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भगवत्प्राप्तिके चार साधनोंकी सुगमताका रहस्य

ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि साधन करनेके विषयमें उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, योगदर्शन, श्रीमद्भागवत और गीता आदि शास्त्रोंको देखनेपर अधिकांश मनुष्योंको चित्तमें अनेक प्रकारकी शंकाएँ उठा करती हैं और किसी-किसीके चित्तमें तो किंकर्तव्यविमूढ़ताका-सा भाव आ जाता है।

उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रको देखकर जब वेदान्तके सिद्धान्तके अनुसार साधक जगत् को स्वप्नवत् समझता हुआ सम्पूर्ण संकल्पोंका यानी स्फुरणामात्रका और जिन वृत्तियोंसे संसारके चित्रोंका अभाव किया, उनका भी त्याग करके केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभेदरूपसे नित्य-निरन्तर स्थित रहनेका अभ्यास करता है, तब आलस्यके कारण चित्तकी वृत्तियाँ मायामें विलीन हो जाती हैं और साधक कृतकार्य नहीं होने पाता। ऐसी अवस्थामें विचारवान् पुरुष भी चिन्तातुर-सा हो जाता है। बहुत-से जो इस तत्त्वको नहीं जानते हैं वे तो इस लय-अवस्थाको ही समाधि समझकर अपनी ब्रह्ममें स्थिति मान बैठते हैं। उस सुषुप्तिका जो तामस सुख है उसको ही वे ब्रह्मप्राप्तिका सुख मानकर गाढ़ निद्रामें अधिक सोना ही पसंद करते हैं। जो इस प्रकार भ्रमसे निद्रासुखको मानते हुए विशेष समय सोनेमें ही बिता देते हैं, अज्ञानके कारण उनका जीवन नष्टप्राय हो जाता है। किन्तु जो विवेकशील इस निद्राके सुखको तामस सुख मानते हुए इस लयदोषसे अपनेको बचाना चाहते हैं, वे भी बलात् आलस्य और निद्राके शिकार बन जाते हैं। अतएव इनको क्या करना कर्तव्य है?

जब साधक योगदर्शनके अनुसार एकान्तमें बैठकर ध्यानयोगद्वारा चित्तकी वृत्तियोंके निरोधरूप समाधि लगानेकी चेष्टा करता है तब विक्षेप और आलस्यदोषके कारण चित्त उकता जाता है। उनमें भी आलस्य तो इतना घेर लेता है कि साधक तंग आ जाता है। आलस्यमें स्वाभाविक ही आराम प्रतीत होता है, इससे साधकका स्वभाव तामसी बनकर उसे साधनसे गिरा देता है बुद्धि और विवेकद्वारा आलस्यको हटानेके लिये साधक अनेक प्रकारसे प्रयत्न करता है। भोजन भी सात्त्विक और अल्प करता है। आसन लगाकर भी बैठता है। विशेष शारीरिक परिश्रम भी नहीं करता। रोगनिवृत्तिकी भी चेष्टा करता रहता है। समयपर सोनेकी चेष्टा रखता है। इस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी मनुष्यको आलस्य दबा लेता है। इसलिये साधक कृतकार्य हो नहीं पाता और किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो जाया करता है। ऐसी अवस्थामें उसे क्या करना चाहिये?

कितने ही जो श्रीमद्भागवतमें बतायी हुई नवधा भक्तिके अनुसार जप, स्तुति, प्रार्थना, ध्यान, सेवा-पूजा, नमस्कार आदि करते हुए अपने समयको बिताते हैं, उन लोगोंको भी जैसा आनन्द आना चाहिये वैसा आनन्द नहीं आता और उनका चित्त साधनसे ऊब जाता है। तथा अकर्मण्यता बढ़ जाती है। एवं कितने ही लोग भगवान् की रासलीलाको देखकर प्रसन्न होते हैं; किन्तु उनमें भी झूठ, कपट, हँसी, मजाक, विलासिता आदि दोष देखनेमें आ जाते हैं।

दूसरे जो गीतोक्त भक्तियुक्त कर्मयोगकी दृष्टिसे अपनी बुद्धिके अनुसार स्वार्थ, आराम और आसक्तिको त्यागकर लोकोपकारकी बुद्धिसे लोकसेवारूप निष्काम कर्मका साधन करते हैं, उनके चित्तमें भी अनेक प्रकारकी स्फुरणाएँ और विक्षेप होते हैं, इससे उनको बड़ा झंझट-सा प्रतीत होने लगता है और भगवत्स्मृति भी काम करते हुए निरन्तर नहीं होती, अत: उनके चित्तमें उकताहट पैदा हो जाती है। न कर्मयोगकी सिद्धि होती है और न काम करते हुए भजन-ध्यानरूप ईश्वरभक्ति ही बनती है; इसलिये वे तंग आकर यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि उस लोकोपकाररूप शुभ कर्मोंको स्वरूपसे ही छोड़नेकी इच्छा करने लगते हैं। जब एकान्तमें जाकर ध्यान करने बैठते हैं तब आलस्य आने लगता है, इसलिये वे भी किंकर्तव्यविमूढ़-से हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितिमें कैसे क्या करना चाहिये?

इसी प्रकार परमात्माकी प्राप्तिके और भी जितने साधन शास्त्रोंमें बतलाये हैं तथा महात्मालोग बतलाते हैं उन सभी साधनोंको करनेवाले साधकोंको कार्यकी सिद्धि कठिन-सी प्रतीत होती है। किन्तु बहुत-से महात्मा और शास्त्र साधनोंको सहज और सुगम बतलाते हैं एवं उनका परिणाम भी सर्वोत्तम बतलाते हैं तथा विचारनेपर युक्तियोंसे भी यह बात ऐसी ही समझमें आती है। फिर भी उपर्युक्त साधन उन्हें सुगम क्यों नहीं प्रतीत होते तथा सभी पुरुष प्रयत्न क्यों नहीं करते; क्योंकि सभी क्लेश, कर्म और दु:खोंसे रहित होकर सुख-शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं। फिर वे कृतकार्य नहीं होते—इसका क्या कारण है? ऐसे-ऐसे बहुत-से प्रश्न साधकोंकी ओरसे आते हैं; अत: इनपर कुछ विचार किया जाता है।

देहाभिमान रहनेके कारण तो ज्ञानयोगमें और आलस्यके कारण ध्यानयोगमें तथा तत्त्व और रहस्यको न जाननेके कारण भक्तियोगमें एवं स्वार्थ-बुद्धि होनेके कारण कर्मयोगमें कठिनता प्रतीत होती है, पर वास्तवमें कठिनता नहीं है।

परमात्माकी प्राप्तिके सभी साधन सुगम होनेपर भी सुगम माननेसे सुगम हैं और दुर्गम माननेसे दुर्गम हैं। श्रद्धापूर्वक तत्त्व और रहस्य समझकर साधन करनेसे सभी साधन सुगम हो सकते हैं। इनमें भी भक्तिसहित कर्मयोग या केवल भगवान् की भक्ति सबके लिये बहुत ही सुगम है।

किन्तु प्राय: सभी मनुष्य अज्ञानके कारण आलस्य, भोग और प्रमादके वशीभूत हो रहे हैं। इसलिये परमात्माकी प्राप्तिके साधनोंके तत्त्व, रहस्य और प्रभावको नहीं जानते। अत: उन्हें ये सब कठिन प्रतीत होते हैं तथा इसी कारण उनमें श्रद्धा और प्रेमकी कमी रहती है और इसीसे सभी लोग साधनमें नहीं लगते।

शास्त्रोंमें जो अनेक उपाय बतलाये हैं वे अधिकारीके भेदसे सभी ठीक हैं; किन्तु इस तत्त्वको न जाननेके कारण साधक कभी किसी साधनमें लग जाता है और कभी किसीमें। बहुत-से तो इस हेतुसे कृतकार्य नहीं होते और बहुत-से अपनेको क्या करना कर्तव्य है इस बातको न समझकर अपनी योग्यताके विपरीत साधनका आरम्भ कर देते हैं—इस कारण भी कृतकार्य नहीं होते और कितने ही विवेकी पुरुष अपनी योग्यताके अनुसार कार्य करते हुए भी उसका तत्त्व और रहस्य न जाननेके कारण अहंता, ममता, अज्ञान, राग-द्वेष, संशय, भ्रम, अश्रद्धा आदि स्वभावदोष तथा पूर्वसंचित पाप और कुसंगके कारण शीघ्र कृतकार्य नहीं होने पाते। इसलिये उन पुरुषोंको महात्माओंका संग करके उपर्युक्त ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदिका तत्त्व-रहस्य समझकर अपनी रुचि और अधिकारके अनुसार महात्माके बतलाये हुए किसी एक साधनको विवेक, वैराग्य और धैर्ययुक्त बुद्धिसे आजीवन करनेका निश्चय करके उसी साधनके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक साधन करनेसे साधकके सम्पूर्ण दुर्गुणोंका, पापोंका और दु:खोंका मूलसहित नाश हो जाता है। एवं वह कृतकृत्य होकर सदाके लिये परमानन्द और परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

ज्ञानयोगका साधन देहाभिमानसे रहित होकर करना चाहिये। सच्चिदानन्द परमात्मामें अभेदरूपसे स्थित होकर व्यवहारकालमें तो सम्पूर्ण दृश्यवर्गको ‘गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं अर्थात् इन्द्रियाँ अपने अर्थोंमें बर्त रही हैं’—ऐसा मानकर उन सारे पदार्थोंको मृगतृष्णाके जल या स्वप्नके सदृश अनित्य समझना चाहिये। और ध्यानकालमें वृत्तियोंसहित सम्पूर्ण पदार्थोंके संकल्पोंका त्याग करके केवल एक नित्य विज्ञानरूप परमात्मामें ही अभेदरूपसे स्थित होना चाहिये। ऐसी अवस्थामें चिन्मय (विज्ञानमय)का लक्ष्य न रहनेके कारण स्वाभाविक आलस्यदोषसे लयवृत्ति हो जाती है अर्थात् मनुष्यकी तन्द्रा-अवस्था हो जाती है। इसलिये ध्यानावस्थामें केवल ज्ञानकी दीप्ति यानी चेतनताकी बहुलता रहना अत्यावश्यक है। क्योंकि जहाँ ज्ञान है, वहाँ अज्ञान और अज्ञानके कार्यरूप निद्रा, आलस्य और लय आदि दोषोंका रहना सम्भव नहीं। इस रहस्यको जाननेवाले वेदान्तमार्गी विवेकी पुरुष निद्रा और आलस्यके शिकार न बनकर कृतकृत्य हो जाते हैं।

पातंजलयोगदर्शनके अनुसार साधन करनेवालोंको भी आत्मसाक्षात्कारके लिये केवल चितिशक्ति अर्थात् गुणोंसे रहित केवल चेतनका ही ध्यान रखना चाहिये। इस प्रकार जहाँ केवल चेतनका ही लक्ष्य रहता है वहाँ जैसे सूर्यके पास अन्धकार नहीं आ सकता वैसे ही उनके पास भी निद्रा-आलस्य नहीं आ सकते। अतएव इनको भी युक्त आहार, निद्रा और आसन आदिका पालन करते हुए विशेषरूपसे विज्ञानमय चेतनताकी तरफ ही लक्ष्य रखना चाहिये। इस प्रकार उस शुद्ध निरतिशय ज्ञानमय परमेश्वरके स्वरूपका ध्यान करनेसे सम्पूर्ण विघ्नोंका नाश हो जाता है साधक कृतार्थ हो जाता है।

परमेश्वर और उसकी प्राप्तिके साधनोंमें श्रद्धा और प्रेमकी कमी होनेके कारण ही साधन करनेमें उत्साह नहीं होता। आरामतलब स्वभावके कारण आलस्य और अकर्मण्यता बढ़ जाती है इसीसे उन्हें परम शान्ति और परमानन्दकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिये श्रीमद्भागवतमें बतलायी हुई नवधा भक्तिका तत्त्व-रहस्य महापुरुषोंसे समझकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक तत्परताके साथ भक्तिका साधन करना चाहिये।

भगवान् के रासका विषय तो अत्यन्त ही गहन है। भगवान् और भगवान् की क्रीडा दिव्य, अलौकिक, पवित्र, प्रेममय और मधुर है। जो माधुर्यरसके रहस्यको जानता है, वही उससे लाभ उठा सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण और गोपियोंकी जो असली रासक्रीडा थी, उसको तो जाननेवाले ही संसारमें बहुत कम हैं। उनकी वह क्रीडा अति पवित्र, अलौकिक और अमृतमय थी। वर्तमानमें होनेवाले रासमें तो बहुत-सी कल्पित बातें भी आ जाती हैं तथा अधिकांशमें रास करनेवाले आर्थिक दृष्टिसे ही करते हैं। उनका उद्देश्य दर्शकोंको प्रसन्न करना ही रहता है। इसलिये दर्शकोंके चित्तपर यह असर पड़ता है कि भगवान् भी ये सब आचरण किया करते थे तथा यह बात स्वाभाविक ही है कि साधक जो इष्टमें देखता है, वह बात उसमें भी आ जाती है। भगवान् के तत्त्व और रहस्यको न जाननेके कारण उनकी प्रेममय लीला काममय दीखने लगती है और निर्दोष बात दोषयुक्त प्रतीत होने लगती है। इस कारण ही देखनेवाले किसी-किसी स्त्री-पुरुष और बालकोंमें झूठ, कपट, हँसी, मजाक, विलासिता आदि दोष आ जाते हैं। अत: सर्वसाधारणको तो भागवतमें बतलायी हुई नवधा भक्तिका* साधन ही करना चाहिये।

* श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(श्रीमद्भा० ७। ५। २३)
१. भगवान् के नाम और गुणोंका श्रवण, २. कीर्तन, ३. भगवान् का स्मरण, ४. भगवान् के चरणोंकी सेवा, ५. भगवद् विग्रहका पूजन, ६. भगवान् को प्रणाम करना, ७. अपनेको भगवान् का दास समझकर उनकी सेवामें तत्पर रहना, ८. अपनेको भगवान् का सखा मानकर उनसे प्रेम करना और ९. भगवान् को आत्मसमर्पण करना—यही नौ प्रकारकी भक्ति है।

जिन्हें माधुर्य रसवाली प्रेमलक्षणा भक्तिकी ही इच्छा हो उनको भी प्रथम नवधा भक्तिका अभ्यास करना चाहिये; क्योंकि बिना नवधा भक्तिका अभ्यास किये वह साधक प्रेमलक्षणा भक्तिका सच्चा पात्र नहीं बन सकता और उस प्रेमलक्षणा भक्तिका रहस्य भगवत्प्राप्त पुरुष ही बतला सकते हैं। इसलिये उस प्रेमलक्षणा भक्तिके जिज्ञासुओंको उन महापुरुषोंके संग और सेवाद्वारा उसका तत्त्व और रहस्य समझकर उसका साधन करना चाहिये।

गीतोक्त भक्तियुक्त कर्मयोगके साधकोंको तो भगवान् पर ही भरोसा रखकर सारी चेष्टाएँ करनी चाहिये। सब समय भगवान् को याद रखते हुए ही भगवान् में प्रेम होनेके उद्देश्यसे भगवान् की आज्ञाके अनुसार ही सारे कर्म करने चाहिये। अथवा अपनी बागडोर भगवान् के हाथमें सौंप देनी चाहिये, जिस प्रकार भगवान् करवावें वैसे ही कठपुतलीकी भाँति कर्म करे। इस प्रकार जो अपने आपको भगवान् के हाथमें सौंप देता है उसके द्वारा शास्त्रनिषिद्ध कर्म तो हो ही नहीं सकते। यदि शास्त्रविरुद्ध किंचिन्मात्र भी कर्म होता है तो समझना चाहिये कि हमारी बागडोर भगवान् के हाथमें नहीं है, कामके हाथमें है; क्योंकि अर्जुनके इस प्रकार पूछनेपर—

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥
(गीता ३।३६)

‘हे कृष्ण! यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?’ स्वयं भगवान् ने कहा—

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(गीता ३।३७)

‘हे अर्जुन! रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषयमें वैरी जान।’

इसके अतिरिक्त शास्त्रानुकूल कर्मोंमें भी उससे काम्य कर्म नहीं होते। यज्ञ, दान, तप और सेवा आदि सम्पूर्ण कर्म केवल निष्काम भावसे हुआ करते हैं। भगवदर्थ या भगवदर्पण कर्म करनेवाले पुरुषके द्वारा दृढ़ अभ्यास होनेपर भगवत्स्मृति होते हुए ही सारे कर्म होने लगते हैं। तभी तो भगवान् ने कहा है—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(गीता ८।७)

‘इसलिये हे अर्जुन! तू सब कालमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।’

अतएव हमलोगोंको भी इसी प्रकार अभ्यास डालना चाहिये। भगवदर्थ या भगवदर्पण कर्म तो साक्षात् भगवान् की ही सेवा है। यह रहस्य समझनेके बाद उसे प्रत्येक क्रियामें प्रसन्नता और शान्ति ही मिलनी चाहिये। क्या पतिव्रता स्त्रीको कभी पतिके अर्थ या पतिके अर्पण किये हुए कर्मोंमें झंझट प्रतीत होता है? यदि होता है तो वह पतिव्रता कहाँ? कोई स्त्री पतिके नामका जप और स्वरूपका ध्यान तो करती है; किन्तु पतिकी सेवाको झंझट समझकर उससे जी चुराती है, वह क्या कभी पतिव्रता कही जा सकती है? वह तो पतिव्रतधर्मको ही नहीं जानती। जो सच्ची पतिव्रता स्त्री होती है वह तो पतिको अपने हृदयमें रखती हुई ही पतिके आज्ञानुसार उसकी सेवा करती हुई हर समय पतिप्रेममें प्रसन्न रहती है। पतिकी प्रत्येक आज्ञाके पालनमें उसकी प्रसन्नता और शान्तिका ठिकाना नहीं रहता। फिर साक्षात् परमेश्वर-जैसे पतिकी आज्ञाके पालनमें कितनी प्रसन्नता और शान्ति होनी चाहिये। अतएव जिन्हें भगवदर्थ या भगवदर्पण कर्मोंमें झंझट प्रतीत होता है। वे न कर्मोंके, न भक्तिके और न भगवान् के ही तत्त्वको जानते हैं।

एक राजाका चपरासी राजाकी आज्ञाके अनुसार किसी भी राजकार्यको करता है तो उसे हर समय यह खयाल रहता है कि मैं राजाका कर्मचारी हूँ—राजाका चपरासी हूँ। फिर भगवान् की आज्ञाके अनुसार भगवत् -कार्य करनेवाले भगवद्भक्तको हर समय यह भाव क्यों नहीं रहना चाहिये कि मैं भगवान् का सेवक हूँ।

जो भगवत्कार्य करते हुए भगवान् को भूल जाते हैं वे खास करके सभी कार्योंको भगवान् के कार्य नहीं मानते, अपना कार्य मानने लग जाते हैं। इसी कारण वे भगवान् के नाम और रूपको भूल जाते हैं। अतएव साधकोंको दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिये कि सारे संसारके पदार्थ भगवान् के ही हैं। जैसे कोई भृत्य अपने स्वामीका कार्य करता है तो यही समझता है कि यह स्वामीका ही है, मेरा नहीं; अर्थात् स्वामीकी नौकरी करनेवाले उस भृत्यका क्रियाओंमें, उनके फलमें एवं पदार्थोंमें सदा सर्वदा यही निश्चय रहता है कि ये सब स्वामीके ही हैं। उसी प्रकार साधकको भी सम्पूर्ण पदार्थोंको, क्रियाओंको और अपने आपको परमात्माकी ही वस्तु समझनी चाहिये। साधारण स्वामीकी अपेक्षा परमात्मामें यह और विशेषता है कि परमात्मा प्रत्येक क्रिया और पदार्थोंमें व्याप्त होकर स्वयं स्थित है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ और क्रियामें स्वामीका जो निश्चय और स्मरण है वह स्वामीका भजन ही है। इसलिये उपर्युक्त तत्त्वको जाननेवाले पुरुषको उस परमात्माकी विस्मृति होना सम्भव नहीं। यदि स्मृति निरन्तर नहीं होती तो समझना चाहिये कि वह तत्त्वको यथार्थरूपसे नहीं जानता। अतएव हमलोगोंको सम्पूर्ण संसारके रचयिता लीलामय परमात्माको सर्वदा और सर्वत्र व्याप्त समझते हुए उसकी आज्ञाके अनुसार उसके लिये ही कर्म करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकारका अभ्यास करते-करते परमात्माका तत्त्व और रहस्य जान लेनेपर न तो कर्मोंमें उकताहट ही होगी और न भगवान् की विस्मृति ही होगी, बल्कि भगवत्-स्मरण और भगवदाज्ञाके पालनसे प्रत्येक क्रिया करते हुए शरीरमें प्रेमजनित रोमांच होगा और पद-पदपर अत्यन्त प्रसन्नता और परम शान्तिका अनुभव होता रहेगा।

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