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भगवत्प्राप्तिके कुछ साधन

मनुष्यजन्म सबसे उत्तम एवं अत्यन्त दुर्लभ और भगवान् की विशेष कृपाका फल है। ऐसे अमूल्य जीवनको पाकर जो मनुष्य आलस्य, भोग, प्रमाद और दुराचारमें अपना समय बिता देता है वह महान् मूढ़ है। उसको घोर पश्चात्ताप करना पड़ेगा।

छ: घंटेसे अधिक सोना एवं भजन, ध्यान, सत्संग आदि शुभकर्मोंमें ऊँघना आलस्य है।

करनेयोग्य कार्यकी अवहेलना करना एवं इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरसे व्यर्थ चेष्टा करना प्रमाद है। शौक, स्वाद और आरामकी बुद्धिसे इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करना भोग है।

झूठ, कपट, हिंसा, चोरी, जारी आदि शास्त्रविपरीत आचरणोंका नाम दुराचार (पाप) है।

अपने हितकी इच्छा करनेवाले मनुष्यको इन सब दोषोंको मृत्युके समान समझकर सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।

क्लेश, कर्म और सारे दु:खोंसे मुक्ति, अपार, अक्षय और सच्चे सुखकी प्राप्ति एवं पूर्णज्ञानका हेतु होनेके कारण यह मनुष्य-शरीर चौरासी लाख योनियोंमें सबसे बढ़कर है। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, मुक्ति और शिक्षाकी प्रणाली सदासे बतलानेवाली होनेके कारण यह भारतभूमि सर्वोत्तम है। सारे मत-मतान्तरोंका उद्गम स्थान, विद्या, शिक्षा और सभ्यताका जन्मदाता तथा स्वार्थत्याग, ईश्वरभक्ति, ज्ञान, क्षमा, दया आदि गुणोंका भण्डार, सत्य, तप, दान और परोपकार आदि सदाचारका सागर और सारे मत मतान्तरोंका आदि और नित्य होनेके कारण वैदिक सनातनधर्म सर्वोत्तम धर्म है। केवल भगवान् के भजन और कीर्तनसे ही अल्पकालमें सहज ही कल्याण करनेवाला होनेके कारण कलियुग सर्वयुगोंमें उत्तम युग है। ऐसे कलिकालमें सर्व वर्ण, आश्रम और जीवोंका पालन-पोषण करनेवाला होनेके कारण सर्व आश्रमोंमें गृहस्थाश्रम उत्तम है। यह सब कुछ प्राप्त होनेपर भी जिसने अपना आत्मोद्धार नहीं किया वह महान् पामर एवं मनुष्यरूपमें पशुके समान ही है। उपर्युक्त सारे संयोग ईश्वरकी अहैतुकी और अपार दयासे ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि जीवोंकी संख्याके अनुसार यदि बारीका हिसाब लगाकर देखा जाय तो इस जीवको पुन: मनुष्यका शरीर लाखों, करोड़ों वर्षोंके बाद भी शायद ही मिले। वर्तमानमें मनुष्योंके आचरणोंकी ओर ध्यान देकर देखा जाय तो भी ऐसी ही बात प्रतीत होती है। प्रथम तो मनुष्यका शरीर ही मिलना कठिन है और यदि वह मिल जाय तो भी भारतभूमिमें जन्म होना, कलियुगमें होना तथा वैदिक सनातनधर्म प्राप्त होना दुर्लभ है। इससे भी दुर्लभतर शास्त्रोंके तत्त्व और रहस्यके बतलानेवाले पुरुषोंका संग है। इसलिये जिन पुरुषोंको उपर्युक्त संयोग प्राप्त हो गये हैं, वे यदि परम शान्ति और परम आनन्ददायक परमात्माकी प्राप्तिसे वंचित रहें तो इससे बढ़कर उनकी मूढ़ता क्या होगी। ऐसे क्षणिक, अल्पायु, अनित्य और दुर्लभ शरीरको पाकर जो अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताते, जिनका तन, मन, धन, जन और सारा समय केवल सब लोगोंके कल्याणके लिये ही व्यतीत होता है वे ही जन धन्य हैं। वे देवताओंके लिये भी पूजनीय हैं। उन्हीं बुद्धिमानोंका जन्म सफल और धन्य है।

प्रथम तो जीवन है ही अल्प और जितना है वह भी अनिश्चित है। न मालूम मृत्यु कब आकर हमें मार दे। यदि आज ही मृत्यु आ जाय तो हमारे पास क्या साधन है जिससे हम उसका प्रतीकार कर सकें। यदि नहीं कर सकते तो अनाथकी तरह मारे जायँगे। इसलिये जबतक देहमें प्राण हैं और मृत्यु दूर है तबतक हमलोगोंको अपना समय ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगाना चाहिये। शरीर और कुटुम्बका पोषण एवं धनका संग्रह भी यदि सबके मंगलके कार्यमें लगे तभी करना चाहिये; यदि ये सब चीज हमें सच्चे सुखकी प्राप्तिमें सहायता नहीं पहुँचातीं तो इनका संग्रह करना मूर्खता नहीं तो और क्या है? देहपातके बाद धन, सम्पत्ति, कुटुम्बकी तो बात ही क्या, हमारी इस सुन्दर देहसे भी हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रह जायगा और हम अपने देह और सम्पत्ति आदिको अपने उद्देश्यके अनुसार अपने और संसारके कल्याणके काममें नहीं लगा सकेंगे। सम्पत्ति तो यहाँ ही रह जायगी और देहकी मिट्टी या राख हो जायगी, अत: वह किसी भी काममें नहीं आवेगी।

सब बातें सोचकर हमको अपनी सब वस्तुएँ ऐसे काममें लगानी चाहिये जिससे हमें पश्चात्ताप न करना पड़े। परम शान्ति, परम आनन्द और परम प्रेमरूप परमात्माकी प्राप्तिके साधनमें ही इस जीवनको बितानेकी तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।

उस परमात्माकी प्राप्तिके लिये शास्त्रोंमें अनेक साधन बतलाये गये हैं। उनमेंसे किसी भी एक साधनको यदि मनुष्य स्वार्थ त्याग कर निष्कामभावसे करे तो सहजमें और शीघ्र ही सफलता मिल सकती है। उन साधनोंमेंसे कुछका वर्णन किया जाता है—

(१) सांख्ययोग

इसके कई प्रकार हैं—

(क) एकान्त और पवित्र स्थानमें सुखपूर्वक स्थिर, सम एवं अपने अनुकूल आसनसे बैठकर भोग, आराम और जीवनकी सम्पूर्ण इच्छाओं एवं वासनाओंको छोड़कर मनके द्वारा इन्द्रियोंको वशमें करके बाहरके सारे विषय-भोगों तथा अन्य पदार्थोंसे इन्द्रियोंको हटाना चाहिये। तदनन्तर मनके द्वारा होनेवाले विषयचिन्तनका भी विवेक और विचारके द्वारा परित्याग कर देना चाहिये। इसके पश्चात् धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको उस विज्ञानानन्दघन परमात्माके ध्यानमें लगाना चाहिये अर्थात् केवल एक नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्माके स्वरूपका ही चिन्तन करना चाहिये। उसके सिवा अन्य किसीका भी चिन्तन नहीं करना चाहिये। अर्थात् शरीर और संसारको इस प्रकार एकदम भुला देना चाहिये कि पुन: इसकी स्मृति हो ही नहीं। यदि पूर्वाभ्यासवश हो जाय तो पुन: उसे विस्मरण कर देना चहिये। इस प्रकार करते-करते जब बहुत कालतक चित्तकी वृत्ति उस परमात्माके स्वरूपमें ठहर जाती है अर्थात् मनमें कोई भी संसारकी स्फुरणा नहीं होती तो उसके सम्पूर्ण पापोंका नाश होकर सुखपूर्वक सहजमें ही नित्य और अतिशय सर्वोत्तम परम आनन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति सदाके लिये हो जाती है। जैसे घड़ेके फूटनेसे घटाकाश और महाकाशकी एकता हो जाती है, यद्यपि घटाकाश और महाकाशकी वस्तुसे नित्य एकता है, केवल घड़ेकी उपाधिसे ही भेद प्रतीत होता है, घड़ेके फूटनेसे प्रतीत होनेवाले भेदका भी सदाके लिये अत्यन्त अभाव हो जाता है, ऐसे ही अज्ञानके कारण संसारके सम्बन्धसे जीवात्मा और परमात्माका भेद प्रतीत होता है। विवेक और विचारके द्वारा संसारके चिन्तनको छोड़कर परमात्माके चिन्तनके अभ्याससे मन और बुद्धिकी वृत्तियाँ परमात्माके स्वरूपमें तन्मय होकर तत्त्वज्ञानद्वारा अज्ञानके कारण प्रतीत होनेवाले जीव और ईश्वरके भेदका सदाके लिये अत्यन्त अभाव हो जाता है अर्थात् साधकको उस विज्ञानानन्दघन परमात्माके स्वरूपकी अभेदरूपसे यानी एकीभावसे सदाके लिये प्राप्ति हो जाती है।

परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद व्युत्थान अवस्थामें भी अर्थात् समाधिसे उठनेके बाद भी यह संसार उस योगीके अन्त:करणमें निद्रासे जाग्रत् हुए पुरुषको स्वप्नके संसारकी भाँति सत्तारहित प्रतीत होता है, अर्थात् एक विज्ञानानन्दघन परमात्माके सिवा अन्य सत्ता वहाँ नहीं रहती।

(ख) संसारमें जो कुछ भी क्रिया हो रही है, वह गुणोंके द्वारा ही हो रही है, अर्थात् इन्द्रियाँ ही अपने-अपने विषयोंमें बरत रही हैं; ऐसा समझकर साधक अपनेको सब प्रकारकी क्रियासे अलग, उन सब क्रियाओंका द्रष्टा समझे। अभी हमलोगोंने इस साढ़े तीन हाथके स्थूल शरीरके साथ अपना तादात्म्य कर रखा है अर्थात् इस शरीरको ही हम अपना स्वरूप समझे हुए हैं। किन्तु इस शरीरसे परे पृथ्वी है, पृथ्वीके परे जल है, जलके परे तेज है, तेजके परे वायु है, वायुके परे आकाश है, आकाशके परे मन है, मनके परे बुद्धि है, बुद्धिके परे समष्टिबुद्धि अर्थात् महत्तत्त्व है। समष्टिबुद्धिके परे अव्याकृत माया है और उसके परे सच्चिदानन्दघन परमात्मा है। मायापर्यन्त यह सब दृश्यवर्ग द्रष्टारूप परमात्माके आधारपर स्थित है, जो इन सबके परे है। उस परमात्मामें एकीभावसे स्थित होकर समष्टिबुद्धिके द्वारा इस सारे दृश्यवर्गको अपने उस अनन्त निराकार चेतन स्वरूपके अन्तर्गत उसीके संकल्पके आधार, क्षणभंगुर देखे। इस प्रकारका निरन्तर अभ्यास करनेसे संसारका सारा व्यवहार करते हुए भी उसको एकीभावसे परमात्माकी प्राप्ति होती है अर्थात् सबका अभाव होकर केवल एक विज्ञानानन्दघन परमात्मा ही शेष रह जाता है। भगवान् ने भी गीतामें कहा है—

नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥
(१४। १९)

‘हे अर्जुन! जिस कालमें द्रष्टा अर्थात् समष्टि चेतनमें एकीभावसे स्थित हुआ साक्षी पुरुष तीनों गुणोंके सिवा अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता है अर्थात् गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं ऐसा देखता है और तीनों गुणोंसे अति परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है उस कालमें वह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।’

(ग) साधक अपने तथा सम्पूर्ण चराचर जगत् के बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे सब ओर एक सर्वव्यापक विज्ञानानन्दघन परमात्माको ही परिपूर्ण देखे और अपने शरीरसहित इस सारे दृश्यप्रपंचको भी परमात्माका ही स्वरूप समझे। जैसे आकाशमें स्थित बादलोंके ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर सब ओर एकमात्र आकाश ही परिपूर्ण हो रहा है और स्वयं बादल भी आकाशसे भिन्न नहीं है, क्योंकि आकाशसे वायु, वायुसे तेज और तेजसे जलकी उत्पत्ति होनेसे जलरूप मेघ भी आकाश ही हैं। इसी प्रकार साधक अपने सहित इस सारे ब्रह्माण्डको सब ओर एकमात्र परमात्मासे ही घिरा हुआ एवं परमात्माका ही स्वरूप समझे। वह परमात्मा ही सबकी आत्मा होनेके कारण निकट-से-निकट एवं दूर-से-दूर है। इस प्रकारका निरन्तर अभ्यास करते रहनेसे केवल एक विज्ञानानन्दघन परमात्माकी ही सत्ता रह जाती है और साधक उस परमात्माको एकीभावसे प्राप्त हो जाता है। गीता कहती है—

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
(१३। १५)

‘वह परमात्मा चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है।’

(घ) सम, अनन्त, नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्माके साथ साधक अपनेको अभिन्न समझकर अर्थात् स्वयं उस परमात्माका स्वरूप बनकर सारे भूतप्राणियोंको अपने संकल्पके आधार एवं अपनेको उन भूतप्राणियोंके अंदर आत्मारूपसे व्याप्त देखे यानी अपनेको सबका आत्मा समझे। जैसे आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी— इन चारों भूतोंका आधार एवं कारण होनेसे ये सब भूत आकाशमें ही स्थित हैं और इन सबमें आत्मरूपसे अनुस्यूत होनेके कारण आकाश इन सबके अंदर भी है, अथवा जैसे स्वप्नका जगत् स्वप्न देखनेवालेके संकल्पके आधार है और वह स्वयं इस जगत् में तद्रूप होकर समाया हुआ है; उसी प्रकार साधक भी चराचर विश्वको अपने संकल्पके आधार और अपनेको उस विश्वके अंदर आत्मरूपसे देखे। ऐसा अभ्यास करनेपर भी साधकको उस नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। गीतामें कहा है—

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(६।२९)

‘हे अर्जुन, सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त हुए आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें बर्फमें जलके सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है।’ अर्थात् जैसे स्वप्नसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नके संसारको अपने अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है, वैसे ही वह पुरुष सम्पूर्ण भूतोंको अपने सर्वव्यापी अनन्त चेतन आत्माके अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है।

(ङ) पवित्र और एकान्त स्थानमें सम, स्थिर और सुखपूर्वक आसनसे बैठकर पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द, शान्त आनन्द, घन आनन्द, अचल आनन्द, ध्रुव आनन्द, नित्य आनन्द, बोधस्वरूप आनन्द, ज्ञानस्वरूप आनन्द—इन शब्दोंके भावका पुन:-पुन: मनके द्वारा मनन करे। इस प्रकार करते-करते मन तद्रूप बन जाता है। तब इन विशेषणोंसे विशिष्ट परमात्माके स्वरूपका निश्चय होकर बुद्धिके द्वारा उसका ध्यान होने लगता है। इस प्रकार ध्यान करते-करते बुद्धि परमात्माकी तद्रूपताको प्राप्त होकर सविकल्प समाधिमें स्थित हो जाती है, जिसमें उस सच्चिदानन्द परमात्माके शब्द, अर्थ और ज्ञानका ही विकल्प रह जाता है, अर्थात् परमात्माके नाम और रूपका ही वहाँ ज्ञान रहता है। इस प्रकार उस साधककी परमात्माके स्वरूपमें दृढ़ निष्ठा होकर फिर उसकी निर्विकल्प स्थिति हो जाती है, जिसमें केवल अर्थमात्र एक नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्माका ही स्वरूप रह जाता है और वह साधक उस परमात्माके परायण हो जाता है अर्थात् परमात्मामें मिल जाता है। उपर्युक्त प्रकारसे साधन करनेवाला पुरुष पापरहित हुआ परमात्माके तत्त्वको जानकर परमगति अर्थात् परमात्माके स्वरूपको प्राप्त हो जाता है।

(२) कर्मयोग

(क) सब कुछ भगवान् का समझकर सिद्धि-असिद्धिमें समत्वभाव रखते हुए आसक्ति और फलकी इच्छाका त्याग करके भगवदाज्ञानुसार केवल भगवान् के ही लिये शास्त्रविहित कर्मोंका आचरण करनेसे तथा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीरसे सब प्रकार भगवान् की शरण होकर नाम, गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूपका निरन्तर चिन्तन करनेसे भगवान् की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है।

(ख) परमात्मा ही सबका कारण एवं सबकी आत्मा होनेसे सारे भूतप्राणी परमात्माके ही स्वरूप हैं, ऐसा समझकर जो मनुष्य भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरोंकी स्वार्थरहित, निष्काम सेवा करता है और ऐसा करनेमें अतिशय प्रसन्नता एवं परम शान्तिका अनुभव करता है, उसे इस प्रकारके साधनसे परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र ही हो जाती है। इस प्रकारकी सेवाके द्वारा परमात्माकी प्राप्तिके अनेकों उदाहरण शास्त्रोंमें मिलते हैं। अभी कुछ ही शताब्दियों पूर्व दक्षिणमें एकनाथजी नामके प्रसिद्ध महात्मा हो चुके हैं। उनके सम्बन्धमें यह इतिहास मिलता है कि वे एक समय गंगोत्रीकी यात्रा करके वहाँका जल काँवरमें भरकर रामेश्वरधामकी ओर जा रहे थे। रास्तेमें बरार प्रान्तमें उन्हें एक ऐसा मैदान मिला, जहाँ जलका बड़ा अभाव था और एक गदहा प्यासके मारे तड़पता हुआ जमीनपर पड़ा था। उसकी प्यास बुझानेके लिये एकनाथजी महाराजने उस जलको, जिसे वे इतनी दूरसे रामेश्वरके शिवलिंगपर चढ़ानेके लिये लाये थे, उस गदहेको भगवान् शंकरका रूप समझकर पिला दिया। इस प्रकार प्रत्येक भूतप्राणीमें परमात्माकी भावना करके उसकी नि:स्वार्थभावसे सेवा करनेसे परमात्माकी प्राप्ति सहज में ही हो जाती है।

(ग) राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, सूर्य, शक्ति या विश्वरूप अथवा केवल ज्योतिरूप आदि किसी भी स्वरूपको सर्वोपरि, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् परम दयालु परमात्माका स्वरूप समझकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादिके द्वारा उनके चित्रपट, प्रतिमा आदिकी अथवा मानसिक* पूजा करनेसे भगवान् प्रकट होकर भक्तको दर्शन देकर कृतार्थ कर देते हैं। गीतामें भी कहा है—

* मानसिक पूजा तथा ध्यानकी विधिके लिये ‘प्रेमभक्तिप्रकाश’ नामक पुस्तक देखनी चाहिये।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(९।२६)

‘हे अर्जुन! (मेरे पूजनमें यह सुगमता भी है कि) जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।’

(घ) भगवान् को ही अपना इष्ट एवं सर्वस्व मानकर प्रेमपूर्वक अनन्यभावसे गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूपका निरन्तर तैलधारावत् चिन्तन करते रहनेसे और इस प्रकार चिन्तन करते हुए ही समस्त लौकिक व्यवहार करनेसे भी भगवान् सहजमें ही प्राप्त हो जाते हैं। प्रेमस्वरूपा परम भक्तिमती गोपियोंके सम्बन्धमें श्रीमद्भागवतमें ऐसा उल्लेख मिलता है कि वे सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते, गाय दुहते, गोबर पाथते, बच्चोंको खिलाते-पिलाते, पतियोंकी सेवा करते, धान कूटते, आँगन लीपते, दही बिलोते, झाड़ू लगाते तथा गृहस्थीके अन्य सब धंधोंको करते हुए हर समय भगवान् श्रीकृष्णका मनसे चिन्तन और वाणीसे गुणानुवाद करती रहती थीं—

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
प्रेंखेंखनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठॺो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयाना:॥
(श्रीमद्भा० १०।४४।१५)

गीतामें भी भगवान् कहते हैं—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(८।७)

‘इसलिये हे अर्जुन तू! सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

(ङ) कठिनसे भी कठिन विपत्ति आनेपर, यहाँतक कि मृत्यु उपस्थित होनेपर भी उस विपत्ति अथवा मृत्युको अपने प्रियतम भगवान् का भेजा हुआ मंगलमय विधानरूप पुरस्कार समझकर उसे प्रसन्नतापूर्वक सादर स्वीकार करनेसे और किंचिन्मात्र भी विचलित न होनेसे तथा उस विपत्ति अथवा मृत्युके रूपमें अपने इष्टदेवका ही दर्शन करते रहनेसे अति शीघ्र भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। जैमिनीयाश्वमेधमें भक्त सुधन्वाकी कथा आती है। उसे जब पिताने उबलते हुए तेलके कड़ाहमें डालनेकी आज्ञा दी तो वह भगवान् को स्मरण करता हुआ सहर्ष उसमें कूद पड़ा; किन्तु तेल उसके शरीरको नहीं जला सका। भक्तशिरोमणि प्रह्लादका चरित्र तो प्रसिद्ध ही है। वे तो अपने पिताके दिये हुए प्रत्येक दण्डमें अपने इष्टदेवका ही दर्शन करते थे, जिससे उन्हें सहजहीमें भगवान् की प्राप्ति हो गयी। इस प्रकार भयंकर-से-भयंकर रूपमें भी अपने प्रियतमका दर्शन करनेवाले भक्तको सहजहीमें भगवान् के वास्तविक स्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है।

(च) राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, सूर्य, शक्ति आदि किसी भी नामको भगवान् का ही नाम समझकर निष्काम प्रेमसहित केवल जप करनेसे भी भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। शास्त्रोंमें नाम और नामीमें अभेद माना गया है और गीतामें भी भगवान् ने नाम-जपको अपना ही स्वरूप बतलाया है—‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि।’ यों तो नामकी सभी युगोंमें महिमा है; परन्तु कलियुगमें तो उसका विशेष महत्त्व है—

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(नारदपु० १।४१।१५)

गोस्वामी तुलसीदासजीने भी कहा है—

कलिजुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहु पारा॥

यह जप वाणीसे, मनसे, श्वाससे, नाड़ीसे कई प्रकारसे हो सकता है। जिस किसी प्रकारसे भी हो; निष्कामभावसे तथा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक करनेसे इससे शीघ्र ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। योगसूत्रमें भी कहा है—

स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग:। (२।४४)

‘स्वाध्याय अर्थात् गुण और नामके कीर्तनसे इष्टदेवताकी प्राप्ति हो जाती है।’

(छ) महान् पुरुषोंका अर्थात् भगवान् को प्राप्त हुए पुरुषोंका श्रद्धा एवं प्रेमपूर्वक संग करनेसे भी संसारके विषयोंसे वैराग्य एवं भगवान् में अनन्य प्रेम होकर भगवान् की प्राप्ति शीघ्र ही हो जाती है। देवर्षि नारदने अपने भक्तिसूत्रमें कहा है—

महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च। (३९)

महान् पुरुषोंका संग बड़ा दुर्लभ है और मिल जानेपर उन्हें पहचानना कठिन है, किन्तु पहचानकर उनका संग करनेसे परमात्मस्वरूप महान् फलकी प्राप्ति अवश्य हो जाती है; क्योंकि महत्पुरुषोंका संग कभी निष्फल नहीं होता। महान् पुरुषोंका संग बिना जाने करनेसे भी वह खाली नहीं जाता क्योंकि वह अमोघ है। योगदर्शनमें तो यहाँतक कहा है कि महत्पुरुषोंके चिन्तनमात्रसे चित्तवृत्तियोंका निरोध होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है—

वीतरागविषयं वा चित्तम्। (१।३७)

(ज) गीतामें कहे हुए उपदेशोंके यथाशक्ति पालन करनेका उद्देश्य रखकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अर्थ एवं भावसहित उसका अध्ययन करनेसे भी भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। भगवान् ने भी स्वयं गीताके अन्तमें कहा है—

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥
(१८। ७०)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनोंके संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा—ऐसा मेरा मत है।’

(झ) सब भूतोंके सुहृद् परमात्माकी अपने ऊपर अहैतुकी दया एवं परम प्रेम समझकर क्षण-क्षणमें उसे याद करके मुग्ध होनेसे मनुष्य परम पवित्र होकर परमात्माको प्राप्त कर लेता है।

(ञ) माता, पिता, आचार्य, महात्मा, पति, स्वामी आदि अपने किसी भी अभीष्ट व्यक्तिमें परमेश्वरबुद्धि करके श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनकी सेवा अथवा ध्यान करनेसे भी चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। योगसूत्रमें भी कहा है—

‘यथाभिमतध्यानाद्वा।’ (१।३९)

इसी प्रकार और भी बहुत-से अन्य उपाय श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण आदि ग्रन्थोंमें बताये गये हैं। ऊपर बताये हुए साधनोंमेंसे जो मनको रुचिकर एवं अनुकूल प्रतीत हो, उस किसी भी एक साधनका अभ्यास करनेसे परम गतिरूप परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है।

यदि कहें कि जिसकी मृत्यु आज ही होनेवाली है, क्या वह भी इस प्रकारसे साधन करके परम कल्याणको प्राप्त हो सकता है? हाँ, यदि प्रेमभावसे भजन-ध्यान तत्परताके साथ मृत्युके क्षणतक निरन्तर किया जाय तो ऐसा हो सकता है। भगवान् के वचन हैं—

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८।५)

‘जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है।’

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’

अन्तमें जो लोग नियमित रूपसे साधन करना चाहते हैं, उनके लिये कुछ थोड़ेसे सामान्य नियम तथा साधन जो अवश्य ही करने चाहिये, नीचे बताये जाते हैं—

प्रात:काल सोकर उठते ही सबसे पहले भगवान् का स्मरण करना चाहिये और फिर शौच-स्नानादि आवश्यक कृत्यसे निवृत्त होकर यथासमय (सूर्योदयसे पूर्व) सन्ध्या तथा गायत्री-मन्त्रका कम-से-कम १०८ जप करे। फिर इनके साथ-साथ गीताके कम-से-कम एक अध्यायका अर्थसहित पाठ तथा षोडश मन्त्रकी १४ माला या अपने इष्टदेवके नामका २२,००० जप प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये। तथा परमात्माके गुणप्रभावसहित अपने इष्टस्वरूपका ध्यान तथा मानसिक पूजा करे। इसके अनन्तर यदि घरमें कोई देवविग्रह हो तो उसका शास्त्रोक्त विधिसे श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन करे, माता-पिता तथा अन्य गुरुजनोंको प्रणाम करे तथा हवन, तर्पण एवं बलिवैश्वदेव करके फिर भगवान् को अर्पण कर और अतिथि-सत्कार करके भोजन करे। इसी प्रकार सायंकालको भी यथासमय (सूर्यास्तसे पूर्व) सन्ध्या और गायत्रीका जप करे तथा प्रात:कालकी भाँति ही नाम जप, ध्यान और मानसिक पूजा करे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—इन तीन वर्णोंको छोड़कर अथवा इनमेंसे भी जिनका उपनयन संस्कार नहीं हुआ हो उन्हें सन्ध्या तथा गायत्री-जप नहीं करना चाहिये।

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