स्वभाव
स्वार्थ और अभिमान—इन दो चीजोंसे स्वभाव बिगड़ता है। अत: साधकको स्वार्थ और अभिमानका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये॥८८१॥
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भजन, ध्यान आदि साधन करनेपर भी वर्तमानमें प्रत्यक्ष लाभ न दीखनेका कारण है—स्वभावका शुद्ध न होना। इसलिये प्रत्येक साधकको अपने स्वभावका सुधार करनेपर विशेष ध्यान देना चाहिये॥८८२॥
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अपने स्वभावको शुद्ध बनानेके समान कोई उन्नति नहीं है॥८८३॥
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जिसका स्वभाव सुधर जायगा, उसके लिये दुनिया सुधर जायगी॥ ८८४॥
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जिसका स्वभाव दूसरोंको दु:ख देनेका है, वह दूसरोंको भी दु:ख देगा और स्वयं भी दु:ख पायेगा। परन्तु जिसका स्वभाव दूसरोंको सुख देनेका है, वह दूसरोंको भी सुख देगा और स्वयं भी सुख पायेगा॥ ८८५॥
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अपने स्वभावका सुधार मनुष्य खुद ही कर सकता है। दूसरा केवल उसको उपाय बता सकता है, उसकी सहायता कर सकता है॥ ८८६॥
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हमारा स्वभाव तब सुधरेगा, जब हम अपने प्रति न्याय करेंगे अर्थात् अपनेपर शासन करेंगे और दूसरेको क्षमा करेंगे॥८८७॥
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सत्संग, सच्छास्त्र और सद्विचार—इन तीनोंसे स्वभावमें सुधार होता है॥८८८॥
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जिसका स्वभाव शुद्ध बन जाता है, वह अधोगतिमें नहीं जा सकता॥८८९॥
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‘फिर करेंगे’—यह महान् पतन करनेवाली बात है। ऐसे स्वभाववाले व्यक्तिका कल्याण होना कठिन है॥८९०॥