गीता गंगा
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गीताके अनुसार स्थितप्रज्ञ, भक्त और गुणातीतके लक्षण तथा आचरण

वास्तवमें जीवन्मुक्त महापुरुषोंके व्यवहारका वर्णन वाणीद्वारा प्रकट करना असम्भव-सा है। उनके व्यवहारके रहस्यको साधारण मनुष्य कैसे समझ सकता है, उसका वर्णन करनेमें न तो मेरा अधिकार है और न योग्यता ही है; तथापि अपने मित्रोंकी प्रेरणासे, गीतादि शास्त्रोंके आधारपर अपनी साधारण बुद्धिसे जो कुछ समझमें आया है उसे पाठकोंकी सेवामें निवेदन करता हूँ।

जीवन्मुक्त महापुरुषोंका व्यवहार, उनका निजी स्वार्थ एवं राग-द्वेष और अहंकार न रहनेके कारण, केवल लोकहितार्थ ही हुआ करता है। उनके आचरण संसारमें प्रमाणस्वरूप माने जाते हैं, उनके आचरणोंमें पाप और स्वार्थकी गन्ध भी नहीं रहती, उनकी प्रत्येक क्रियामें परम उपदेश भरा रहता है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण आदि समस्त पदार्थोंमें पशु, पक्षी, कीट, पतंग, मनुष्य और देवादि समस्त प्राणियोंमें; तथा सुख-दु:ख, लाभ-हानि, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, शीत-उष्ण, प्रिय-अप्रिय आदि समस्त भावोंमें और समस्त कर्मोंमें सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा उनका समभाव रहता है। उसके अन्त:करण और इन्द्रियोंमें स्वार्थ, अहंकार, राग-द्वेष, विषमता और भयका सर्वथा अभाव हो जानेके कारण उनकी सारी क्रियाएँ साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा विलक्षण, परम पवित्र और दिव्य हुआ करती हैं। उनके आचरणोंमें किसी प्रकारका लेशमात्र भी दोष नहीं रहता। उनके अन्त:करणमें समभाव, प्रसन्नता, परम शान्ति और ज्ञान, ये सब नित्य-निरन्तर अविच्छिन्न और अपार रहते हैं। यह सब होते हुए भी वास्तवमें वे महापुरुष इस त्रिगुणमयी माया और उसके कार्यरूप शरीरादिसे सर्वथा अतीत होते हैं। अत: उनको न तो प्रिय वस्तुकी प्राप्ति और अप्रियके वियोगमें हर्ष होता है और न किसी अप्रियकी प्राप्ति और प्रियके वियोगमें शोक ही होता है। यदि ऐसे महापुरुषोंको किसी भी प्रकारका कोई भारी दु:ख पहुँचाया जाय, तो भी वे महापुरुष अपनी स्थितिसे विचिलित नहीं होते।

श्रीमद्भगवद्गीतामें परमपदकी प्राप्तिको भगवान् ने कहीं ब्रह्मनिर्वाण, सनातन ब्रह्म और ब्रह्मकी प्राप्तिके नामसे; कहीं आत्यन्तिक सुख, अनन्त सुख, अक्षय सुख और उत्तम सुखकी प्राप्तिके नामसे; कहीं अविनाशी शाश्वतपद, परमगति, परमधाम, परम दिव्य पुरुष, परम सिद्धि, संसिद्धि, शान्ति, परमशान्ति, निर्वाण परमशान्ति, शाश्वत शान्ति, अव्यक्त, अक्षर, अमृत, परमस्थान, शाश्वतस्थान, मद्भाव, मम साधर्म्य, परम और अपनी प्राप्ति इत्यादिके नामसे कहा है।

उस परमपदको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषके लक्षण और आचरण गीता अध्याय २ के अन्तमें स्थितप्रज्ञके नामसे, अध्याय १२ के अन्तमें भक्तके नामसे और अध्याय १४ के अन्तमें गुणातीतके नामसे भगवान् ने बतलाये हैं; इसके सिवा अन्यान्य अध्यायोंमें भी योगी, युक्त और ज्ञानी आदिके नामसे जीवन्मुक्तकी स्थितिका संक्षिप्त वर्णन आया है—ये सभी परमात्माको प्राप्त हुए महापुरुषके लक्षण हैं।

गीतापर भलीभाँति विचार करनेसे मालूम होता है कि अध्याय २के श्लोक ५५ से ७२ तक स्थितप्रज्ञके नामसे कर्मयोगद्वारा परमात्माको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषके लक्षण और आचरण बतलाये गये हैं।

अध्याय १२ में श्लोक १३ से २० तक भक्तियोगद्वारा परमात्माको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषके लक्षण और आचरण बतलाये गये हैं एवं अध्याय १४ में श्लोक २२ से २५ तक ज्ञानयोग यानी सांख्ययोगद्वारा परमात्माको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषके लक्षण और आचरण बतलाये गये हैं।

इन तीनों स्थलोंको सामने रखकर उनपर विचार करनेसे यही प्रतीत होता है कि इनमेंके बहुत-से लक्षण और आचरण एक-दूसरेसे मिलते-जुलते-से ही हैं। क्योंकि परमात्माको प्राप्त होनेके बाद सबकी स्थिति एक ही हो जाती है, इसलिये उनके लक्षण और आचरण भी प्राय: एक-से ही हुआ करते हैं। तथापि प्रकृति (स्वभाव) और साधनकालके अभ्यास तथा वर्णाश्रमके भेदसे गुण और आचरणोंमें किसी-किसी स्थलमें भिन्नता भी आ जाती है, पर वह शास्त्रानुकूल ही होती है। भगवान् ने भी कहा है—

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥
(गीता ३। ३३)

‘सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं, अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा।’

सभी प्रकारके साधनोंसे परमात्माको प्राप्त हुए पुरुष परम पवित्र और साधारण मनुष्योंसे बहुत उत्तम होते हैं। ऐसे जीवन्मुक्त पुरुषोंकी प्रकृति साधनकालमें ही शुद्ध हो जाती है। अत: सभी प्रकारके जीवन्मुक्त महापुरुषोंके आचरण शास्त्रसम्मत, आदर्शरूप, पवित्र और सर्वथा दिव्य होते हैं।

कर्मयोगीके लिये तो फलासक्तिरहित कर्मोंका करना ही योगकी सिद्धिमें हेतु बतलाया गया है (गीता ६। ३)। इसलिये उसके द्वारा कर्मोंका विस्तार होना स्वाभाविक ही हो जाता है और कर्मोंके विस्तारसे उसमें फँसाव होकर बन्धन हो जानेका डर रहता है। अतएव उसके लिये मन-इन्द्रियोंके निग्रह एवं काम-क्रोध, राग-द्वेष, ममता और अपेक्षा आदिके त्यागपर विशेष जोर दिया गया है। भक्तियोगके साधकके लिये इन बातोंपर इतना जोर नहीं दिया गया। उनके लिये तो सर्वकर्म भगवान् के समर्पण करके भगवत्स्मरण करनेपर विशेष जोर दिया गया है। इस प्रकार करनेसे भगवान् की दयासे उपर्युक्त सारे दोष अपने-आप ही नष्ट हो जाते हैं। और ज्ञानमार्गसे चलनेवाले पुरुष तो सारे कर्म और सारे विकार प्रकृतिपर छोड़ देते हैं, अपनेसे उनका सम्बन्ध ही नहीं रखते; इस कारण उनके बाहरी कर्मोंका विस्तार नहीं भी हो सकता।

कर्मयोगद्वारा परमात्माको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषमें, परमात्माकी प्राप्तिके उत्तरकालमें भी कर्मोंका बाहुल्य रह सकता है। उसके द्वारा स्वार्थ, आसक्ति, अहंकार आदिके बिना ही केवल लोकसंग्रहार्थ स्वाभाविक कर्मोंकी क्रियाएँ विस्तारपूर्वक भी होती हैं और उसमें उसकी महिमा है। भगवान् ने भी कहा है—

यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
(गीता ४। १९)

‘जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।’

वे ममता, अहंकार, कामना आदिसे रहित हुए संसारमें विचरते हैं—

विहाय कामान् य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति॥
(गीता २। ७१)

‘जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है।’

क्योंकि साधनकालमें ही कर्मयोगीके साधनमें मन इन्द्रियोंके संयमपूर्वक राग-द्वेष और स्वार्थके बिना केवल कर्तव्यबुद्धिसे किये हुए कर्म ही उसकी स्थितिको बढ़ाकर परमात्माका साक्षात्कार करानेमें हेतु होते हैं।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २।६४-६५)

‘परंतु अपने अधीन किये हुए अन्त:करणवाला साधक वशमें की हुई, राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्त:करणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है। अन्त:करणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।’

पूर्वमें भी इस प्रकार साधन करके जनकादि परमपदको प्राप्त हो चुके हैं—

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि॥
(गीता ३। २०)

‘जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए थे। इसलिये तथा लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू कर्म करनेको ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।’

इस कारण सिद्धावस्थाको प्राप्त होनेके बाद भी उन पुरुषोंद्वारा बहुलतासे कर्म हो सकते हैं। ऐसे पुरुषमें राग-द्वेषादि अवगुणोंका सर्वथा अभाव होनेके कारण, कर्मोंकी बहुलता होनेपर भी, उसके द्वारा किये हुए कर्मोंमें कोई दुराचारिता नहीं आ सकती; क्योंकि दुराचारिताका मूल कारण राग-द्वेषादि अवगुण ही हैं। अर्जुनके पूछनेपर भगवान् ने आसक्तिसे उत्पन्न होनेवाले काम-क्रोधको ही पापाचारमें हेतु बताया है—

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(गीता ३। ३७)

‘हे अर्जुन! रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषयमें वैरी जान।’

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मोंकी बहुलता स्थितिमें बाधक नहीं है, राग-द्वेष और काम-क्रोधादि अवगुण ही बाधक हैं और इनका उन महापुरुषोंमें सर्वथा अभाव होता है। स्वार्थ और राग-द्वेषको छोड़कर किये हुए कर्म ही कर्मयोगके साधकके लिये भगवत्प्राप्ति करानेवाले हैं और सिद्धोंकी शोभा बढ़ानेवाले हैं।

शास्त्रविहित स्वाभाविक कर्मोंमें जो अनिवार्य हिंसादि दोष हुआ करते हैं, वे दुराचार नहीं हैं (गीता १८। ४८); एवं ऐसे हिंसादि दोष फलेच्छा, राग-द्वेष और अहंकाररहित मनुष्यको दूषित नहीं कर सकते (गीता १८। १७)।

यद्यपि परमात्माको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषको कर्म करने या न करनेसे कोई अपना प्रयोजन नहीं रह जाता, तथापि लोगोंको उन्मार्गसे बचाने और सन्मार्गमें प्रवृत्त करनेके लिये ही उनके द्वारा निषिद्ध कर्मोंका त्याग और विहित कर्मोंका आचरण हुआ करता है। मोहसे कर्मोंको छोड़ बैठनेवाला अज्ञानी वास्तवमें त्यागी नहीं है (गीता १८।७); परन्तु इस प्रकार कर्म करनेवाला मनुष्य ही वास्तवमें बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।

भगवान् ने कहा है—

न द्वेष्टॺकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:॥
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥
(गीता १८। १०-११)

‘हे अर्जुन! जो मनुष्य अकुशल कर्मसे तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्त्वगुणसे युक्त पुरुष संशयरहित, ज्ञानवान् और सच्चा त्यागी है। क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्णतासे सब कर्मोंका त्यागा जाना शक्य नहीं है; इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है, वही सच्चा त्यागी है, यह कहा जाता है।’

भक्तियोगद्वारा परमेश्वरको प्राप्त हुए महापुरुषमें परमेश्वरकी प्राप्तिके उत्तरकालमें भी सभी मनुष्योंके साथ दया और प्रेमका भाव अधिक व्यक्त हुआ करता है। क्योंकि उसके साधनकालमें ही ईश्वर-विषयक श्रद्धा, भक्ति, प्रेम और शरण आदि भावोंकी बहुलता उसकी स्थितिको बढ़ाकर परमात्माकी प्राप्तिमें हेतु हुआ करती है; इससे उसका स्वभाव अत्यन्त कोमल हो जाता है और उसे सभी प्राणियोंमें अपने स्वामी आराध्यदेवको विराजमान देखनेका अभ्यास हो जाता है।

उसमें कोमलता, क्षमा और सुहृदता आदि गुणोंकी बहुलता होनेके कारण न्यायप्राप्त होनेपर भी उसके द्वारा किसी जीवको दण्ड दिया जाना कठिन-सा हो जाता है। इस कारण उससे किसी भी जीवको उद्वेग नहीं होता और अन्य जीवोंद्वारा अनुचित कष्ट दिये जानेपर भी वह स्वयं उद्वेगवान् नहीं होता और उनसे वह न्यायपूर्वक भी बदला लेना नहीं चाहता।

भगवान् ने भी कहा है—

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
(गीता १२। १३—१५)

‘जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है।’

‘तथा जो योगी निरन्तर सन्तुष्ट है; मन, इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।’

‘जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष-अमर्ष*, भय और उद्वेगादिसे रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है।’

* दूसरेकी उन्नतिको देखकर सन्ताप होनेका नाम ‘अमर्ष’ यानी ईर्ष्या है।

दया, प्रेम और क्षमा आदि सद्गुणोंसे उसका अन्त:करण प्रभावित हो जानेके कारण, वह अपने साथ बुरा बर्ताव करनेवालेको भी प्रेमपूर्वक उसके हितकी चेष्टाओंद्वारा उसके अन्त:करणमें साधुभाव उत्पन्न करते हुए ही शिक्षा देनेका प्रयत्न किया करता है।

नीतिकी आवश्यकता पड़नेपर भी साम और दामसे ही काम लेनेका उसका स्वभाव हो जाता है। दण्ड और भेदनीतिका प्रयोग प्राय: उसके द्वारा नहीं हो सकता।

उसकी प्रत्येक क्रियामें ईश्वरभक्ति, श्रद्धा, स्वार्थत्याग, चतुरता, कोमलता, विनय, प्रेम, दया और चित्तकी प्रसन्नता आदि भाव विशेषरूपसे झलकते रहते हैं। क्योंकि साधनकालमें इन भावोंसे ही उसकी स्थिति बढ़कर उसे परमेश्वरकी प्राप्ति होती है, अत: उसका स्वभाव ही ऐसा बन जाता है।

ऐसे महापुरुषकी सभी क्रियाएँ भगवान् की प्रेरणाके अनुसार समस्त प्राणियोंको अभयदान देते हुए ही हुआ करती हैं।

दूसरोंका सत्कार करना और उनको मान-बड़ाई देना उसका साधारण स्वभाव हो जाता है। ऐसे महापुरुषके मन और बुद्धि निरन्तर भगवान् में ही समर्पित रहते हैं। अत: उसके जीवनका अधिक समय भगवान् के भजन, ध्यान, गुणानुवाद और सेवा आदिमें ही लगता है।

उसके द्वारा कर्मयोगीकी भाँति व्यावहारिक कर्मोंका विस्तार होना कठिन है। क्योंकि अहर्निश भगवच्चिन्तनका स्वभाव हो जानेके कारण साधनकालमें ही उसकी रुचि लौकिक कर्मोंसे हट-सी जाती है। आवश्यकतानुसार सब कुछ करते हुए भी ऐसे महापुरुषोंकी स्थिति निरन्तर परमेश्वरमें ही रहती है। भगवान् ने कहा भी है—

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
(गीता ६। ३१)

‘जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।’

ज्ञानयोग (सांख्ययोग) द्वारा परमात्माको प्राप्त हुए जीवन्मुक्त पुरुषमें ज्ञान, वैराग्य, उपरामता, निरहंकारता आदि गुणोंकी प्रधानता होनेके कारण एवं दृश्य संसारमें अनित्यबुद्धि होनेसे, उसके द्वारा शास्त्रविहित लौकिक और धार्मिक कर्मोंका भी विस्तार प्राय: कम होता है।

वर्णाश्रमके अनुसार जीविकानिर्वाह आदिके आवश्यक कर्म भी उसके द्वारा कर्तृत्वाभिमानके बिना होते हुए-से प्रतीत होते हैं। क्योंकि साधनकालमें भी उसका ऐसा ही अभ्यास रहता है कि समस्तकर्म प्रकृतिद्वारा ही किये हुए हैं, इन्द्रियाँ ही अपने-अपने अर्थोंमें बर्तती हैं, गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं, मेरा इन कर्मोंसे, भोगोंसे, शरीरसे और संसारसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। भगवान् ने कहा भी है—

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥
(गीता ५। ८-९)

‘हे अर्जुन! तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखोंको खोलता और मूँदता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोंमें बर्त रही हैं, इस प्रकार समझकर नि:सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।’

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥
(गीता ३। २८)

‘हे महाबाहो! गुणविभाग१ और कर्मविभागके२ तत्त्वको३ जाननेवाला ज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं, ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता।’

१-२-त्रिगुणात्मक मायाके कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय, इन सबके समुदायका नाम ‘गुणविभाग’ है और इनकी परस्परकी चेष्टाओंका नाम ‘कर्मविभाग’ है।
३-उपर्युक्त ‘गुणविभाग’ और ‘कर्मविभाग’ से आत्माको पृथक् अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्त्व जानना है।
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥
(गीता १४। १९)

‘हे अर्जुन! जिस कालमें द्रष्टा अर्थात् समष्टिचेतनमें एकीभावसे स्थित हुआ साक्षी पुरुष तीनों गुणोंके सिवा अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता, अर्थात् गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं*, ऐसा देखता है और तीनों गुणोंसे अति परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है, उस कालमें वह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।’

* त्रिगुणमयी मायासे उत्पन्न हुए अन्त:करणके सहित इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंमें विचरना ही गुणोंका गुणोंमें बर्तना है।

ममता अहंकारादि विकारोंका अत्यन्त अभाव और परिग्रहका त्याग, एकान्त देशका सेवन, मन-इन्द्रियोंका संयम, सांसारिक मनुष्योंसे, सर्व पदार्थोंसे और कर्मोंसे वैराग्य और उपरामता, निरन्तर विज्ञानानन्दघन ब्रह्मके स्वरूपमें स्थित रहना—उसके मनका स्वाभाविक धर्म-सा हो जाता है; क्योंकि साधनकालमें भी उसने ऐसा ही अभ्यास किया है। भगवान् ने भी कहा है—

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥
(गीता १८। ५२)

‘जो एकान्त और शुद्ध देशका सेवन करनेवाला, हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करनेवाला, मन, वाणी और शरीरको वशमें कर लेनेवाला, भलीभाँति दृढ़ वैराग्यका आश्रय लेनेवाला और निरन्तर ध्यानयोगके परायण रहनेवाला है।’

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
(गीता १८। ५३)

‘वह अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके ममतारहित और शान्तियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें अभिन्न भावसे स्थित होनेका पात्र होता है।’ इस कारण उसके द्वारा कर्मोंका विस्तार नहीं हो सकता।

इस तरहसे तीनों प्रकारके महापुरुषोंके आचरण परम पवित्र, दिव्य और अलौकिक होते हैं। ऐसे महापुरुषोंके आचरणको ही शास्त्रकारोंने सदाचारके नामसे कहा है और बारंबार उनका अनुकरण करनेके लिये जोर दिया है।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(गीता ३। २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं; वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।’

राजा युधिष्ठिरने भी यक्षके पूछनेपर ऐसे पुरुषोंको लक्ष्य बनाकर ही कहा था—

तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना
नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गत: स पन्था:॥
(महा० वन० ३१३।११७)

‘धर्मके विषयमें तर्ककी कोई प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं, श्रुतियाँ भिन्न-भिन्न तात्पर्यवाली हैं, तथा ऋषि-मुनि भी कोई एक नहीं हुआ है, जिससे उसीके मतको प्रमाणस्वरूप माना जाय, धर्मका तत्त्व गुहामें छिपा हुआ है अर्थात् धर्मकी गति अत्यन्त गहन है, इसलिये (मेरी समझमें) जिस मार्गसे कोई महापुरुष गया हो, वही मार्ग है अर्थात् ऐसे महापुरुषका अनुकरण करना ही धर्म है।’

अत: मनुष्यमात्रको उचित है कि ऐसे महापुरुषोंके आचरणको आदर्श मानकर उनका अनुकरण करनेके लिये अर्थात् अपने जीवनको उन्हींके-जैसा बनानेके लिये विशेष प्रयत्न करें।

प्र०-ज्ञानीके प्रारब्ध कर्म नष्ट होते हैं या नहीं?

उ०-परमात्माको प्राप्त हुए ज्ञानी पुरुषके वास्तवमें प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण, सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। कहा भी है—

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥
(गीता ४। ३७)

‘हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनको भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्ममय कर देता है।’

तथापि व्यावहारिक दृष्टिसे यह माना जाता है कि ज्ञानीके प्रारब्धकर्म रहते हैं, इसीसे उसका शरीर बना रहता है, प्रारब्धकर्म अपना फल भुगताकर ही समाप्त होते हैं इत्यादि। किन्तु कर्मका फल जाति, आयु और भोग बतलाया गया है। उनमें जन्मरूप फल तो हो ही चुका, आयु समयपर अपने-आप समाप्त हो ही जायगी; रही भोगकी बात, सो सुख-दु:खका भोक्ता प्रकृतिस्थ पुरुषको ही माना गया है (गीता १३। २१) शुद्ध आत्मामें भोक्तापन नहीं है। ज्ञानीकी स्थिति परब्रह्म परमात्मामें हो जाती है। अत: उसे सुख-दु:खकी प्राप्ति नहीं हो सकती। सुतरां यही सिद्ध हुआ कि प्रारब्धका भोग केवल लोक-दृष्टिसे ही ज्ञानीको होता हुआ-सा प्रतीत होता है, वास्तवमें ज्ञानीका प्रारब्धकर्मसे भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता।

सुख-दु:खादिकी प्राप्तिके हेतु जो खान-पान, रोग, पीड़ादि हैं, वे सब शरीरमें होते हुए भी ज्ञानीको उसकी स्थितिसे विचलित नहीं कर सकते। वह सदा निर्विकार रहता है, हर्ष-शोकादिसे सर्वथा रहित हो जाता है। श्रुतिमें भी कहा है—‘हर्षशोकौ जहाति’ (कठ० १।२। १२), अर्थात् वह हर्ष और शोकको छोड़ देता है। ‘तरति शोकमात्मवित्’ (छान्दोग्य ७। १। ३), अर्थात् आत्मवेत्ता शोकसे तर जाता है। वास्तवमें हर्ष-शोकका होना ही प्रारब्धका फल है, उससे ज्ञानी पार हो जाता है; स्त्री, पुत्र, धन, गृह आदि प्रिय वस्तुओंकी उत्पत्ति और विनाशमें उसको किंचिन्मात्र भी हर्ष-शोक नहीं होता। क्योंकि उसने साधनकालमें ही शरीर और स्त्री-पुत्र-गृहादिमें अहंता, ममता और आसक्तिके अभाव तथा समभावका अभ्यास किया है (गीता १३। ९)। हर्ष-शोककी प्राप्तिमें राग-द्वेष, अहंता, ममता आदि दुर्गुण ही कारण हैं। इनके अभावके अभ्याससे साधनकालमें ही हर्ष-शोक आदि विकार प्राय: क्षीण हो जाते हैं, फिर सिद्धावस्थामें तो अहंता-ममता आदिका अत्यन्त अभाव हो जानेसे हर्ष-शोक आदि विकारोंका होना असम्भव ही है।

संसारमें भी यह बात देखी जाती है कि जिन स्त्री-पुत्रोंमें या गृह आदि समस्त पदार्थोंमें हमारा स्नेह और ममत्व नहीं होता, उनके बनने-बिगड़नेमें हमें सुख-दु:ख, हर्ष-शोक आदि नहीं होते। इसी तरह ज्ञानीका अपने शरीरमें अहंभाव न रहनेसे और शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले स्त्री, पुत्र, गृह आदिमें ममत्व और स्नेह न रहनेसे किसी अवस्थामें भी हर्ष-शोकका न होना उचित ही है। अत: लोकदृष्टिमात्रसे उनके स्त्री, पुत्र,गृह आदि पदार्थोंका बनना-बिगड़नारूप प्रारब्धकर्मका भोग होते हुए भी न होनेके समान ही है।

ज्ञानीके शरीरद्वारा लोकदृष्टिसे क्रियमाण कर्म होते हुए-से दिखलायी देते हैं; परन्तु अहंकार, स्वार्थ और राग-द्वेषका अभाव होनेके कारण उनके कर्म वास्तवमें कर्म नहीं हैं। कोई-कोई कह दिया करते हैं कि ज्ञानीद्वारा किये हुए क्रियमाण पुण्यकर्मोंका फल उनकी स्तुतिकरनेवालोंको और पापकर्मोंका फल उनकी निन्दा करनेवालोंको मिलता है। किन्तु यह कहना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि ज्ञानीद्वारा पापकर्मोंका आचरण होता ही नहीं। साधनावस्थामें ही उसके अंदर राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि दुर्गुणोंका एवं चोरी, जारी, हिंसा, मिथ्याभाषणादि दुराचारोंका प्राय: अभाव हो जाता है; फिर सिद्धावस्थाकी तो बात ही क्या है? अविद्या, अहंकार, राग-द्वेष और भय—यही सब पापाचारके कारण हैं। इनका सर्वथा अभाव होनेके बाद पापाचार कैसे हो सकता है। बुद्धिपूर्वक पापकर्म तो ज्ञानीद्वारा हो नहीं सकते और अज्ञात हिंसादिका पाप लगता नहीं। इनके सिवा जो शास्त्रविहित स्वाभाविक कर्मोंमें हिंसादि पापकर्म होते हुए दिखलायी देते हैं वे भी वास्तवमें अहंकार और राग-द्वेषरहित होनेके कारण पापकर्म नहीं हैं। कहा भी है—

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८।१७)

‘हे अर्जुन! जिस पुरुषके अन्त:करणमें ‘मैं कर्ता हूँ’, ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थोंमें और सम्पूर्ण कर्मोंमें लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकोंको मारकर भी वास्तवमें न तो मारता है और न पापसे बँधता है।’*

* जैसे अग्नि, वायु और जलके द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणीकी हिंसा होती देखनेमें आवे, तो भी वह वास्तवमें हिंसा नहीं है; वैसे ही जिस पुरुषका देहमें अभिमान नहीं है और जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वार्थरहित तथा केवल संसारके हितके लिये ही होती हैं, उस पुरुषके शरीर और इन्द्रियोंद्वारा यदि किसी प्राणीकी हिंसा होती हुई लोकदृष्टिमें देखी जाय, तो भी वह वास्तवमें हिंसा नहीं है; क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकारके न होनेसे किसी प्राणीकी हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्व-अभिमानके किया हुआ कर्म वास्तवमें अकर्म ही है, इसलिये वह पुरुष पापसे नहीं बँधता।

ऐसे पुरुषके द्वारा शास्त्रविहित पुण्यकर्म केवल लोक संग्रहार्थ होते हैं। वे कर्म भी फलेच्छा, आसक्ति या अहंकारपूर्वक नहीं किये जाते, तब वे दूसरे किसीको भी फलदायक कैसे हो सकते हैं? उनका तो यही प्रत्यक्ष फल है कि जो कोई उनके आचरणोंपर श्रद्धा करके उनका अनुकरण करने लग जाता है वह अपने जीवनका सुधार कर लेता है। अश्रद्धालु उनके कर्मोंसे विशेष लाभ नहीं उठा सकते।

उनकी निन्दा या स्तुति करनेवालोंको पाप-पुण्य अवश्य होता है; पर वह ज्ञानीके कर्मोंका फल नहीं है, उन्हींकी क्रियाका फल उन्हें मिलता है। साधारण मनुष्यकी निन्दा करनेसे भी पाप होता है; पर ज्ञानी, शास्त्र और ईश्वरकी निन्दाका पाप अधिक होता है। क्योंकि उनकी निन्दासे लोगोंकी विशेष हानि होती है संचित कर्म तो ज्ञानीके सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, प्रारब्धकर्मोंका फल दूसरोंको मिल नहीं सकता और क्रियमाण कर्म भुने हुए बीजकी भाँति फल उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहित होते हैं। अत: ज्ञानीके पुण्य-पापोंका सर्वथा अभाव होनेके कारण ज्ञानीके कर्मोंका फल निन्दा-स्तुति करनेवालोंको मिलनेका प्रसंग ही कैसे आ सकता है।

कोई-कोई विद्वान् ज्ञान होनेके अनन्तर भी प्रारब्धकर्मके आधारपर लेशाविद्याका आश्रय लेकर राग-द्वेष, काम-क्रोधादिको अन्त:करणका धर्म मानकर झूठ, चोरी, व्यभिचारादि दुराचरणोंका भी उस ज्ञानीके द्वारा होना मानते हैं। किन्तु वस्तुत: ज्ञानोत्तरकालमें जीवन्मुक्त पुरुषके अंदर सर्व कर्मोंका सर्वथा अभाव बतलाया गया है (गीता ४। ३७); उसका देह अज्ञानियोंकी दृष्टिमें प्रारब्ध-भोगके लिये रहता है। जो तत्त्ववेत्ता पुरुष हैं उनकी दृष्टिमें तो एक नित्य विज्ञान-आनन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त शरीर और संसारका सर्वथा अभाव है; फिर वहाँ लेशमात्र भी अविद्या (अज्ञान) को गुंजाइश कहाँ है? यदि लेशमात्र भी अविद्या (अज्ञान) माना जाय तो इस लेशाविद्याका धर्मी किसको माना जायगा? जैसे सूर्योदयके उत्तरकालमें रात्रिका लेशमात्र भी रहना सम्भव नहीं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी सूर्यके उदय होनेपर, अज्ञानका लेशमात्र भी रहना सम्भव नहीं। अतएव उन ज्ञानी महात्माओंमें लेशमात्र भी अविद्याका मानना भूल है।

वे लोग यह भी कहते हैं कि ‘प्रारब्धवश ज्ञानीद्वारा भी चोरी, परस्त्रीगमनादि पापकर्म हो सकते हैं। क्योंकि काम-क्रोधादि अवगुण अन्त:करणके धर्म होनेके कारण जबतक शरीर रहेगा तबतक रहेंगे ही, साक्षीका इनसे कुछ सम्बन्ध नहीं है; अत: प्रारब्धकर्म अपना भोग देनेके लिये ज्ञानीको भी बलात् पापकर्मोंमें प्रवृत्त कर देते हैं, पर इतने मात्रसे उनका तत्त्वज्ञान नष्ट नहीं हो जाता’ इत्यादि। तथा अपने मतकी पुष्टिके लिये वे यह भी कहते हैं कि ‘कुपथ्यसेवी, राजाकी स्त्रीसे प्रेम रखनेवाला और चोरी करनेवाला—ये तीनों भविष्यमें दण्ड मिलना जानते हुए भी, प्रारब्धभोगके वशमें होकर स्वेच्छासे कुपथ्यसेवन, चोरी और परस्त्रीगमनादि पापकर्म करते हैं, पर यह कहना न तो शास्त्रसम्मत है और न युक्तियुक्त ही है।

किसी पापकर्मका फल भोगनेके लिये पुन: पापकर्म करना पड़ेगा, इस कथनको शास्त्रसम्मत माननेसे पापकर्मोंकी अनवस्थाका दोष आवेगा; ऐसी व्यवस्था करनेवालेमें भी मूर्खता और निर्दयताका दोष आवेगा; ‘धर्मका आचरण करो, सत्य बोलो, पाप मत करो’ इत्यादि शास्त्रोक्त विधि-निषेधबोधक वचन व्यर्थ होंगे और शास्त्रोंमें पापकर्मका फल दु:ख बतलानेवाले वचन मिलते हैं, उन वचनोंमें विरोध आवेगा। अत: चोरी, व्यभिचार आदि पापकर्मोंका फल दु:खभोग होना शास्त्रसम्मत है, न कि पुन: पाप करना। यदि पापकर्म प्रारब्धका फल हो तो उस पापका फल दु:ख कैसे होगा और उससे बचनेके लिये शास्त्रोंमें प्रेरणा क्यों की जायगी।

साधारण न्यायकर्ता राजा भी ऐसा कानून नहीं बनाता कि अमुक पापकर्म करनेवालेको उसके फलस्वरूप पुन: पापकर्म करना पड़ेगा, बल्कि लोगोंको पापकर्मसे रोकनेके लिये ऐसा कानून बनाता है कि अमुक आज्ञाका पालन नहीं करनेसे यह दण्ड मिलेगा। और जो कोई उसकी आज्ञाके विरुद्ध चलता है उसको राजा दण्ड देता भी है, ताकि दूसरे उसे देखकर सावधान हो जायँ और आज्ञाका पालन करें। फिर परम दयालु सर्वशक्तिमान् ईश्वरद्वारा ऐसा कानून कैसे बनाया जा सकता है कि अमुक निषिद्ध कर्मका फल भोगनेके लिये अमुक निषिद्ध कर्म करना पड़ेगा।

गीता (३। ३३) में जो लिखा गया है कि ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है, वहाँ प्रकृति उसके स्वभावका नाम है। उसका स्वभाव साधनकालमें ही शुद्ध हो जाता है, अत: उसकी चेष्टा पापरूप नहीं होती। उसके द्वारा स्वेच्छापूर्वक प्रारब्धभोगके लिये जो कुछ चेष्टा होती है, सभी न्याययुक्त होती है और लोक हितार्थ जो क्रियमाण कर्मोंकी चेष्टा होती है, वह भी न्याययुक्त ही होती है। ज्ञानियोंके लोकदृष्टिसे अवशिष्ट प्रारब्ध-भोग भिन्न-भिन्न रहते हैं एवं साधनकालमें भिन्न-भिन्न ही अभ्यास होता है। इस उद्देश्यको लेकर यह कहा गया है कि सब ज्ञानियोंकी चेष्टा एक-सी नहीं होती, अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार होती है। अभिप्राय यह है कि सभी मनुष्योंको अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करने पड़ते हैं, बिना कर्म किये कोई रह नहीं सकता, इसके लिये हठ करना व्यर्थ है। मनुष्यको उचित है कि प्रत्येक इन्द्रियके भोगमें जो राग और द्वेषरूप शत्रु छिपे हुए हैं, जो पापकर्मोंमें प्रवृत्त करनेवाले हैं, उनके वशमें न हो और धर्मपालनमें डटा रहे। यदि भगवान् का यहाँ यह सिद्धान्त मान लिया जाय कि प्रारब्धवश मनुष्यको पापकर्म करने पड़ते हैं, तब तो राग-द्वेषके वशमें न होने और धर्मपालनके लिये तत्पर होनेके लिये जो अगले श्लोकोंमें जोर दिया गया है उन श्लोकोंकी कोई संगति ही न बैठेगी और भगवान् का महत्त्वपूर्ण उपदेश व्यर्थ हो जायगा। अत: गीताके श्लोकका ऐसा उलटा अर्थ समझाना लोगोंको भ्रममें डालना है। अवश्यम्भावीका प्रतीकार नहीं हो सकता, उसे कोई टाल नहीं सकता, यह कहना सर्वथा सत्य है; परन्तु प्रारब्धकर्मके भोगरूप सुख-दु:खादिकी प्राप्तिके लिये फिर नया पापकर्म स्वेच्छापूर्वक अवश्य करना पड़े, ऐसा अवश्यम्भावी नहीं हो सकता, क्योंकि यह न्यायसंगत नहीं है। यदि धनप्राप्तिके लिये चोरी करनी पड़ेगी या स्त्रीसुखभोगके लिये परस्त्रीगमन करना पड़ेगा या राजदण्ड पानेके लिये चोरी-व्यभिचार आदि पापकर्म करना पड़ेगा—ऐसा अवश्यम्भावी प्रारब्ध होता तो शास्त्रोंमें न्यायपूर्वक धन प्राप्त करनेकी, स्त्रीसुखभोगके लिये विवाहादिकी, रोगादिसे बचनेके लिये औषध और पथ्यकी, चोरी, व्यभिचार आदि पापकर्मोंसे बचनेके लिये राजदण्ड आदिकी व्यवस्था ही क्यों की जाती?

प्रत्यक्षमें भी देखा जाता है कि साधनद्वारा जो मनुष्य अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें कर लेता है एवं राग-द्वेष और काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेता है, उसकी भी प्राय: पापाचारमें प्रवृत्ति नहीं होती और साधनहीन मनुष्य काम-क्रोधसे प्रेरित होकर पापाचार करते हैं। इसके सिवा उपर्युक्त सिद्धान्त माननेसे परस्त्री-गमनरूप पापकर्म करना या किसी पुरुषका स्वस्त्रीव्रती होना स्वाधीन नहीं हो सकेगा, पापकर्मोंके करनेमें और धर्मके त्यागमें भी प्रारब्धको कारण मानना होगा, जो कि सर्वथा न्यायविरुद्ध है।

धनकी प्राप्ति या रतिभोगकी प्राप्ति आदि सुखभोगके निमित्त अवश्यम्भावी बनाये जाते हैं, ऐसा माननेसे कोई राजा या धनी वैराग्य होनेपर भी गृहस्थका त्याग न कर सके, ऐसा न्याय प्राप्त होगा। इससे ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्’ (जाबाल० ४)अर्थात् ‘जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो उसी दिन गृहस्थको छोड़कर संन्यास ग्रहण करना चाहिये’ इस प्रकार कहनेवाली श्रुतियाँ व्यर्थ हो जायँगी। तथा आश्रमका परिवर्तन और मुक्तिका होना भी प्रारब्धपर ही निर्भर हो जायगा जो सर्वथा अयुक्त है। अत: यही सिद्ध होता है कि शुभ कर्मोंका फल जो प्रारब्धफलरूप सुखभोग है उसका त्याग करनेमें सदा ही स्वतन्त्र है। ‘त्यागेनैके अमृतत्वमानशु:’ (कैवल्य० १।२)—त्यागसे ही मुक्तिका होना शास्त्र बतलाता है, यदि त्यागमें यह स्वतन्त्रता न होगी तो मुक्ति कैसे होगी।

हाँ, यह बात अवश्य है कि पापकर्मका फल जो दु:खभोग है, उसका त्याग करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। परन्तु प्रारब्धरूप पापकर्मका फल भोगनेके लिये नया पापकर्म करना पड़े, यह मानना न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेसे होनेवाला दु:खरूप फल कौन-से पापकर्मका फल है, यह निर्णय होना भी मुश्किल हो जायगा और पापकर्मोंमें अनवस्थाका दोष आवेगा। संसारमें भी देखा जाता है कि कोई राजा चोरी, जारी आदि बुरे कर्मोंका फल यह नहीं देता कि ऐसा करनेवाला राजाज्ञाके विरुद्ध कर्म फिर करे, बल्कि फिर कभी वह राजाज्ञाका उल्लंघन न करे इसके लिये उसे दण्ड देता है।

प्र०-तब स्वेच्छापूर्वक प्रारब्धकर्मका फलभोग किस प्रकार होता है?

उ०-स्वेच्छासे न्याययुक्त चेष्टा करते हुए जो उसका परिणामस्वरूप सुखभोग होता है, वह प्रारब्धरूप पुण्यकर्मका फल है और जो दु:खभोग होता है वह प्रारब्धरूप पापकर्मका फल है। जैसे अपनी धर्मपत्नीके साथ न्यायपूर्वक रतिसुखभोग, स्ववर्णोचित न्याययुक्त वृत्तिद्वारा धनलाभ होना, उससे न्यायपूर्वक भोगोंका भोगना, न्यायपूर्वक चेष्टासे पुत्रादिका उत्पन्न होना एवं न्यायपूर्वक व्यवहार करते हुए भी धनादिकी हानि, अपने या स्त्री पुत्रादिके शरीरमें बीमारी होनेपर न्याययुक्त उपाय करते हुए भी आराम न होना बल्कि उलटा परिणाम हो जाना इत्यादि अनेक प्रकारसे स्वेच्छापूर्वक प्रारब्धकर्मका फलभोग होता है।

इसलिये प्रारब्धकर्मका फल भोगनेके लिये पापकर्म करना अवश्यम्भावी नहीं है, चेष्टा करनेसे मनुष्य पापोंसे बच सकता है। ऐसा होते हुए भी जो लोग धनोपार्जन या स्त्रीभोगादिके लोभसे पापाचरण करते हैं, वे राग-द्वेषादि अवगुणोंके वशीभूत होकर भारी भूल करते हैं। सुखभोगके अनुसार उनके पुण्यका क्षय होगा और पापकर्मका फल आगे जाकर अवश्य भोगना पड़ेगा और अन्यायाचारकी चेष्टा करनेसे भी बिना प्रारब्धके सुख नहीं मिलेगा। यह सोचकर भी मनुष्यको उचित है कि भोगोंके लोभसे पापाचरण न करे।

इसके सिवा उन विद्वानोंका यह भी कहना है कि अनिच्छापूर्वक प्रारब्धभोगके लिये भी मनुष्यको अपनी इच्छा न रहते हुए भी पापाचार करना पड़ता है; इसकी पुष्टिमें वे गीताके इन श्लोकोंका प्रमाण देते हैं—

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥
(३।३६)

‘हे कृष्ण! यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए-की भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?’

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(३।३७)

(इस प्रकार अर्जुनके पूछनेपर श्रीकृष्ण महाराज बोले—)‘हे अर्जुन! रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषयमें वैरी जान।’

किन्तु ऐसा सिद्धान्त मानकर गीताद्वारा उसका समर्थन करना गीताका दुरुपयोग करना और लोगोंको भ्रममें डालना है, क्योंकि यहाँ अर्जुनका प्रश्न अनिच्छा प्रारब्धभोगके विषयमें नहीं है, क्रियमाण पापकर्मके विषयमें है। अर्जुनके प्रश्नका भाव यह है कि भगवान् मनुष्यसे पापकर्म कराना नहीं चाहते, फिर भी उसके द्वारा पापकर्म होते हैं, मानो कोई जबरन् उनसे ऐसा कराता है, तो इसमें कारण क्या है?

उसके उत्तरमें भगवान् नवीन क्रियमाण पापकर्मोंके होनेमें न तो ईश्वरको कारण बताते हैं और न प्रारब्धको ही कारण मानते हैं। वे तो स्पष्ट शब्दोंमें कहते हैं कि ‘हे अर्जुन! काम और उसीका दूसरा रूप क्रोध, जो मनुष्यके ज्ञान और विज्ञानके नाशक प्रबल शत्रु तथा नरकके द्वाररूप हैं, यही नवीन पापकर्ममें हेतु हैं। अत: इन्द्रियोंको वशमें करके तू इनका नाश कर।’

यदि काम-क्रोध भी प्रारब्धके ही परिणाम होते तो भगवान् उन्हें नाश करनेकी बात कैसे कहते? क्योंकि प्रारब्ध तो अवश्यम्भावी है। अत: यह प्रसंग अनिच्छाप्रारब्ध-भोगविषयक नहीं है, क्रियमाण-कर्मविषयक है। उसका दुरुपयोग करना लोगोंको भ्रममें डालना है।

प्र०—तब फिर अनिच्छासे प्रारब्धकर्मका भोग कैसे हो सकता है?

उ०—अनिच्छासे यानी किसी दैवी घटनासे, अपने-आप, अपनी या दूसरेकी इच्छाके बिना ही जो सुख और दु:खोंका भोग होता है वह अनिच्छापूर्वक प्रारब्ध भोग है; जैसे बिजली गिरनेसे लोग मर जाते हैं, धन और मकानकी हानि हो जाती है। इसी प्रकार जलकी बाढ़से, भूकम्पसे, रोगसे या अन्य किन्हीं कारणोंसे शरीर, धन, स्त्री, पुत्र आदिका वियोग हो जाना, अथवा धनादि सुख-भोगोंका प्राप्त हो जाना इत्यादि अनेक भोग हुआ करते हैं। ये सभी अनिच्छापूर्वक प्रारब्धभोग हैं। इनमें अन्यथा कल्पना करके उनमें पापाचारका समावेश कर देना लोगोंको धोखेमें डालना है।

प्र०—तो परेच्छापूर्वक प्रारब्धभोगका क्या स्वरूप है?

उ०—इसी तरह दूसरोंकी इच्छा और प्रयत्नसे जो मनुष्यको सुख और दु:खोंका भोग प्राप्त होता है, वह परेच्छापूर्वक प्रारब्ध-कर्मका भोग है; जैसे चोर, डाकू आदिके द्वारा धनहरण, मृत्यु या स्त्री पुत्रादिका नाश या अन्य किसी प्रकारकी हानिका होना इत्यादि।

यदि किसीको दत्तक पुत्र बना लेनेके नाते कोई धन देता है, तो ऐसे पुत्रको उस धनका मिलना; कोई स्त्री न्यायपूर्वक किसीको अपना पति बनाती है, तो ऐसे पतिको स्त्रीका मिलना, कोई अपने जामाता या बेटी आदिको जो धन देते हैं, ऐसी हालतमें उन जामाता, बेटी आदिको धनका मिलना—ये सब परेच्छापूर्वक प्रारब्धभोगके उदाहरण हैं।

अत: स्वेच्छा, अनिच्छा और परेच्छापूर्वक प्रारब्धकर्म-फलभोगकी अन्यथा कल्पना करके प्रारब्धकर्मका फल भोगनेके लिये पापकर्मोंका अवश्यम्भावी होना मानना या ज्ञान होनेके उपरान्त भी ज्ञानीके अन्त:करणमें राग-द्वेष, काम-क्रोधादि अवगुणोंका होना स्वीकार करना सर्वथा शास्त्रविरुद्ध, न्यायविरुद्ध और भ्रमपूर्ण है।

मनका धर्म मनन करना और बुद्धिका धर्म निश्चय करना होते हुए भी इस रहस्यको न जाननेके कारण ही काम-क्रोध, राग-द्वेष, सुख-दु:ख, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंको लोग अन्त:करणके धर्म बतलाते हैं। किन्तु ये अन्त:करणके धर्म नहीं, विकार हैं। भगवान् ने भी इनको गीतामें विकार माना है—

इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति:।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥
(१३। ६)

‘इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख और स्थूल देहका पिण्ड एवं चेतनता१ और धृति, इस प्रकार यह क्षेत्र विकारोंके सहित२ संक्षेपसे कहा गया।’

१-शरीर और अन्त:करणकी एक प्रकारकी चेतनशक्ति।
२-पाँचवें श्लोकमें कहा हुआ तो क्षेत्रका स्वरूप समझना चाहिये और इस श्लोकमें कहे हुए इच्छादि क्षेत्रके विकार समझने चाहिये।

इनको अन्त:करणके धर्म माननेसे, जबतक अन्त:करण रहेगा तबतक इनका नाश नहीं होगा और विकार माननेसे नाश हो सकता है। तत्त्ववेत्ता पुरुषोंमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदिका अत्यन्त अभाव बतलाया है, इसलिये भी ये विकार ही सिद्ध होते हैं।

ज्ञानोत्तरकालमें ज्ञानीके मन-बुद्धि भी भुने हुए बीजके समान रह जाते हैं। फिर भला, उनमें काम-क्रोधादि विकारोंके लिये गुंजाइश कहाँ? काम-क्रोधादि तो आसुरी सम्पदावालोंमें होते हैं और वे नरकके द्वार माने गये हैं (गीता १६। २१); ये आत्माके पतन करनेवाले हैं। इसीलिये कल्याणकामी मनुष्यको इनसे मुक्त होनेके लिये भगवान् कहते हैं और सिद्धमें तो ये हो ही नहीं सकते।

भगवान् ने कहा है—

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥
(गीता ५। २६)

‘काम-क्रोधसे रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषोंके लिये सब ओरसे शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं।’

निर्मानमोहा जितसंगदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता:सुखदु:खसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्॥
(गीता १५। ५)

‘जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोषको जीत लिया है, जिनकी परमात्माके स्वरूपमें नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्णरूपसे नष्ट हो गयी हैं—वे सुख-दु:खनामक द्वन्द्वोंसे विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं।’

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