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सेवा (परहित)

दूसरोंका अहित करनेसे अपना अहित और दूसरोंका हित करनेसे अपना हित होता है—यह नियम है॥८३४॥

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संसारका सम्बन्ध ‘ऋणानुबन्ध’ है। इस ऋणानुबन्धसे मुक्त होनेका उपाय है—सबकी सेवा करना और किसीसे कुछ न चाहना॥८३५॥

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साधक परमात्माके सगुण या निर्गुण किसी भी रूपकी प्राप्ति चाहता हो, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत होना अत्यन्त आवश्यक है॥८३६॥

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साधकको संसारकी सेवाके लिये ही संसारमें रहना है, अपने सुखके लिये नहीं॥८३७॥

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सच्चे हृदयसे भगवान‍्की सेवामें लगे हुए साधकके द्वारा प्राणिमात्रकी सेवा होती है; क्योंकि सबके मूल भगवान‍् ही हैं॥८३८॥

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साधकको अपने ऊपर आये बड़े-से-बड़े दु:खको भी सह लेना चाहिये और दूसरेपर आये छोटे-से-छोटे दु:खको भी सहन नहीं करना चाहिये॥८३९॥

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दूसरोंको सुख पहुँचानेकी इच्छासे अपनी सुखेच्छा मिटती है॥८४०॥

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किसीको किंचिन्मात्र भी दु:ख न हो—यह भाव महान् भजन है॥८४१॥

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जैसे मनुष्य आफिस जाता है तो वहाँ केवल आफिसका ही काम करता है, ऐसे ही इस संसारमें आकर केवल संसारके लिये ही काम करना है, अपने लिये नहीं। फिर सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जायगा॥८४२॥

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समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य—इन चारोंको अपने लिये मानना इनका दुरुपयोग है और दूसरोंके हितमें लगाना इनका सदुपयोग है॥८४३॥

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संयोगजन्य सुखके मिलनेसे जो प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता अगर दूसरोंको सुख पहुँचानेमें होने लग जाय तो फिर कल्याणमें सन्देह नहीं है॥८४४॥

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हमें जो सुख-सुविधा मिली है, वह संसारकी सेवा करनेके लिये ही मिली है॥८४५॥

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मनुष्यशरीर अपने सुख-भोगके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत सेवा करनेके लिये, दूसरोंको सुख देनेके लिये मिला है॥८४६॥

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मनुष्यको भगवान‍्ने इतना बड़ा अधिकार दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी, मनुष्योंकी, ऋषि-मुनियोंकी, सन्त-महात्माओंकी, देवताओंकी, पितरोंकी, भूत-प्रेतोंकी, सबकी सेवा कर सकता है। और तो क्या, वह साक्षात् भगवान‍्की भी सेवा कर सकता है!॥८४७॥

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संसारकी सेवा किये बिना कर्म करनेका राग निवृत्त नहीं होता॥८४८॥

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जैसे किसी कम्पनीका काम अच्छा करनेसे उसका मालिक प्रसन्न हो जाता है, ऐसे ही संसारकी सेवा करनेसे उसके मालिक भगवान‍् प्रसन्न हो जाते हैं॥८४९॥

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जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जो भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है॥८५०॥

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जैसे भोगी पुरुषकी भोगोंमें, मोही पुरुषकी कुटुम्बमें और लोभी पुरुषकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है॥८५१॥

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व्यक्तियोंकी सेवा करनी है और वस्तुओंका सदुपयोग करना है॥८५२॥

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केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥८५३॥

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जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है॥८५४॥

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स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीरोंसे किये जानेवाले तीर्थ, व्रत, दान, तप, चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि समस्त शुभ कर्म सकामभावसे अर्थात् अपने लिये करनेपर ‘परधर्म’ हो जाते हैं और निष्कामभावसे अर्थात् दूसरोंके लिये करनेपर ‘स्वधर्म’ हो जाते हैं॥८५५॥

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वस्तुका सबसे बढ़िया उपयोग है—उसको दूसरेके हितमें लगाना॥८५६॥

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श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो दूसरोंके हितमें लगा हुआ है॥८५७॥

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अपना जीवन अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये है॥८५८॥

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दूसरेके दु:खसे दु:खी होना सेवाका मूल है॥८५९॥

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भलाई करनेसे समाजकी सेवा होती है। बुराई-रहित होनेसे विश्वमात्रकी सेवा होती है। कामना-रहित होनेसे अपनी सेवा होती है। भगवान‍्से प्रेम (अपनापन) करनेसे भगवान‍्की सेवा होती है॥८६०॥

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जो सच्चे हृदयसे भगवान‍्की तरफ चलता है, उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक दूसरोंका हित होता है॥८६१॥

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संसारसे मिली हुई वस्तु केवल संसारकी सेवा करनेके लिये है और किसी कामकी नहीं॥८६२॥

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कोई वस्तु हमें अच्छी लगती है तो वह भोगनेके लिये नहीं है, प्रत्युत सेवा करनेके लिये है॥८६३॥

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मनुष्यको वह काम करना चाहिये, जिससे उसका भी हित हो और दुनियाका भी हित हो, अभी भी हित हो और परिणाममें भी हित हो॥८६४॥

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शरीरकी सेवा करोगे तो संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा और (भगवान‍्के लिये) संसारकी सेवा करोगे तो भगवान‍्के साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा॥८६५॥

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जिसके हृदयमें सबके हितका भाव रहता है, वह भगवान‍्के हृदयमें स्थान पाता है॥८६६॥

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परमार्थ नहीं बिगड़ा है, प्रत्युत व्यवहार बिगड़ा है; अत: व्यवहारको ठीक करना है। व्यवहार ठीक होगा—स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंकी सेवा करनेसे॥८६७॥

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दूसरोंके हितका भाव रखनेवाला जहाँ भी रहेगा, वहीं भगवान‍्को प्राप्त कर लेगा॥८६८॥

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भगवान‍्के सम्मुख होनेके लिये संसारसे विमुख होना है और संसारसे विमुख होनेके लिये निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनी है॥८६९॥

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सेवाके लिये वस्तुकी कामना करना गलती है। जो वस्तु मिली हुई है, उसीसे सेवा करनेका अधिकार है॥८७०॥

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संसारमें दूसरोंके लिये जैसा करोगे, परिणाममें वैसा ही अपने लिये हो जायगा। इसलिये दूसरोंके लिये सदा अच्छा ही करो॥८७१॥

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जो अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितमें लगा है, उसका जीना ही वास्तवमें जीना है॥८७२॥

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जो सेवा लेना चाहते हैं, उनके लिये तो वर्तमान समय बहुत खराब है, पर जो सेवा करना चाहते हैं, उनके लिये वर्तमान समय बहुत बढ़िया है॥८७३॥

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हमारी किसी भी क्रियासे किसीको किंचिन्मात्र भी दु:ख न हो—यह भाव ‘सेवा’ है॥८७४॥

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नि:स्वार्थभावसे दूसरोंकी सेवा करनेसे व्यवहार भी बढ़िया होता है और ममता भी टूट जाती है॥८७५॥

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घरवालोंकी सेवा करनेसे मोह होता ही नहीं। मोह होता है कुछ-न-कुछ लेनेकी इच्छासे॥८७६॥

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भगवान‍्को प्राप्त करके मनुष्य संसारका जितना उपकार कर सकता है, उतना किसी दान-पुण्यसे नहीं कर सकता॥८७७॥

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जो हमसे द्वेष रखता है, उसकी सेवा करनेसे अधिक लाभ होता है; क्योंकि वहाँ सेवाका सुखभोग नहीं होता॥८७८॥

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कभी सेवाका मौका मिल जाय तो आनन्द मनाना चाहिये कि भाग्य खुल गया!॥८७९॥

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सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसे अलग अपना हित माननेसे अहम‍् बना रहता है, जो साधकके लिये आगे चलकर बाधक होता है। अत: साधकको प्रत्येक क्रिया संसारके हितके लिये ही करनी चाहिये॥८८०॥

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