राग और द्वेष
राग-द्वेष अन्त:करणके आगन्तुक विकार हैं, धर्म नहीं। धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आने-जानेवाले होते हैं। राग-द्वेष अन्त:करणमें आने-जानेवाले हैं। अत: इनको मिटाया जा सकता है॥५७०॥
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साधककी प्रवृत्ति और निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक नहीं होनी चाहिये, प्रत्युत शास्त्रके अनुसार होनी चाहिये॥५७१॥
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राग-द्वेषपूर्वक किये गये कामका परिणाम अच्छा नहीं होता॥५७२॥
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दूसरे साधकके प्रति द्वेषवृत्ति अपने साधनकी सिद्धिमें महान् बाधक होती है॥५७३॥
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विवेक अनादि है, राग अपना बनाया हुआ है। संसारमें राग होनेसे विवेक दब जाता है और विवेक जाग्रत् होनेसे राग मिट जाता है॥५७४॥
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निरन्तर परिवर्तनशील संसारको स्थिर माननेसे ही राग-द्वेषादि द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं॥५७५॥
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जिसमें राग हो जाता है, उसमें दोष नहीं दीखते और जिसमें द्वेष हो जाता है, उसमें गुण नहीं दीखते। राग-द्वेषसे रहित होनेपर ही वस्तु अपने वास्तविक रूपसे दीखती है॥५७६॥
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वास्तवमें सब कुछ चिन्मय ही है, पर राग-द्वेषके कारण वह जड़ दीखता है। राग-द्वेष न हों तो एक चिन्मय तत्त्व (परमात्मा)-के सिवाय और कुछ है ही नहीं॥५७७॥