भगवद्भक्तोंकी महिमा
भगवान् के भक्तोंकी महिमा अनन्त और अपार है। श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण आदिमें जगह-जगह उनकी महिमा गायी गयी है; किन्तु उसका किसीने पार नहीं पाया। वास्तवमें भक्तोंकी तथा उनके गुण, प्रभाव और संगकी महिमा कोई वाणीके द्वारा गा ही नहीं सकता। शास्त्रोंमें जो कुछ कहा गया है अथवा वाणीके द्वारा जो कुछ कहा जाता है उससे भी उनकी महिमा अत्यन्त बढ़कर है। रामचरितमानसमें स्वयं श्रीभगवान् ने भाई भरतसे संतोंके लक्षण बताते हुए उनकी इस प्रकार महिमा कही है—
बिषय अलंपट सील गुनाकर।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी।
लोभामरष हरष भय त्यागी॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया।
मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी।
भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
बिगत काम मम नाम परायन।
सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री।
द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पदकंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज॥
भगवान् के भक्त क्षमा, शान्ति, सरलता, समता, सन्तोष, पवित्रता, चतुरता, निर्भयता, शम, दम, तितिक्षा, धृति, त्याग, तेज, ज्ञान, वैराग्य, विनय, प्रेम और दया आदि गुणोंके सागर होते हैं।
भगवान् के भक्तोंका हृदय भगवान् की भाँति वज्रसे भी बढ़कर कठोर और पुष्पोंसे बढ़कर कोमल होता है। अपने ऊपर कोई विपत्ति आती है तो वे भारी-से-भारी विपत्तिको भी प्रसन्नतासे सह लेते हैं। भक्त प्रह्लादपर नाना प्रकारके प्रहार किये गये, पर वे किंचित् भी नहीं घबड़ाये और प्रसन्नतासे सब सहते रहे ऐसी स्थितिमें भक्तोंका हृदय वज्रसे भी कठोर बन जाता है, किन्तु दूसरोंका दु:ख उनसे नहीं सहा जाता, उस समय उनका हृदय पुष्पसे भी बढ़कर कोमल हो जाता है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेके कारण किसीके साथ उनका वैर या द्वेष तो हो ही नहीं सकता और न किसीपर उनकी घृणा ही होती है। उन महापुरुषोंके साथ कोई कैसा ही क्रूर व्यवहार क्यों न करे, वे तो बदलेमें उसका हित ही करते रहते हैं। दयाके तो वे समुद्र ही होते हैं। दूसरोंके हितके लिये वे अपने आपको महर्षि दधीचि और राजा शिबिकी भाँति बलिदान कर सकते हैं। दूसरोंकी प्रसन्नतासे उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती है, सब जीवोंके परम हितमें उनकी स्वाभाविक ही प्रीति होती है। दूसरोंके हितके मुकाबले वे मुक्तिको भी कोई चीज नहीं समझते।
इसपर एक दृष्टान्त है—एक धनी दयालु दानी पुरुष नित्य हजारों अनाथ, गरीब और भिक्षुकोंको भोजन देता था। एक दिन उसका सेवक, जो कि बड़ा कोमल और दयालु स्वभावका था, मालिकके साथ लोगोंको भोजन परोसनेका काम करने लगा; समय बहुत अधिक होनेके कारण मालिकने सेवकसे कहा कि ‘जाओ, तुम भी भोजन कर लो।’ यह सुनकर सेवकने कहा, ‘स्वामिन्! मैं इन सबको भोजन करानेके बाद भोजन कर लूँगा, आपको बहुत समय हो गया है इसलिये आप विश्राम कर सकते हैं। मुझे जितना आनन्द इन दु:खी अनाथोंके भोजन करानेमें आता है उतना आनन्द अपने भोजन करनेमें नहीं आता।’ किन्तु मालिक कब जानेवाला था, दोनों मिलकर ही सब दु:खी अनाथोंको भोजन कराने लगे। थोड़ी देरके बाद उस धनिकने फिर अपने उस सेवकसे कहा कि ‘समय बहुत अधिक हो गया है। तुमको भी तो भोजन करना है, जाओ भोजन कर लो।’ यह सुनकर सेवकने कहा, ‘प्रभो! मैं बड़ा अकर्मण्य, स्वार्थी हूँ। इसीलिये आप मुझे इस कार्यको छोड़कर बार-बार भोजन करनेके लिये कह रहे हैं। यदि मैं अपने भोजन करनेकी अपेक्षा इनको भोजन कराना अधिक महत्त्वकी बात समझता तो क्या आप मुझे ऐसा कह सकते? परन्तु अच्छे स्वामी अकर्मण्य सेवकको भी निबाहते ही हैं! मैं आपकी आज्ञाकी अवहेलना करता हूँ, आप मेरी इस धृष्टताकी ओर ध्यान न देकर मुझे क्षमा करें। प्रभो! इन अनाथ भूखोंके रहते मैं भोजन कैसे करूँ?’ यह सुनकर मालिक बहुत प्रसन्न हुआ और सबको भोजन कराके अपने उस सेवकके साथ घर चला गया। वहाँ जाकर उसने सेवकसे कहा—‘मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, जो कहो, करनेको तैयार हूँ, बोलो, तुम क्या चाहते हो? तुम जो माँगोगे मैं तुम्हें वही दूँगा।’ सेवकने कहा—‘प्रभो? दीन-दु:खियोंको भोजन करानेका जो काम आप नित्य स्वयं करते हैं—मुझे तो वही काम सबसे बढ़कर जान पड़ता है, अतएव वही मुझे दे दीजिये; काम चाहे अपने साथ रखकर करावें या मुझे अकेला रखकर।’
यह दृष्टान्त है। दार्ष्टान्तमें ईश्वरको स्वामी, भक्तको सेवक, जिज्ञासुओंको भूखे अनाथ दु:खी और उनको संसारसे मुक्त करना ही भोजन कराना एवं परमधामको जानेको ही घर जाना समझना चाहिये।
भगवान् के जो सच्चे प्रेमी भक्त होते हैं, वे अपनी मुक्तिकी परवा न करके सबके कल्याणके लिये प्रसन्नताके साथ तत्पर हो जाते हैं; और भगवान् से वर भी माँगते हैं तो यही कि ‘सारे जीवोंका कल्याण हो जाय।’
ऐसे ही भक्तोंके लिये गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है—
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥
अर्थात् हे स्वामिन्! मेरे मनमें तो ऐसा विश्वास है कि रामके दास रामसे भी बढ़कर हैं। राम समुद्र हैं और संत मेघ हैं, राम चन्दन वृक्ष हैं और संत पवन हैं। मेघ समुद्रका जल लेकर सब जगह बरसाते हैं और सारे जगत् को तृप्त कर देते हैं, वैसे ही संत-महात्मा भी अक्षय सुख और शान्तिको देनेवाली भगवान् के गुण, प्रेम और प्रभावकी बातें जिज्ञासुओंको सुनाकर उन्हें तृप्त करते हैं। एवं जैसे वायु चन्दनकी गन्धको लेकर नीम और साल आदि अन्य वृक्षोंको भी चन्दन बना देता है वैसे ही महात्मा पुरुष विज्ञानानन्दघन परमेश्वरके भावको लेकर जिज्ञासुओंको विज्ञानानन्दमय बना देते हैं।
स्वयं भगवान् ने भी अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करते हुए उनको अपनेसे बड़ा बतलाया है। राजा अम्बरीष भगवान् के बड़े प्रेमी भक्त थे। वे एकादशीका व्रत किया करते थे। एक समय द्वादशीके दिन दुर्वासा ऋषि राजा अम्बरीषके घर पहुँचे और राजाके प्रार्थना करनेपर भोजन करना स्वीकार करके वे स्नानादि नित्यकर्म करनेके लिये यमुना तटपर चले गये। उस समय द्वादशी केवल एक घड़ी शेष रह गयी थी। तदनन्तर त्रयोदशी आती थी। व्रतका पारण द्वादशीमें ही करना अभीष्ट था। दुर्वासाजी स्नान करके समयपर नहीं लौटे, तब राजाने सोचा कि ‘पारण न करनेसे तो व्रत भंग होता है और अतिथि ब्राह्मणको भोजन कराये बिना स्वयं भोजन कर लेनेसे पापका भागी होना पड़ता है।’ इसलिये राजाने विद्वान् ब्राह्मणोंसे परामर्श किया और उनकी आज्ञासे केवल चरणोदक लेकर पारण कर लिया। इतनेही में दुर्वासाजी भी स्नान करके लौट आये। इस बातका पता लगनेपर उन्हें बहुत क्रोध हुआ। राजाने बहुत प्रकारसे क्षमा-प्रार्थना की; किन्तु ऋषिने एक भी न सुनी। क्रोधमें भरकर राजाका नाश करनेके लिये उन्होंने तुरंत ही अपनी जटासे केश उखाड़कर एक कृत्या उत्पन्न की। राजा उस समय भी हाथ जोड़े उनके सामने ही खड़े रहे। न तो कृत्याको देखकर भयभीत हुए और न उसका कोई प्रतीकार ही किया; किन्तु भगवान् के सुदर्शनचक्रसे यह नहीं सहा गया। वह कृत्याका नाश करके दुर्वासाकी ओर दौड़े। चक्रको देखते ही ऋषि घबड़ा गये और उससे छुटकारा पानेके लिये ब्रह्मा, शिव आदिकी शरणमें गये; किन्तु भगवान् के भक्तका अपराधी समझकर उन्हें किसीने भी सहायता नहीं दी। अन्तमें वे भगवान् विष्णुकी शरणमें गये तो उन्होंने भी असमर्थता व्यक्त कर दी। श्रीमद्भागवतमें वहाँका वर्णन इस प्रकार है। भगवान् कहते हैं—
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:॥
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम्।
हित्वा मां शरणं याता: कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे॥
ब्रह्मंस्तद्गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम्।
क्षमापय महाभागं तत: शान्तिर्भविष्यति॥
(९। ४। ६३,६५,७१)
‘हे ब्रह्मन्! मैं भक्तजनोंका प्रिय और उनके अधीन हूँ। मेरे साधु भक्तोंने मेरे हृदयपर अधिकार प्राप्त कर लिया है, अत: मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। जो स्त्री, पुत्र, घर, कुटुम्ब और उत्तम धन तथा अपने प्राणोंतकको न्योछावर करके मेरी शरण हो गये हैं, उन प्रिय भक्तोंका त्याग मैं कैसे कर सकता हूँ। इसलिये हे द्विज! तुम्हारा कल्याण हो, तुम महाभाग राजा अम्बरीषके पास जाकर उनसे क्षमा-याचना करो, इसीसे तुम्हें शान्ति मिलेगी, इसके लिये कोई दूसरा उपाय नहीं है।’
ऋषि लौटकर अम्बरीषकी शरणमें आये, तबतक राजा बिना भोजनके उसी तरह खड़े ऋषिके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दण्डवत् प्रणाम करके ऋषिके क्षमा-प्रार्थना करनेपर राजाको बहुत ही संकोच हुआ। राजाने स्तुति प्रार्थना करके सुदर्शन चक्रको शान्त किया। ऋषिको बहुत प्रकारसे सान्त्वना देकर भली प्रकारसे भोजन कराया और उनकी सेवा की। बादमें स्वयं भोजन किया। धन्य है! भगवान् के भक्त ऐसे ही होने चाहिये।
भगवान् से भी भगवान् के भक्तोंको बढ़कर बतलानेमें भगवान् की निन्दा नहीं है। भक्तोंको उनसे बड़ा बतलानेमें भी बड़ाई भगवान् की ही होती है; क्योंकि भक्तोंका बड़प्पन भगवान् से ही है।
भगवान् की भक्तिका प्रचार अवश्यम्भावी नहीं होता। वह भगवान् के भक्तोंपर निर्भर है। अपनी भक्ति और महिमाके प्रचार करनेमें स्वाभाविक ही सबको संकोच होता है। इसलिये भगवान् भी अपनी भक्तिका विस्तारसे प्रचार स्वयं न करके अपने भक्तोंके द्वारा ही कराते हैं। अतएव भगवान् की भक्ति और महिमाका प्रचार विशेषतासे भगवान् के भक्तोंपर ही निर्भर करता है। इसलिये भगवान् के भक्त भगवान् से बढ़कर हैं।
सारा संसार भगवान् के एक अंशमें स्थित है (गीता १०। ४२) और भगवान् भक्तके हृदयमें स्थित हैं—इस युक्तिसे भी भगवान् के भक्त भगवान् से बड़े हैं।
पवित्रतामें तो भगवान् के भक्त तीर्थोंसे भी बढ़कर हैं; क्योंकि सारे तीर्थोंकी उत्पत्ति उन्हींके निमित्तसे या प्रतापसे हुई है। यदि कहो, बहुत-से तीर्थोंका निर्माण भगवान् के अवतार या लीलासे हुआ है, सो ठीक है। पर भगवान् का अवतार भी तो प्राय: भक्तोंके लिये ही होता है। अतएव उसमें भी भगवान् के भक्त ही निमित्त होते हैं। तीर्थ सारे संसारको पवित्र करनेवाले हैं; परंतु भगवान् के भक्त तो तीर्थोंको भी पवित्र करनेवाले हैं।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि।
(नारदभक्तिसूत्र ६९)
‘ऐसे भक्त तीर्थोंको सुतीर्थ, कर्मोंको सुकर्म और शास्त्रोंको सत् शास्त्र बना देते हैं।’
महाराज भगीरथके घोर तपसे प्रसन्न होकर वर देनेके लिये आविर्भूत हुई भगवती श्रीगंगाजीने उनसे कहा—‘भगीरथ! मैं पृथ्वीपर कैसे आऊँ! संसारके सारे पापी तो आ आकर मुझमें अपने पापोंको धो डालेंगे; परंतु उन पापियोंके अपार पापपंकको मैं कहाँ धोने जाऊँगी इसपर आपने क्या विचार किया है?’ इसके उत्तरमें भगीरथने कहा—
साधवो न्यासिन: शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावना:।
हरन्त्यघं तेऽङ्गसंगात्तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरि:॥
(श्रीमद्भा० ९। ९। ६)
‘हे मात:! समस्त विश्वको पवित्र करनेवाले, विषयोंके त्यागी, शान्तस्वरूप, ब्रह्मनिष्ठ साधु-महात्मा आकर तुम्हारे प्रवाहमें स्नान करेंगे तब उनके अंगके संगसे तुम्हारे सारे पाप धुल जायँगे; क्योंकि उनके हृदयमें समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीहरि निवास करते हैं।’
गंगा, यमुना आदि तीर्थ तो स्नान-पान आदिसे पवित्र करते हैं; किन्तु भगवान् के भक्तोंका तो दर्शन और स्मरण करनेसे भी मनुष्य तुरंत पवित्र हो जाता है; फिर भाषण और स्पर्शकी तो बात ही क्या है? तीर्थोंमें तो लोगोंको जाना पड़ता है और जाकर स्नानादि करके वे पवित्र होते हैं; किन्तु महात्माजन तो श्रद्धा-भक्ति होनेसे स्वयं घरपर आकर पवित्र कर देते हैं।
महात्माओंकी पवित्रताके विषयमें जितना कहा जाय थोड़ा ही है। स्वयं भगवान् ने इनकी महिमा अपने मुखसे गायी है।
श्रद्धापूर्वक किया हुआ महापुरुषोंका संग भजन और ध्यानसे भी बढ़कर है। इसीलिये सनकादिक महर्षिगण ध्यानको छोड़कर भगवान् के गुणानुवाद सुना करते थे। राजा परीक्षित् तो केवल भगवान् के गुणानुवाद सुननेसे मुक्त हो गये; क्योंकि सत्संगद्वारा भगवान् के गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातोंको सुननेसे ही भगवान् में श्रद्धा एवं प्रेम होता है।
बिनु सतसंग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥
भगवान् में श्रद्धा और प्रेम होनेसे ही भजन-ध्यान होता है। श्रद्धा और प्रेमपूर्वक किये हुए भजन ध्यानसे ही भगवान् शीघ्र मिलते हैं। अतएव भगवान् में श्रद्धा और प्रेम होनेके लिये महापुरुषोंका संग करके भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यकी अमृतमयी बातें सुनने और समझनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
महापुरुषोंका संग मुक्तिसे भी बढ़कर बतलाया गया है।
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एकअंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लवसतसंग॥
शास्त्र कहते हैं—मुक्ति तो महापुरुषोंकी चरणरजमें विराजमान रहती है अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक महापुरुषोंकी चरणरजको मस्तकपर धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है। भागवतमें उद्धवजी कहते हैं—
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
(१०।४७।६१)
‘अहो! क्या ही उत्तम हो, यदि मैं आगामी जन्ममें इस वृन्दावनकी लता, ओषधि या झाड़ियोंमेंसे कोई होऊँ, जिनपर इन गोपियोंकी चरणधूलि पड़ती है।’
भागवतमें अपने भक्तोंकी महिमाका वर्णन करते हुए स्वयं भगवान् ने कहा है—
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
(११।१४।१६)
‘सब प्रकारकी अपेक्षासे रहित, मननशील, किसीसे भी वैर न रखनेवाले, समदर्शी एवं शान्त भक्तके पीछे-पीछे मैं सदा इस उद्देश्यसे फिरा करता हूँ कि इनके चरणोंकी धूलि पड़नेसे मैं पवित्र हो जाऊँगा।’
जो मनुष्य महापुरुषोंके तत्त्वको समझकर उनका संग करता है वह तो स्वयं दूसरोंको पवित्र करनेवाला बन जाता है। मुक्ति तो बिना इच्छा ही जबरदस्ती उसको प्राप्त होती है, किन्तु वह मुक्तिका तिरस्कार करके भगवान् के गुण और प्रभावकी बातोंको सुन-सुनकर प्रेममें मुग्ध होता है और प्रेममें विह्वल होकर भगवान् को आह्लादित करता है। इस प्रकार भगवान् को आह्लादित करनेको वह मुक्तिसे भी बढ़कर समझता है।
संसारमें तीन प्रकारके पुरुष होते हैं—उनमें एक तो ऐसे हैं जो न्याययुक्त परिश्रमसे धन कमाकर अपना पेट भरते हैं, दूसरे ऐसे हैं जो माँगकर क्षेत्रोंसे या सदावर्तद्वारा शरीरका निर्वाह करते हैं और तीसरे ऐसे हैं जो नित्य सदावर्त बाँटते हैं और सबको खिलाकर खाते हैं। पेट तीनोंका ही भरता है। तुष्टि, पुष्टि भी तीनोंकी ही समानरूपसे होती है। वर्णाश्रमानुसार न्याययुक्त जीविका करनेसे तीनों ही श्रेष्ठ होनेपर भी विशेष प्रशंसाके पात्र वे ही हैं जो नित्य सबको भोजन कराके यज्ञशिष्ट अमृतका भोजन करते हैं। इसी प्रकार मुक्तिके विषयमें भी समझना चाहिये।
जो भजन, ध्यान आदि साधन करके मुक्ति पाते हैं वे परिश्रम करके पेट भरनेवालोंके समान हैं। जो काशी आदि क्षेत्रोंकी एवं महात्मा पुरुषोंकी शरण लेकर मुक्ति प्राप्त करते हैं वे माँगकर शरीर निर्वाह करनेवालोंके समान हैं और जो भगवान् के देनेपर भी मुक्तिको ग्रहण न करके सबके कल्याण होनेके लिये भगवान् के गुण, प्रेम, तत्त्व, रहस्य और प्रभावयुक्त भगवान् के सिद्धान्तका संसारमें प्रचार करते हैं, वे सबको खिलाकर भोजन करनेवालोंके समान हैं। यद्यपि सभीका कल्याण होता है और परम शान्ति तथा परमानन्दकी प्राप्तिमें सभी समान हैं, पर इन तीनोंमें यदि किन्हींको ऊँचा दर्जा दिया जाय तो वे ही सबसे श्रेष्ठ रहते हैं जो मुक्तिको भी न चाहकर सबका कल्याण करनेपर ही तुले हुए हैं। ऐसा अधिकार भगवान् की कृपासे ही मिलता है; अतएव ऐसे पुरुषोंका संग मुक्तिसे भी बढ़कर है, ऐसे पुरुषोंकी स्वयं भगवान् ने भी गीता अध्याय १८ श्लोक ६८-६९ में अपने श्रीमुखसे प्रशंसा की है—
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
‘जो पुरुष मुझसे परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रको मेरे भक्तोंमें कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा—इसमें कोई सन्देह नहीं है। मेरा उससे बढ़कर प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है तथा मेरा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।’
ऐसे भक्तोंको जब भगवान् स्वयं मुक्ति देना चाहते हैं तब वे कहा करते हैं कि—‘भगवन्! मैं तो यही चाहता हूँ कि केवल आपके गुण, प्रेम, तत्त्व, रहस्य और प्रभावकी बातोंमें ही रात-दिन बिताऊँ, मुझे इससे बढ़कर और कुछ भी अच्छा नहीं लगता। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहें तो मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि सारे जीवोंका कल्याण कर दीजिये।’ क्या ही उत्तम भाव हैं! यह याचना होते हुए भी निष्कामभाव है।
ऐसे महात्माओंके अमोघ संग और महती कृपासे जो व्यक्ति परमात्माके रहस्यसहित गुण और प्रभावको तत्त्वसे जान जाता है वह स्वयं परम पवित्र होकर इस अपार संसार-सागरसे तरकर दूसरोंको भी तारनेवाला बन सकता है। इसलिये महापुरुषोंका संग अवश्यमेव करना चाहिये, क्योंकि सत्पुरुषोंका संग बड़े रहस्य और महत्त्वका विषय है। श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सत्संग करनेवाले ही इसका कुछ महत्त्व जानते हैं। पूरा-पूरा रहस्य तो स्वयं भगवान् ही जानते हैं, जो कि भक्तोंके प्रेमके अधीन हुए उनके पीछे-पीछे फिरते हैं।