संसार
संसारका मात्र संयोग निरन्तर वियोगरूपी अग्निमें जल रहा है। जिससे संयोग होता है, उससे वियोग होना निश्चित है। भूल यह होती है कि उस संयोगको हम नित्य मान लेते हैं॥६२३॥
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संसारके संयोगका वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर वियोगका संयोग अवश्यम्भावी नहीं है। अत: संसारका वियोग ही सत्य है॥६२४॥
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नाशवान् भौतिक पदार्थोंके सम्बन्धसे किसीका शोक कभी दूर हो ही नहीं सकता॥६२५॥
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उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंके वशमें न होना अर्थात् उनका आश्रय न लेना ही मनुष्यकी वास्तविक विजय है॥६२६॥
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जबतक संसार-शरीरका आश्रय सर्वथा नहीं मिट जाता, तबतक जीनेकी आशा, मरनेका भय, करनेका राग और पानेका लालच—ये चारों नहीं मिट सकते॥६२७॥
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मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसारसे सम्बन्ध जोड़ता है, संसार कभी सम्बन्ध नहीं जोड़ता॥६२८॥
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संसारके साथ मिलनेसे संसारका ज्ञान नहीं होता और परमात्मासे अलग रहनेपर परमात्माका ज्ञान नहीं होता—यह नियम है॥६२९॥
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संसारके साथ एकता और परमात्मासे भिन्नता भूलसे मानी हुई है॥६३०॥
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विनाशीसे अपना सम्बन्ध माननेसे अन्त:करण, कर्म और पदार्थ—तीनों ही मलिन हो जाते हैं और विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जानेसे ये तीनों ही स्वत: पवित्र हो जाते हैं॥६३१॥
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जबतक संसारसे संयोग बना रहता है, तबतक भोग होता है, योग नहीं। संसारके संयोगका मनसे सर्वथा वियोग होनेपर योग सिद्ध हो जाता है अर्थात् परमात्मासे अपने स्वत:सिद्ध नित्ययोगका अनुभव हो जाता है॥६३२॥
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संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये या तो मिले हुए (शरीरादि) पदार्थोंको संसारका ही समझकर उनको संसारकी सेवामें लगा दे या जड़ता (शरीरादि)-से सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित हो जाय या फिर इन (शरीरादि)-के सहित भगवान्के शरण हो जाय॥६३३॥
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उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय लेकर, उनसे सम्बन्ध जोड़कर सुख चाहनेवाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता—यह नियम है॥६३४॥
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नाशवान्की दासता ही अविनाशीके सम्मुख नहीं होने देती॥६३५॥
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संसारकी सामग्री संसारके कामकी है, अपने कामकी नहीं॥६३६॥
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संसार विश्वास करनेयोग्य नहीं है, प्रत्युत सेवा करनेयोग्य है॥६३७॥
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नाशवान्में अपनापन अशान्ति और बन्धन देनेवाला है॥६३८॥
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असत् को असत् जाननेपर भी जबतक असत् का आकर्षण नहीं मिट जाता, तबतक सत् की प्राप्ति नहीं होती (जैसे, सिनेमाको असत्य जाननेपर भी उसका आकर्षण रहता है)॥६३९॥
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जैसे भगवान्का आश्रय कल्याण करनेवाला है, ऐसे ही रुपये आदि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय पतन करनेवाला है॥६४०॥
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प्राकृत पदार्थमात्रको महत्त्व देना अनर्थका मूल है॥६४१॥
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विश्वास भगवान् पर ही करना चाहिये। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंपर विश्वास करनेसे धोखा ही होगा, दु:ख ही पाना पड़ेगा॥६४२॥
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भगवान्के साथ हमारा वियोग और संसारके साथ हमारा संयोग कभी हो ही नहीं सकता॥६४३॥
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हम संसारके साथ कभी रह ही नहीं सकते और परमात्मासे अलग कभी हो ही नहीं सकते॥६४४॥
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असत् के संगसे ही सम्पूर्ण दोषों और विषमताओंकी उत्पत्ति होती है॥६४५॥
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शरीर-संसारका निरन्तर परिवर्तन हमें यह क्रियात्मक उपदेश दे रहा है कि तुम्हारा सम्बन्ध अपरिवर्तनशील तत्त्व (परमात्मा)-के साथ है, हमारे साथ नहीं; हम तुम्हारे साथ और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते॥६४६॥
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अभी जो वस्तुएँ, व्यक्ति आदि हमारे पास हैं, उनका साथ कबतक रहेगा—इसपर हरेकको विचार करनेकी जरूरत है॥६४७॥
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हम शरीरको रखना चाहते हैं, सुख-आराम चाहते हैं, अपने मनकी बात पूरी करना चाहते हैं—यह सब असत् का आश्रय है॥६४८॥
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जो किसी समय है और किसी समय नहीं है, कहीं है और कहीं नहीं है, किसीमें है और किसीमें नहीं है, किसीका है और किसीका नहीं है, वह वास्तवमें है ही नहीं॥६४९॥
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वस्तु और व्यक्ति तो नहीं रहते, पर उनसे माना हुआ सम्बन्ध बना रहता है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरणका कारण होता है॥६५०॥
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सब संसार अपनी धुनमें जा रहा है। हम ही उसको (जाते हुएको) पकड़ते हैं और फिर उसके छूटनेपर रोते हैं॥६५१॥
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जो संसारकी गरज नहीं करता, उसकी गरज संसार करता है। परन्तु जो संसारकी गरज करता है, उसको संसार चूसकर फेंक देता है!॥६५२॥
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मनुष्य जबतक सांसारिक पदार्थोंका सम्बन्ध रखेगा और उनकी आवश्यकता समझेगा, तबतक वह कभी सुखी नहीं होगा॥६५३॥
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संसारको सत्ता देनेसे संयोग-वियोग होते हैं और महत्ता देनेसे सुख-दु:ख होते हैं॥६५४॥
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संसारकी सत्ता बाधक नहीं है, प्रत्युत उसकी महत्ताका असर बाधक है। महत्ताका असर होनेसे गुलामी आ जाती है॥६५५॥
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संसारका संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। नित्यको स्वीकार करना मनुष्यका कर्तव्य है॥६५६॥
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संसारकी जिन वस्तुओंको हम बड़ा महत्त्व देते हैं, उनका काम यही है कि वे हमें परमात्मप्राप्ति नहीं होने देंगी और खुद भी नहीं रहेंगी!॥६५७॥
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संसार असत्य हो अथवा सत्य हो, पर उसके साथ हमारा सम्बन्ध असत्य है—यह नि:सन्देह बात है॥६५८॥
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यह संसार मेंहदीके पत्तेकी तरह ऊपरसे हरा दीखता है, पर इसके भीतर परमात्मरूप लाली परिपूर्ण है॥६५९॥
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हम स्वयं चेतन तथा अविनाशी हैं और सांसारिक वस्तुएँ जड़ तथा विनाशी हैं। दोनोंकी जाति अलग-अलग है। फिर दूसरी जातिकी वस्तु हमें कैसे मिल सकती है?॥६६०॥
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जैसे उदय होनेके बाद सूर्य निरन्तर अस्तकी ओर ही जाता है, ऐसे ही उत्पन्न होनेके बाद मात्र संसार निरन्तर अभावकी ओर ही जा रहा है॥६६१॥
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संसार विजातीय है और विजातीय वस्तुसे सम्बन्ध होता ही नहीं, केवल सम्बन्धकी मान्यता होती है। सम्बन्धकी मान्यता ही अनर्थका हेतु है, जिसके मिटते ही मुक्ति स्वत:सिद्ध है॥६६२॥
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सांसारिक पदार्थ, मान, बड़ाई, प्रशंसा, आराम, सत्कार आदिका प्रिय लगना पतनका कारण है॥६६३॥
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जो नहीं है, उसकी सत्ता मानकर उसको पानेकी अथवा मिटानेकी इच्छा करना असत् का संग है॥६६४॥
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वस्तु, व्यक्ति और क्रियाका सम्बन्ध मनुष्यको पराधीन बनानेवाला है। इनसे असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है॥६६५॥
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जबतक अपनेपर जड़ (संसार)-का असर पड़े, तबतक अपनी स्थिति जड़में ही समझनी चाहिये, चिन्मय तत्त्वमें नहीं॥६६६॥
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शरीर-संसारको भूल जानेसे (निद्रामें) विश्राम मिलता है, पर उनसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय तो परम विश्राम मिलता है॥६६७॥
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शरीर-संसारसे असंग होनेके लिये विचारकी आवश्यकता है, अभ्यासकी नहीं॥६६८॥
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अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु हमारी और हमारे लिये नहीं है॥६६९॥
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जिसका किसी भी देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें अभाव है, उसका कहीं भी भाव नहीं है अर्थात् उसका सदा ही अभाव है और वह असत् है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २।१६)॥६७०॥