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सुख और दु:ख

सांसारिक वस्तुओंके लिये होनेवाले दु:खकी परवाह भगवान‍् नहीं करते और भगवान‍्के लिये होनेवाले (सच्चे) दु:खको भगवान‍् सह नहीं सकते॥७९४॥

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भगवान‍्के मंगलमय विधानसे जो अनुकूल (सुखदायी)या प्रतिकूल (दु:खदायी) परिस्थिति आती है, वह हमारे हितके लिये ही होती है॥७९५॥

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सुखी-दु:खी होना प्रारब्धका फल नहीं है, प्रत्युत मूर्खताका फल है। वह मूर्खता सत्संगसे मिटती है॥७९६॥

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साधकको सदा लोभी व्यक्तिकी तरह दूसरेके सुखके लिये लालायित रहना चाहिये। ऐसा होनेसे वह सुख-दु:खसे ऊँचा उठ जायगा॥७९७॥

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अपने सुखके लिये उद्योग करना दु:खको निमन्त्रण देना है और दूसरोंके सुखके लिये उद्योग करना आनन्दको निमन्त्रण देना है॥७९८॥

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सुखदायी और दु:खदायी परिस्थिति आना तो कर्मोंका फल है, पर उससे सुखी-दु:खी होना अपनी अज्ञता, मूर्खताका फल है। कर्मोंका फल मिटाना तो हाथकी बात नहीं है, पर मूर्खता मिटाना बिलकुल हाथकी बात है॥७९९॥

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जो सुखदायी परिस्थितिमें दूसरोंकी सेवा करता है तथा दु:ख-दायी परिस्थितिमें दु:खी नहीं होता अर्थात् सुखकी इच्छा नहीं करता, वह संसार-बन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है॥८००॥

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प्रकृतिजन्य सुखकी आसक्ति होनेपर सुख-दु:खकी परम्पराका कोई अन्त नहीं आता॥८०१॥

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वास्तवमें अनुकूलतासे सुखी होना ही प्रतिकूलतामें दु:खी होनेका कारण है; क्योंकि परिस्थितिजन्य सुख भोगनेवाला कभी दु:खसे बच ही नहीं सकता॥८०२॥

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सुखकी इच्छाका त्याग करानेके लिये ही दु:ख आता है॥८०३॥

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जो दूसरोंसे (अपने लिये) सुख चाहता है, उसको भयंकर दु:ख भोगना ही पड़ेगा॥८०४॥

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दु:खका कारण हम खुद ही होते हैं, दूसरा कोई नहीं। जबतक हम दूसरेको दु:खका कारण मानेंगे, तबतक हमारा दु:ख मिटेगा नहीं॥८०५॥

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अपने सुखसे सुखी होनेवालेको दु:खी होना ही पड़ेगा और दूसरेके सुखसे सुखी होनेवालेका दु:ख सदाके लिये मिट जायगा॥८०६॥

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शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना ही सम्पूर्ण दु:खोंका कारण है॥८०७॥

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जबतक संसारका सुख लेते रहेंगे, तबतक प्रकृतिका सम्बन्ध छूटेगा नहीं॥८०८॥

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वस्तुके अभावसे दु:ख नहीं होता, प्रत्युत वस्तु मिल जाय—इस इच्छासे दु:ख होता है॥ ८०९॥

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वस्तुओंसे दु:ख नहीं मिटता; क्योंकि दु:ख विचारके अभावसे पैदा होता है, वस्तुके अभावसे नहीं। इसलिये विचारसे दु:ख मिट जाता है॥८१०॥

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सुख निर्विकल्पतामें है, भोगोंमें नहीं॥८११॥

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जहाँ भी संसारका सुख दीखे, वहाँ विवेक-विचारपूर्वक देखें तो वहीं दु:ख दीखने लग जायगा; क्योंकि संसार दु:खरूप ही है—‘दु:खालयम्’ (गीता ८।१५)॥८१२॥

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सुनना चाहते हैं, इसीलिये न सुननेका दु:ख होता है। देखना चाहते हैं, इसीलिये न दीखनेका दु:ख होता है। बल चाहते हैं; इसीलिये निर्बलताका दु:ख होता है। जवानी चाहते हैं, इसीलिये वृद्धावस्थाका दु:ख होता है। तात्पर्य है कि वस्तुके अभावसे दु:ख नहीं होता, प्रत्युत उसकी चाहनासे, उसके अभावका अनुभव करनेसे दु:ख होता है॥८१३॥

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संसारसे सम्बन्ध जोड़ें तो दु:खोंका अन्त नहीं है और भगवान‍्से सम्बन्ध जोड़ें तो सुखोंका (आनन्दका) अन्त नहीं है॥८१४॥

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सुख पाना चाहते हो तो दूसरोंको सुख दो। जैसा बीज बोओगे, वैसी ही खेती होगी॥८१५॥

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जहाँ लौकिक सुख मिलता हुआ दीखे, वहाँ समझ लें कि कोई खतरा है!॥८१६॥

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सब कुछ परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’, पर वे भोग्य नहीं हैं। जो उन्हें भोग्य मानकर सुख लेना चाहता है, वह दु:ख पाता रहता है॥८१७॥

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गृहस्थमें अगर सबका यह भाव रहे कि मेरेको सुख कैसे मिले तो सब दु:खी हो जायँगे और यह भाव रहे कि दूसरेको सुख कैसे मिले तो सब सुखी हो जायँगे॥८१८॥

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अगर दु:ख नहीं चाहते हो तो सांसारिक सुख मत चाहो॥८१९॥

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दूसरे सुखी हो जायँ—यह भाव रहेगा तो सभी सुखी हो जायँगे और खुद भी सुखी हो जायगा। मैं सुखी हो जाऊँ—यह भाव रहेगा तो सभी दु:खी हो जायँगे और खुद भी दु:खी हो जायगा॥८२०॥

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सांसारिक सुख क्यों नहीं टिकता? क्योंकि वह हमारा और हमारे लिये है ही नहीं॥८२१॥

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सुख अच्छा लगता है, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। दु:ख बुरा लगता है, पर उसका परिणाम अच्छा होता है॥८२२॥

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दु:खदायी परिस्थिति भगवान‍्के विधानसे हमारे कल्याणके लिये आती है। अत: उसको मिटानेकी चेष्टा न करके शान्तिपूर्वक सह लेना चाहिये॥८२३॥

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जो दूसरोंका अनिष्ट करता है, वह वास्तवमें अपना ही महान् अनिष्ट करता है और जो दूसरोंको सुख पहुँचाता है, वह वास्तवमें अपनेको ही सुखी बनाता है॥८२४॥

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दु:ख आनेपर प्रसन्न होना बहुत ऊँचा साधन है॥८२५॥

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परिस्थितिसे रहित होनेमें मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, पर उसका भोग न करनेमें अर्थात् सुखी-दु:खी न होनेमें मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र, समर्थ और सबल है॥८२६॥

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जबतक अनुकूलता-प्रतिकूलताका असर पड़ता है, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई भी योग सिद्ध नहीं हुआ॥८२७॥

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संसार कभी किसीको दु:ख नहीं देता, प्रत्युत उससे माना हुआ सम्बन्ध ही दु:ख देता है॥८२८॥

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सांसारिक सुखसे कभी सांसारिक दु:ख नहीं मिट सकता—यह नियम है॥८२९॥

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संसारकी प्राप्ति होनेपर तृष्णा बढ़ती है और दु:ख होता है। परन्तु परमात्माकी प्राप्ति होनेपर प्रेम बढ़ता है और आनन्द होता है॥८३०॥

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दु:ख भोगनेवाला तो आगे सुखी हो सकता है, पर दु:ख देनेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता॥८३१॥

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जो सुख लेनेकी इच्छासे किसीके साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ता, वह जीता है तो आनन्दसे जीता है और मरता है तो आनन्दसे मरता है। परन्तु लेनेकी इच्छासे सम्बन्ध जोड़नेवाला जीते हुए भी दु:ख पाता है और मरते हुए भी दु:ख पाता है॥८३२॥

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जैसे मनुष्यको जलकी प्यास दु:ख देती है, जल दु:ख नहीं देता, ऐसे ही संसारकी सुखासक्ति ही दु:ख देती है, संसार दु:ख नहीं देता॥८३३॥

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