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साधन

केवल नाम-जप करना ही भजन नहीं है, प्रत्युत भगवदनुकूल जिस किसी भी क्रिया, भावसे भगवान‍्की ओर आकर्षण बढ़े, वह सब भजन ही है॥७३७॥

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एकमात्र भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य होनेपर सब क्रियाएँ साधन बन जाती हैं॥७३८॥

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संसारका कार्य तो निर्लिप्त होकर, कर्तव्यमात्र समझकर करना चाहिये, पर भगवान‍्का कार्य (जप, ध्यान आदि) तल्लीन होकर, अपनी खास वस्तु समझकर करना चाहिये॥७३९॥

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साधक हृदयसे यह मान ले कि ‘मैं भगवान‍्का ही हूँ और भगवान‍् ही मेरे हैं’ फिर उससे स्वत:-स्वाभाविक साधन होगा॥७४०॥

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रात-दिन भगवान‍्के भजन-ध्यानमें तल्लीन रहनेवाले व्यक्तिसे संसारका जो हित होता है, वह रात-दिन कर्म करनेवालोंसे नहीं होता॥७४१॥

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मुझे केवल परमात्माकी ओर ही चलना है—ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि सम्पूर्ण साधनोंका मूल है। परन्तु संसारको स्थिर माननेसे ऐसी बुद्धि पैदा नहीं होती॥७४२॥

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अपने साधनके बलका अभिमान होनेसे ही अपनेमें कमीकी चिन्ता होती है॥७४३॥

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किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग—ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं॥७४४॥

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जड़ पदार्थोंके साथ जीवका जो रागयुक्त सम्बन्ध है, उसको मिटानेमें ही सम्पूर्ण साधनोंकी सार्थकता है॥७४५॥

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अभ्यासका नाम भजन नहीं है, प्रत्युत भगवान‍्की स्मृति और प्रियताका नाम भजन है। भगवान‍्को अपना माने बिना स्मृति और प्रियता जाग्रत् नहीं होती॥७४६॥

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साधन स्वयंसे होता है, मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे नहीं॥७४७॥

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परमात्मप्राप्तिके जितने भी साधन हैं, उन सब साधनोंको परमात्माकी प्राप्तिसे भी बढ़कर आदर देना चाहिये॥७४८॥

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साधनमें विशेष आदरबुद्धि होनेसे साधन तेज होता है। साधनको जितना आदर देना चाहिये, उतना आदर न देनेसे ही साधनमें शिथिलता आती है और सफलता भी प्राप्त नहीं होती॥७४९॥

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भगवान‍्की ओर ले जानेवाले सब साधन ‘स्वधर्म’ हैं और संसारकी ओर ले जानेवाले सब कर्म ‘परधर्म’ हैं॥७५०॥

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जो दूसरेको दु:ख देता है, उसका भजनमें मन नहीं लगता॥७५१॥

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जैसी परिस्थिति आये, उसीमें साधन करना है। अनुकूलता देखोगे तो साधन नहीं होगा॥७५२॥

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सम्पूर्ण साधनोंकी सार बात है—संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करना और भगवान‍्से अपना सम्बन्ध पहचानना॥७५३॥

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संसारसे उपरति और भगवान‍्में प्रेम होनेके लिये ही सब साधन हैं॥७५४॥

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कितनी ही ऊँची अवस्था हो जाय, पर अपने साधनमें कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये॥७५५॥

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जो परिस्थिति सामने आ जाय, उसीमें प्रसन्न रहना ‘भजन’ है॥७५६॥

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भगवान‍्का भजन करते समय संसारको याद नहीं करना चाहिये और संसारका काम करते समय भगवान‍्को भूलना नहीं चाहिये॥७५७॥

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अपने लिये जप, तप, ध्यान आदि करना असुरपना है और दूसरोंके हितके लिये जप, तप, ध्यान आदि करना मनुष्यपना है॥७५८॥

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जैसे व्यापार वह बढ़िया होता है, जिसमें ज्यादा पैसे मिलें, ऐसे ही साधन वह बढ़िया होता है, जिसमें मन ज्यादा भगवान‍्में लगे॥७५९॥

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जो साधन सुगम दीखे, उसको करना शुरू कर दें तो जो कठिन दीखता है, वह सुगम हो जायगा और जो समझमें नहीं आता, वह समझमें आने लग जायगा॥७६०॥

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करणकी सहायता भले ही हो, पर करणकी अपेक्षा न हो—यह करणनिरपेक्ष साधन है॥७६१॥

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जो बचपन और जवानीमें भजन-साधन नहीं करते, वे प्राय: बुढ़ापेमें भी भजन-साधन नहीं कर सकते॥७६२॥

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साधन नित्यकर्मकी तरह किसी एक निश्चित समयमें नहीं होता, प्रत्युत निरन्तर होता है॥७६३॥

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मैं शरीर नहीं हूँ, प्रत्युत शरीरी (शरीरवाला) हूँ—ऐसा ठीक समझमें आ जाय तो सभी साधन सुगम हो जायँगे॥७६४॥

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असली साधन वह होता है जो निरन्तर (प्रत्येक घण्टे, प्रत्येक मिनट) होता है। निरन्तर साधन हुए बिना इस जन्ममें सिद्धि नहीं हो सकती॥७६५॥

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यदि भगवान‍्की याद स्वत: नहीं आती, उनको याद करना पड़ता है तो समझें कि अभी साधन शुरू हुआ ही नहीं!॥७६६॥

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संसारसे सम्बन्ध रखते हुए कितना ही साधन करें, वर्तमानमें सिद्धि नहीं होगी॥७६७॥

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लगन होनेपर साधन स्वत: होता है और लगन न होनेपर साधन करना पड़ता है। जो स्वत: होता है, वह असली होता है और जो करना पड़ता है, वह नकली होता है॥७६८॥

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काम-धन्धा करते समय भगवान‍्का विस्मरण तभी होता है, जब साधक काम-धन्धेको अपना तथा अपने लिये मान लेता है॥७६९॥

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वास्तवमें साधन क्रिया नहीं है। क्रिया और पदार्थ तो असाधनमें मुख्य होते हैं। साधनमें भाव और विवेक मुख्य हैं॥७७०॥

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सभी साधन कल्याण करनेवाले हैं, पर जिस साधनमें हमारी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यता हो, वही साधन हमारे लिये श्रेष्ठ है॥७७१॥

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