तत्त्वज्ञान
परमात्मतत्त्वका ज्ञान करण-निरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपने-आपसे ही हो सकता है, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि करणोंसे नहीं॥१७९॥
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जबतक नाशवान् वस्तुओंमें सत्यता दीखेगी, तबतक बोध नहीं होगा॥१८०॥
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बोध होनेपर अपनेमें दोष तो रहते नहीं और गुण (विशेषता) दीखते नहीं॥१८१॥
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जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) कर दिया जाय तो जो हमारा स्वरूप है, उसका बोध हो जायगा॥१८२॥
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साधकमें कोई भी आग्रह नहीं रहना चाहिये, न द्वैतका, न अद्वैतका। आग्रह रहनेसे बोध नहीं होता॥१८३॥
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जबतक अहम् है, तबतक तत्त्वज्ञानका अभिमान तो हो सकता है, पर वास्तविक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता॥१८४॥
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जबतक अपनेमें राग-द्वेष हैं, तबतक तत्त्वबोध नहीं हुआ है, केवल बातें सीखी हैं॥१८५॥
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तत्त्वज्ञान होनेमें कई जन्म नहीं लगते, उत्कट अभिलाषा हो तो मिनटोंमें हो सकता है; क्योंकि तत्त्व सदा-सर्वदा विद्यमान है॥ १८६॥
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तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत अपने विवेकको महत्त्व देनेसे होता है। अभ्याससे एक नयी अवस्था बनती है, तत्त्व नहीं मिलता॥१८७॥
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जबतक तत्त्वज्ञान नहीं हो जाता, तबतक सब प्राणी कैदी हैं। कैदीका लक्षण है—पापकर्म करे अपनी मरजीसे और दु:ख भोगे दूसरेकी मरजीसे॥१८८॥
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‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह अनुभव नहीं है, प्रत्युत अहंग्रह-उपासना है। इसलिये तत्त्वज्ञान होनेपर ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह अनुभव नहीं होता॥१८९॥
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तत्त्वज्ञान होनेपर काम-क्रोधादि विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है॥१९०॥
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जबतक हमारी दृष्टिमें असत् की सत्ता है, तबतक विवेक है। असत् की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है॥१९१॥
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अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव होना तत्त्वज्ञान है, जीवन्मुक्ति है॥१९२॥
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तत्त्वज्ञान होनेपर ज्ञानी पुरुष परिस्थितिसे रहित नहीं होता, प्रत्युत सुख-दु:खसे रहित होता है॥१९३॥
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तत्त्वज्ञान शरीरका नाश नहीं करता, प्रत्युत शरीरके सम्बन्धका अर्थात् अहंता-ममताका नाश करता है॥१९४॥
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तत्त्वज्ञान अर्थात् अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है॥१९५॥
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जैसा है, वैसा अनुभव कर लेनेका नाम ही ‘ज्ञान’ है। जैसा है नहीं, वैसा मान लेनेका नाम ‘अज्ञान’ है॥१९६॥