त्याग
पूर्ण त्याग तभी होता है, जब त्यागका किंचित् भी अभिमान न आये। अभिमान तभी आता है, जब अन्त:करणमें त्याज्य वस्तुका महत्त्व अंकित हो। अत: वस्तुके त्यागकी अपेक्षा वस्तुके महत्त्वका त्याग श्रेष्ठ है॥१९७॥
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जबतक किसीसे कोई भी प्रयोजन रहता है, तबतक वास्तविक त्याग नहीं होता॥१९८॥
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काम-क्रोध, अहंता-ममता आदिको जब हम पकड़ना जानते हैं, तो उनको छोड़ना भी हम जानते ही हैं। परन्तु हम उनको छोड़ना चाहते नहीं, इसीलिये उनके त्यागमें असमर्थता प्रतीत हो रही है॥ १९९॥
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मुक्ति इच्छाके त्यागसे होती है, वस्तुके त्यागसे नहीं॥२००॥
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शरीर कभी भी हमारे काम नहीं आता, प्रत्युत शरीरमें मैं-मेरेपनका त्याग ही हमारे काम आता है॥२०१॥
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शरीर-संसार अपने-आप छूट रहे हैं, पर इससे कल्याण नहीं होगा। छूटनेवाली चीजको आप छोड़ दें, उससे मैं-मेरापन हटा लें, तब कल्याण होगा॥२०२॥
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अन्त:करणमें रुपयोंका महत्त्व होनेसे ही रुपयोंके त्यागमें विशेषता दीखती है और उनके त्यागका अभिमान आता है। अत: त्यागके अभिमानमें रुपयोंका ही महत्त्व है॥२०३॥
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त्याग करनेसे अपनी उन्नति होती है तथा वस्तु शुद्ध हो जाती है और भोग करनेसे अपना पतन होता है तथा वस्तुका नाश हो जाता है॥२०४॥
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मनुष्य खुद तो भोगी बनता है, पर दूसरोंको त्यागी देखना चाहता है—यह अन्याय है। यदि उसे त्यागी अच्छा लगता है तो वह खुद त्यागी क्यों नहीं बनता?॥२०५॥
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वास्तविक त्याग वह है, जिसमें त्याग-वृत्तिका भी त्याग हो जाय॥२०६॥