स्वरूप
साधकको चाहिये कि वह बदलनेवाली अवस्थाओंको न देखे, प्रत्युत कभी न बदलनेवाले स्वरूप (स्वयं)-को देखे॥८९१॥
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स्वरूप निष्काम है। सकामभाव प्रकृतिके सम्बन्धसे आता है॥८९२॥
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शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं—ऐसा जिसको अनुभव है, वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयंके बदलनेका अनुभव कभी किसीको नहीं होता॥८९३॥
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जीव स्वरूपसे अकर्ता तथा सुख-दु:खसे रहित है। केवल अपने प्रमादके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दु:खी होता है॥८९४॥
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क्रियाओं और पदार्थोंके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही अपने स्वरूपका साक्षात् अनुभव नहीं होता॥८९५॥
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हमारा शरीर तो संसारमें है, पर हम स्वयं परमात्मामें ही हैं॥८९६॥
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हमारा स्वरूप सत्ता है, अहम् नहीं। अत: अहम्को छोड़कर सत्तामें अपनी स्वत:सिद्ध स्थितिका अनुभव करो॥८९७॥
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हमारा स्वरूप खुदका है, पराया नहीं है; अगर उसे जानना कठिन है तो फिर सुगम क्या होगा?॥८९८॥
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हमारा अस्तित्व (होनापन) वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके अधीन नहीं है॥८९९॥
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हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। उस सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है, बन्धन है॥९००॥
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हमारी सत्ता (स्वरूप) शरीरके अधीन नहीं है, प्रत्युत शरीरकी सत्ता हमारे अधीन है अर्थात् हम शरीरके बिना रह सकते हैं, पर शरीर हमारे बिना नहीं रह सकता॥९०१॥