साधक
निषिद्ध कर्मोंको करते हुए कोई व्यक्ति साधक नहीं बन सकता॥७०६॥
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साधक चाहे तो असत् से विमुख हो जाय, चाहे सत् के सम्मुख हो जाय। दोनोंमें कोई एक काम तो करना ही पड़ेगा, तभी आफत मिटेगी॥७०७॥
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साधकके लिये ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है’—इस निश्चयकी तथा इसपर दृढ़ अटल रहनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है॥७०८॥
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साधकको चाहिये कि वह अपनेको कभी भोगी या संसारी व्यक्ति न समझे। उसमें सदा यह जागृति रहनी चाहिये कि ‘मैं साधक हूँ’॥७०९॥
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जड़तासे जितना सम्बन्ध-विच्छेद होता जाता है, उतनी ही साधकमें विलक्षणता आती जाती है॥७१०॥
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साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है॥७११॥
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साधकको अपनी स्थिति स्वाभाविक रूपसे परमात्मामें ही माननी चाहिये, जो वास्तवमें है। संसारमें अपनी स्थिति माननेवाला साधक साधनासे गिर जाता है॥७१२॥
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साधकको विचार करना चाहिये कि अगर मेरे द्वारा किसीको लाभ नहीं हुआ, किसीका हित नहीं हुआ, किसीकी सेवा नहीं हुई तो मैं साधक क्या हुआ?॥७१३॥
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साधकमें साधन और सिद्धिके विषयमें चिन्ता तो नहीं होनी चाहिये, पर भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुलता अवश्य होनी चाहिये। कारण कि चिन्ता भगवान्से दूर करनेवाली है और व्याकुलता भगवान्की प्राप्ति करानेवाली है॥७१४॥
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जबतक अपने व्यक्तित्वका भान हो, तबतक साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये॥७१५॥
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आपसमें मतभेद होना और अपने मतके अनुसार साधन करके जीवन बनाना दोष नहीं है, प्रत्युत दूसरोंका मत बुरा लगना, उनके मतका खण्डन करना, उनके मतसे घृणा करना ही दोष है॥७१६॥
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जबतक साधकको अपनी स्थितिपर असन्तोष नहीं होता, तबतक उसकी उन्नति नहीं होती॥७१७॥
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साधकको केवल इतनी सावधानी रखनी है कि उसको जो चीज नाशवान् दीखे, उसके मोहमें न फँसे, उसको महत्त्व न दे। नाशवान् चीजको काममें ले, पर उसकी दासता स्वीकार न करे॥७१८॥
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साधकको मतवादी न बनकर तत्त्ववादी बनना चाहिये॥७१९॥
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भोगी व्यक्तिको तो नींद मित्रके समान प्रिय लगती है, पर साधन-भजन करनेवालेको नींद वैरीके समान बुरी लगती है॥७२०॥
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भजन न करनेवालोंके लिये तो यह कलियुगका समय है; पर भजन करनेवालोंके लिये यह बहुत उत्तम समय है॥७२१॥
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साधकको हर समय सावधान रहना चाहिये। सावधान रहनेका तात्पर्य है—किसीसे कभी कुछ न चाहना॥७२२॥
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साधक वह होता है, जो चौबीसों घण्टे साधन करता है॥७२३॥
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छोटे-से-छोटा तथा बड़े-से-बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधकको सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थकी भावनासे तो कर्म नहीं हो रहा है!॥७२४॥
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मेरी किसी भी क्रियासे दूसरेको दु:ख न पहुँचे—ऐसी सावधानी साधकको हर समय रखनी चाहिये। दूसरेको दु:ख देनेसे वर्षोंतक साधन करनेपर भी शान्ति नहीं मिलती॥७२५॥
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साधक जितना जानता है, उतना मानकर उसका पालन करना आरम्भ कर दे तो आगेकी आवश्यक जानकारी उसको स्वत: प्राप्त हो जाती है॥७२६॥
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शरीर संसारमें स्थित है और स्वयं परमात्मामें स्थित है। अत: साधक अपनेको संसारमें स्थित न मानकर परमात्मामें ही अपनी स्थितिका अनुभव करे॥७२७॥
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साधकको चाहिये कि वह ‘क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये’—इसको शास्त्रपर रखे तथा ‘क्या होना चाहिये और क्या नहीं होना चाहिये’—इसको भगवान् पर छोड़ दे॥७२८॥
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अपनेको कभी सिद्ध नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत सदा साधक ही मानना चाहिये। सिद्ध माननेसे धोखा ही होता है॥७२९॥
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साधकका काम शासन करना नहीं है, प्रत्युत तत्त्वज्ञ और हितैषीके शासनमें रहना है॥७३०॥
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साधकको यह विचार करना चाहिये कि मुझे वह सुख नहीं लेना है, जो सदा न रहे और जिसके साथ दु:ख भी हो॥७३१॥
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साधनजन्य सुखका भोग साधकके लिये विशेष बाधक है॥७३२॥
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साधकका उद्देश्य बातें सीखनेका नहीं होना चाहिये, प्रत्युत अनुभव करनेका होना चाहिये। सीखे हुए ज्ञानसे वह विद्वान्, वक्ता, लेखक तो हो सकता है, पर तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी नहीं हो सकता॥७३३॥
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जो आरम्भको देखता है, वह असाधक होता है और जो परिणामको देखता है, वह साधक होता है॥७३४॥
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‘मैं साधक हूँ’—यह यदि अभिमानको लेकर है तो बाधक है और यदि स्वाभिमान (कर्तव्य)-को लेकर है तो सहायक है। मैं साधक हूँ, दूसरा असाधक है—यह अभिमान है, और मैं साधन-विरुद्ध कार्य कैसे कर सकता हूँ—यह स्वाभिमान है॥७३५॥
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साधकको सत्य-तत्त्वका अनुयायी होना चाहिये, किसी व्यक्ति, सम्प्रदाय आदिका अनुयायी नहीं॥७३६॥