प्रेममें जो विलक्षण रस है, वह ज्ञानमें नहीं है। ज्ञानमें तो अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है॥३०१॥
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भेद मतमें होता है, प्रेममें नहीं। प्रेम सम्पूर्ण मतवादोंको खा जाता है॥३०२॥
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भगवान्की तरफ खिंचाव होनेका नाम भक्ति है। भक्ति कभी पूर्ण नहीं होती, प्रत्युत उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है॥३०३॥
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भगवान्के प्रेमके लिये उनमें दृढ़ अपनापनकी जरूरत है और उनके दर्शनके लिये उत्कट अभिलाषाकी जरूरत है॥३०४॥
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संसारको जानोगे तो उससे वैराग्य हो जायगा और परमात्माको जानोगे तो उनमें प्रेम हो जायगा॥३०५॥
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जिसका मिलना अवश्यम्भावी है, उस परमात्मासे प्रेम करो और जिसका बिछुड़ना अवश्यम्भावी है, उस संसारकी सेवा करो॥३०६॥
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प्रेम वहीं होता है, जहाँ अपने सुख और स्वार्थकी गन्ध भी नहीं होती॥३०७॥
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प्रेम मुक्तिसे भी आगेकी चीज है। मुक्तितक तो जीव रसका अनुभव करनेवाला होता है, पर प्रेममें वह रसका दाता बन जाता है॥३०८॥
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ज्ञानमार्गमें दु:ख, बन्धन मिट जाता है, और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है, पर मिलता कुछ नहीं। परन्तु भक्तिमार्गमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम मिलता है॥३०९॥
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ज्ञानके बिना प्रेम मोहमें चला जाता है और प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाता है॥३१०॥
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जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और कृपाका आश्रय है, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता। भगवान्की कृपा उसकी मुक्तिके रसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देती है॥३११॥
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अपने मतका आग्रह और दूसरे मतकी उपेक्षा, खण्डन, अनादर न करनेसे मुक्तिके बाद भक्ति (प्रेम)-की प्राप्ति स्वत: होती है॥३१२॥
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भोगेच्छाका अन्त होता है और मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी पूर्ति होती है, पर प्रेम-पिपासाका न तो अन्त होता है और न पूर्ति ही होती है, प्रत्युत वह प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है॥ ३१३॥
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संसारमें तो आकर्षण और विकर्षण (रुचि-अरुचि) दोनों होते हैं, पर परमात्मामें आकर्षण-ही-आकर्षण होता है, विकर्षण होता ही नहीं, यदि होता है तो वास्तवमें आकर्षण हुआ ही नहीं॥३१४॥
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जैसे सांसारिक दृष्टिसे लोभरूप आकर्षणके बिना धनका विशेष महत्त्व नहीं है, ऐसे ही प्रेमके बिना ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है, उसमें शून्यवाद आ सकता है॥३१५॥