Hindu text bookगीता गंगा
होम > अमृत बिन्दु > स्वभाव

स्वभाव

स्वार्थ और अभिमान—इन दो चीजोंसे स्वभाव बिगड़ता है। अत: साधकको स्वार्थ और अभिमानका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये॥८८१॥

••••

भजन, ध्यान आदि साधन करनेपर भी वर्तमानमें प्रत्यक्ष लाभ न दीखनेका कारण है—स्वभावका शुद्ध न होना। इसलिये प्रत्येक साधकको अपने स्वभावका सुधार करनेपर विशेष ध्यान देना चाहिये॥८८२॥

••••

अपने स्वभावको शुद्ध बनानेके समान कोई उन्नति नहीं है॥८८३॥

••••

जिसका स्वभाव सुधर जायगा, उसके लिये दुनिया सुधर जायगी॥ ८८४॥

••••

जिसका स्वभाव दूसरोंको दु:ख देनेका है, वह दूसरोंको भी दु:ख देगा और स्वयं भी दु:ख पायेगा। परन्तु जिसका स्वभाव दूसरोंको सुख देनेका है, वह दूसरोंको भी सुख देगा और स्वयं भी सुख पायेगा॥ ८८५॥

••••

अपने स्वभावका सुधार मनुष्य खुद ही कर सकता है। दूसरा केवल उसको उपाय बता सकता है, उसकी सहायता कर सकता है॥ ८८६॥

••••

हमारा स्वभाव तब सुधरेगा, जब हम अपने प्रति न्याय करेंगे अर्थात् अपनेपर शासन करेंगे और दूसरेको क्षमा करेंगे॥८८७॥

••••

सत्संग, सच्छास्त्र और सद्विचार—इन तीनोंसे स्वभावमें सुधार होता है॥८८८॥

••••

जिसका स्वभाव शुद्ध बन जाता है, वह अधोगतिमें नहीं जा सकता॥८८९॥

••••

‘फिर करेंगे’—यह महान् पतन करनेवाली बात है। ऐसे स्वभाववाले व्यक्तिका कल्याण होना कठिन है॥८९०॥

अगला लेख  > स्वरूप