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सुखभोग और संग्रह

लोगोंकी सांसारिक भोग और संग्रहमें ज्यों-ज्यों आसक्ति बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों समाजमें अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों समाजमें पापाचरण, कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं॥७७२॥

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किसी भी भोगको भोगें, अन्तमें उस भोगसे अरुचि अवश्य होती है—यह नियम है। परन्तु मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचिको महत्त्व देकर उसको स्थायी नहीं बनाता॥७७३॥

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भोगी व्यक्ति दु:खोंसे नहीं बच सकता; क्योंकि भोग जड़ताके सम्बन्धसे होता है और जड़ताका सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप महान् दु:खका कारण है॥७७४॥

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साधारण मनुष्यको जिन भोगोंमें सुख प्रतीत होता है, उन भोगोंको विवेकशील पुरुष दु:खरूप ही समझता है। इसलिये वह उन भोगोंमें रमण नहीं करता, उनके अधीन नहीं होता॥७७५॥

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जबतक सांसारिक सुख लेनेकी वृत्ति नहीं मिटेगी, तबतक कितना ही पढ़-लिख लें, कितने ही चतुर और समझदार बन जायँ, कितनी ही योग्यताका सम्पादन कर लें, कितने ही व्याख्यानदाता बन जायँ, कितनी ही पुस्तकें लिख लें, पर परमशान्ति नहीं मिलेगी॥७७६॥

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सांसारिक पदार्थोंके संयोगसे होनेवाला सुख हमारा नहीं है तथा हमारे लिये भी नहीं है; क्योंकि हम तो सदा रहनेवाले हैं और सुख मिटनेवाला है॥७७७॥

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लोगोंमें भोग और संग्रहकी वृत्ति अधिक होनेसे ही अकाल पड़ता है॥७७८॥

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हमारे पास जो भी वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि है, वह सब समाजकी ही है, अपनी नहीं। हमसे भूल यह होती है कि उस वस्तु आदिको अपनी मानकर उससे सुख भोगने लगते हैं। इससे हमें विवश होकर दु:ख भोगना पड़ता है॥७७९॥

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जहाँ लौकिक सुख मिलता हुआ दीखे, वहाँ समझ लो कि कोई खतरा है!॥७८०॥

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वस्तु, व्यक्तिसे सुख लेना महान् जड़ता है॥७८१॥

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सांसारिक भोगोंका सुख आरम्भमें तो मीठा लगता है, पर परिणाममें वह विषके समान सर्वथा अनर्थकारी होता है॥७८२॥

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मनुष्य मिली हुई वस्तुओंका भोग भी कर सकता है और उनसे दूसरोंकी सेवा भी कर सकता है। भोग करनेसे पतन होता है और सेवा करनेसे उत्थान होता है॥७८३॥

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अपनी इच्छासे सुख भोगनेवालेको अपनी इच्छाके विरुद्ध दु:ख भोगना ही पड़ेगा॥७८४॥

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वस्तुको दूसरेके हितमें लगाना उसका सदुपयोग है और अपने भोगमें लगाना उसका दुरुपयोग है॥७८५॥

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जो सुखबुद्धिसे किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, अवस्था आदिका भोग करता है, उसमें भगवत्प्राप्तिकी व्याकुलता जाग्रत् नहीं होती॥७८६॥

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जबतक मनुष्य संसारसे सुख लेता रहता है, तबतक वह दु:खसे नहीं छूट सकता, चाहे वह साधु, गृहस्थ आदि कोई क्यों न हो!॥७८७॥

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सांसारिक सुख मिले अथवा न मिले, जिसकी सांसारिक सुखमें रुचि है, वह पतनकी तरफ जायगा ही॥७८८॥

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मनुष्य जितना सुख भोगेगा, उतना ही वह सुखका दास बनेगा और जितना सुखका दास बनेगा, उतना ही वह दु:ख भोगेगा। इसलिये सुख-भोगका त्याग अत्यन्त आवश्यक है॥७८९॥

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जिसकी बुद्धिमें जड़ता (सांसारिक भोग और संग्रह)-का ही महत्त्व है, ऐसा मनुष्य कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसका पतन अवश्यम्भावी है। परन्तु जिसकी बुद्धिमें जड़ताका महत्त्व नहीं है और भगवत्प्राप्ति ही जिसका उद्देश्य है, ऐसा मनुष्य विद्वान् न भी हो तो भी उसका उत्थान अवश्यम्भावी है॥७९०॥

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हम जिससे सुख लेगें, उसका दास होना ही पड़ेगा। सुखका भोगी कभी स्वाधीन नहीं हो सकता॥७९१॥

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हमें सुखका भोगी नहीं बनना है, प्रत्युत सुखका दाता बनना है॥७९२॥

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चाहे योग हो, चाहे भोग हो, जिससे भी मनुष्य सुख लेना चाहता है, वहीं फँस जाता है॥७९३॥

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