गीता गंगा
होम > अमृत बिन्दु > तत्त्वज्ञान

तत्त्वज्ञान

परमात्मतत्त्वका ज्ञान करण-निरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपने-आपसे ही हो सकता है, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि करणोंसे नहीं॥१७९॥

••••

जबतक नाशवान‍् वस्तुओंमें सत्यता दीखेगी, तबतक बोध नहीं होगा॥१८०॥

••••

बोध होनेपर अपनेमें दोष तो रहते नहीं और गुण (विशेषता) दीखते नहीं॥१८१॥

••••

जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) कर दिया जाय तो जो हमारा स्वरूप है, उसका बोध हो जायगा॥१८२॥

••••

साधकमें कोई भी आग्रह नहीं रहना चाहिये, न द्वैतका, न अद्वैतका। आग्रह रहनेसे बोध नहीं होता॥१८३॥

••••

जबतक अहम‍् है, तबतक तत्त्वज्ञानका अभिमान तो हो सकता है, पर वास्तविक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता॥१८४॥

••••

जबतक अपनेमें राग-द्वेष हैं, तबतक तत्त्वबोध नहीं हुआ है, केवल बातें सीखी हैं॥१८५॥

••••

तत्त्वज्ञान होनेमें कई जन्म नहीं लगते, उत्कट अभिलाषा हो तो मिनटोंमें हो सकता है; क्योंकि तत्त्व सदा-सर्वदा विद्यमान है॥ १८६॥

••••

तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत अपने विवेकको महत्त्व देनेसे होता है। अभ्याससे एक नयी अवस्था बनती है, तत्त्व नहीं मिलता॥१८७॥

••••

जबतक तत्त्वज्ञान नहीं हो जाता, तबतक सब प्राणी कैदी हैं। कैदीका लक्षण है—पापकर्म करे अपनी मरजीसे और दु:ख भोगे दूसरेकी मरजीसे॥१८८॥

••••

‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह अनुभव नहीं है, प्रत्युत अहंग्रह-उपासना है। इसलिये तत्त्वज्ञान होनेपर ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह अनुभव नहीं होता॥१८९॥

••••

तत्त्वज्ञान होनेपर काम-क्रोधादि विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है॥१९०॥

••••

जबतक हमारी दृष्टिमें असत् की सत्ता है, तबतक विवेक है। असत् की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है॥१९१॥

••••

अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव होना तत्त्वज्ञान है, जीवन्मुक्ति है॥१९२॥

••••

तत्त्वज्ञान होनेपर ज्ञानी पुरुष परिस्थितिसे रहित नहीं होता, प्रत्युत सुख-दु:खसे रहित होता है॥१९३॥

••••

तत्त्वज्ञान शरीरका नाश नहीं करता, प्रत्युत शरीरके सम्बन्धका अर्थात् अहंता-ममताका नाश करता है॥१९४॥

••••

तत्त्वज्ञान अर्थात् अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है॥१९५॥

••••

जैसा है, वैसा अनुभव कर लेनेका नाम ही ‘ज्ञान’ है। जैसा है नहीं, वैसा मान लेनेका नाम ‘अज्ञान’ है॥१९६॥

अगला लेख  > त्याग