गीतोक्त दिव्यदृष्टि
किसी भाईका प्रश्न है कि श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ११में विश्वरूप दर्शनके लिये अर्जुनको दिव्यदृष्टि प्रदान करनेका प्रसंग आता है, वह दिव्यदृष्टि क्या थी? उसके द्वारा अर्जुनने किस प्रकार विश्वरूपके दर्शन किये? और भगवान् ने जो अपना विराट्स्वरूप अर्जुनको दिखाया वह कैसा था?
वास्तवमें इस प्रश्नका पूरा उत्तर वे ही महापुरुष दे सकते हैं जिनको भगवान् की कृपासे कभी ऐसी दिव्यदृष्टिके द्वारा भगवान् के दिव्य विराट् रूपके दर्शन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, मेरे द्वारा इस विषयमें जो कुछ निवेदन किया जाता है वह तो केवल श्रीमद्भगवद्गीता और दूसरे-दूसरे शास्त्रोंपर विवेचन करनेसे अपनी साधारण बुद्धिसे जो कुछ समझमें आ सका है उसीका प्रदर्शन है।
इस विषयमें लोगोंके भिन्न-भिन्न विचार हैं। कोई कहते हैं कि भगवान् ने उपदेशद्वारा अर्जुनको ऐसा ज्ञान प्रदान कर दिया, जिससे इस सारे विश्वको अर्जुन भगवान् का स्वरूप समझने लगे थे, अत: यहाँ ज्ञानका ही नाम दिव्यदृष्टि है; किसीका कहना है कि भगवान् ने अर्जुनको दूरबीनके-जैसी कोई दृष्टि दे दी होगी, जिससे अर्जुन वहीं खड़े-खड़े सारे विश्वको देख सके होंगे; किसीका कहना है कि जैसे आजकल रेडियोद्वारा बहुत दूर देशका गाना सुनाया जाता है, ऐसे ही भगवान् ने कोई यन्त्र अर्जुनको दिया होगा कि जिससे अर्जुन व्यवधानयुक्त दूर देशमें स्थित वस्तुओंको भी देख सके; इसी तरह अपनी-अपनी समझके अनुसार लोग कल्पना किया करते हैं।
हमें इस विषयको समझनेके लिये श्रीमद्भगवद्गीतामें कहे हुए भगवान्, अर्जुन और संजयके वचनोंपर विशेष ध्यान देना चाहिये, उनपर विचार करनेसे ही यह विषय प्राय: स्पष्ट हो सकता है।
दसवें अध्यायमें अपनी विभूतियोंका वर्णन करनेके बाद, अन्तमें भगवान् ने अर्जुनसे कहा कि तुझे यह सब विस्तार समझनेकी क्या आवश्यकता है, यह सारा विश्व मेरी योगमायाके द्वारा किसी एक अंशमें धारण किया हुआ है (१०।४२)। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ज्ञानद्वारा सारे विश्वको भगवान् के किसी एक अंशमें स्थित देखनेकी बात तो भगवान् पहले ही कह चुके और उसे सुनकर अर्जुनने भी स्वीकार कर लिया कि आप जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्वथा ठीक है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। किंतु उसके बाद भी अर्जुन प्रार्थना करते हैं कि हे पुरुषोत्तम! मैं आपके उस ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजयुक्त दिव्य स्वरूपको प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ (११।३), अत: यदि आप मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य समझते हों तो मुझे उसका दर्शन करावें (११।४)। इससे यह पाया जाता है कि अर्जुनने भगवान् के ऐश्वर्यमय साकार अद्भुत रूपके दर्शन करनेकी प्रार्थना की थी और भगवान् ने भी अपने योगबलसे वैसे ही रूपका अर्जुनको दर्शन कराया था। भगवान् ने स्वयं कहा है कि मेरे इस शरीरमें तू एक ही जगह स्थित, चराचर जीवोंके सहित सारे जगत् को देख और अन्य भी जो कुछ देखनेकी तेरी इच्छा है, वह भी देख (११।७)। भगवान् ने अर्जुनको जिस अद्भुत रूपका दर्शन कराया था, वह इस दृश्य जगत् से भिन्न था, अलौकिक था, भगवान् के शुद्ध सत्त्वसे बना हुआ तेजस्वरूप था, उसके समस्त वस्त्र, आभूषण और शस्त्रादि एवं पुष्पमाला और गन्धलेपन आदि भी दिव्य और अलौकिक थे (११।१०-११)। उस रूपका तेज अपार था, हजारों सूर्य एक साथ उदय होनेपर भी उस रूपके तेजकी बराबरी कर सकें या नहीं, इसमें भी सन्देह था (११।१२)। ऐसा अलौकिक रूप साधारण नेत्रोंद्वारा कैसे देखा जा सके, इसीलिये भगवान् ने अर्जुनको दिव्यदृष्टि प्रदान की (११।८) और उसके द्वारा अर्जुनने भगवान् के रूपका दर्शन किया।
इसलिये यह कहना नहीं बन सकता कि इस दृश्य जगत् को ज्ञानद्वारा भगवान् का स्वरूप समझ लेना ही विश्वरूपका देखना है और ऐसा ज्ञान ही यहाँ दिव्यदृष्टि है।
भगवान् के विराट् रूपको देखकर अर्जुन कहते हैं कि स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका यह सारा आकाश और सब दिशाएँ एकमात्र आपके ही रूपसे व्याप्त हो रहे हैं (गीता ११।२०)। आपके शरीरमें मैं समस्त देवोंको, ब्रह्माको और महादेवको भी देख रहा हूँ (११।१५)। आप अपने तेजसे इस सारे विश्वको तपा रहे हैं, आपकी सामर्थ्य अनन्त है, आपका आदि, मध्य और अन्त नहीं है (११।१९)। कितने ही देवोंके झुंड आपमें प्रवेश कर रहे हैं, कितने ही भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए स्तुति करते हैं, महर्षि और सिद्धोंके समुदाय भी आपकी स्तुति कर रहे हैं (११।२१)। रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य और अश्विनीकुमार आदि सब देव एवं गन्धर्व, यक्ष, राक्षसगण आपको विस्मित होकर देख रहे हैं (११।२२)। आकाशसे संलग्न हुए आपके विकराल रूपको देखकर मेरा धैर्य छूट रहा है, मुझे शान्ति नहीं मिलती है, मैं व्यथित हो रहा हूँ (११।२४)। ये सब राजाओंके सहित धृतराष्ट्रके पुत्र एवं भीष्म, द्रोण और कर्ण तथा हमारी सेनाके भी सब शूरवीर, आपके भयानक मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं और उनमेंसे कितने ही आपके दाँतोंमें चिपके हुए दिखलायी दे रहे हैं, आप उन सबको निगल रहे हैं, आपका उग्र प्रकाश अपने तेजसे सारे जगत् को परिपूर्ण करके तपा रहा है (११।२६,२७,३०)।
इस वर्णनसे यह पाया जाता है कि अर्जुनने भगवान् का विराट् रूप अपने सामने प्रत्यक्ष देखा था एवं उस रूपके अंदर उनको सारा ब्रह्माण्ड और भविष्यमें होनेवाली युद्धविषयक घटना तथा उसका परिणाम दिखलायी दे रहा था। जिस विश्वमें अर्जुन अपनेको खड़े देख रहे थे, वह भगवान् के शरीरमें दिखलायी देनेवाले ब्रह्माण्डसे भिन्न था, क्योंकि उस विराट् रूपसे दृश्य-जगत् के स्वर्ग-लोकसे लेकर पृथ्वीके बीचके आकाशको और सब दिशाओंको व्याप्त देखना, महर्षि और सिद्धोंके समुदायोंको भगवान् के स्वरूपसे बाहर खड़े हुए स्तुति करते देखना, उनके तेजसे सारे विश्वको तपायमान होते देखना, धृतराष्ट्रके पुत्रोंको, द्रोण, भीष्मादि शूरवीरोंको और अपनी सेनाके शूरवीरोंको (जो कि दृश्य-जगत् में प्रत्यक्ष जीवित स्वस्थ खड़े थे) भगवान् के रूपमें मरते हुए देखना—ये सभी बातें तभी सम्भव हो सकती हैं।’
भगवान् के विराट् रूपका दर्शन करते हुए अर्जुनको हर्ष, आश्चर्य, मोह, व्यथा और भय एवं दिग्भ्रम भी एक साथ ही हुए। भगवान् की अनन्त और अलौकिक सामर्थ्यको देखकर, उनको परब्रह्म परमेश्वर समझकर, हर्ष और आश्चर्य हुआ एवं भयानक रूपदर्शनसे मोहके कारण भय, व्यथा और दिग्भ्रमादि हुए। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भगवान् ने उपदेशद्वारा इस दृश्य-जगत् को ही ईश्वरका रूप समझाया हो, ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेसे अर्जुनको भय, व्यथा और दिग्भ्रमादि होनेका कोई कारण नहीं रह जाता।
भगवान् के शरीरमें दीखनेवाला विश्व, इस दृश्य-जगत् का प्रतिबिम्ब भी नहीं था। क्योंकि भगवान् के शरीरमें तो भीष्म, द्रोण आदि शूरवीरोंको और अपनी सेनाके शूरवीरोंको प्रवेश होते हुए और मरते हुए अर्जुन देख रहे हैं और इस दृश्य-जगत् में वे सब जीवित हैं, उनके साथ युद्ध करनेके लिये भगवान् अर्जुनको आज्ञा दे रहे हैं।
इससे यही सिद्ध होता है कि भगवान् ने जिस रूपका अर्जुनको दर्शन कराया था, वह भगवान् का अलौकिक स्वरूप था, भविष्यमें होनेवाली घटनाका परिणाम और अपना ऐश्वर्य दिखलाकर भगवान् ने अर्जुनके विश्वासको दृढ़ किया था।
दूरबीन और रेडियोके सदृश किसी यन्त्रद्वारा दूर देशमें स्थित केवल जड दृश्य, जो दूर देशमें वर्तमान हों, वे ही दिखलाये जा सकते हैं। लोगोंके मनकी बातें और भविष्यमें होनेवाली घटना नहीं दिखलायी जा सकती। अत: इस प्रसंगमें किसी यन्त्रद्वारा विश्वरूप दिखलाये जानेकी कल्पना करना या किसी यन्त्रविशेषको दिव्यदृष्टि समझना भूल है।
किसी प्रकारके उपदेशद्वारा अर्जुनको ऐसा समझाया गया हो कि यह दृश्य-जगत् भगवान् का ही रूप है एवं ऐसे ज्ञानका ही नाम यहाँ दिव्यदृष्टि है, यह मानना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेसे अर्जुनको भय, व्यथा और मोह होनेका कोई कारण नहीं रहता तथा अर्जुनका यह पूछना भी नहीं बन सकता कि विकराल रूपधारी आप कौन हैं? (११।३१) उस समय अर्जुन अपने सामने भगवान् का बहुत लंबा-चौड़ा शरीर और उसीमें समस्त जगत् को विचित्र ढंगसे देखकर घबड़ा गये (११।२४-२५) और उस रूपका उपसंहार करनेके लिये भगवान् से प्रार्थना करने लगे। किसी प्रकारके ज्ञानद्वारा दृश्य-जगत् को भगवान् का रूप समझाये जानेपर समझनेवालेका यह कहना नहीं बन सकता कि इसका उपसंहार करके, अपना किरीट, गदा और चक्र आदि भूषण और शस्त्रोंसे युक्त चतुर्भुजरूप दिखलाइये (११।४६) एवं भगवान् का चतुर्भुजरूप दिखलाकर फिर मानुषरूपमें स्थित होकर अर्जुनको आश्वासन देना और उस सौम्यरूपको देखकर अर्जुनका यह कहना भी नहीं बन सकता कि अब आपके इस सौम्य मानुषरूपको देखकर, मैं शान्तचित्त और स्वस्थ हो गया हूँ।
इस प्रकार विवेचन करनेसे यही समझमें आता है कि अर्जुनके प्रार्थना करनेपर भगवान् ने अपने प्यारे भक्त अर्जुनको, उनपर प्रसन्न होकर उनकी श्रद्धा और प्रेम बढ़ानेके लिये एवं अपना प्रभाव, तत्त्व और रहस्य उनको समझानेके लिये अपने योगबलसे वैसा ऐश्वर्यमय रूप दिखाया था, भगवान् का वह विश्वरूप अलौकिक, दिव्य और तेजोमय था, साधारण जगत् की भाँति पांचभौतिक पदार्थोंसे बना हुआ नहीं था। यदि पांचभौतिक पदार्थोंसे बना हुआ होता तो वहीं खड़े हुए दूसरे लोगोंको भी दिखलायी देता, किन्तु बिना दिव्यदृष्टिके उसके दर्शन किसीको नहीं हुए। भगवान् अपना प्रभाव और तत्त्व समझानेके लिये जिस-जिसपर कृपा करके अपने दिव्य अलौकिक आश्चर्यमय विश्वरूपका दर्शन कराना चाहते हैं, वही उसको देख सकता है। बिना भगवान् की कृपाके कोई योगी योगबलसे ऐसे रूपको नहीं देख सकता, तथा वेदविद्या-अध्ययनसे या यज्ञ, दान और तप आदि पुण्यकर्मोंसे भगवान् के इस प्रकारके रूपको कोई नहीं देख सकता। भगवान् से अतिरिक्त दूसरा कोई योगी या सिद्ध पुरुष ऐसे रूपकी रचना करके दूसरोंको दिखा भी नहीं सकता। जिस समय भगवान् अपने भक्तपर दया करके उसको अपना तत्त्व और रहस्य समझानेके लिये ऐसे रूपको प्रकट करते हैं उस समय भी उसके दर्शन वही मनुष्य कर सकता है—जिसको वैसे रूपका दर्शन करनेकी दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है, जो भगवान् का परमभक्त होता है और जिसको भगवान् वैसा रूप दिखाना चाहते हैं—दूसरा कोई किसी भी उपायसे नहीं देख सकता।
संजयको भगवान् वेदव्यासजीने दिव्यदृष्टि प्रदान की थी। वह भगवान् के परम प्रेमी, भक्त और विश्वासपात्र थे, इसीसे भगवान् के अद्भुत रूपको देखनेका सौभाग्य उन्हें भी प्राप्त हो गया, वह स्वयं कहते हैं कि मैंने भगवान् वेदव्यासजीकी कृपासे ही आज भगवान् के इस अद्भुत रूपके दर्शन किये और श्रीकृष्ण-अर्जुनके गुह्य संवादको सुना (१८।७५—७७)।
भगवान् ने अपने योगबलसे अर्जुनको विश्वरूपदर्शनके लिये एक प्रकारकी योगशक्ति प्रदान की थी, जिसके प्रभावसे अर्जुनकी समस्त इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि दिव्य हो गये, उनकी सामर्थ्य अलौकिक हो गयी, उनमें दिव्यरूपका दर्शन करनेकी योग्यता आ गयी, इसी योगशक्तिका नाम ‘दिव्यदृष्टि’ है। ऐसी ही दिव्यदृष्टि वेदव्यासजीने संजयको भी दी थी, इस दिव्यदृष्टिसे मनुष्य दूर देशकी बातें सुन सकता है, सब प्रकारके दृश्य देख सकता है, और दूसरेके मनके भावोंको भी जान सकता है। यही कारण था कि संजय समस्त महाभारतके युद्धका प्रसंग एक जगह बैठे हुए भी देख-सुनकर और समझकर, सब धृतराष्ट्रको सुना दिया करते थे, यहाँतक कि लोगोंके मनके विचार भी धृतराष्ट्रके सामने प्रकट कर दिया करते थे।
ऐसी दिव्य शक्तिका साधारण प्रकरण तो पातंजलयोगमें भी आया है, किन्तु वहाँ जिन शक्तियोंका वर्णन है वे परिमित हैं। भगवान् ने अर्जुनको जो दिव्यशक्ति प्रदान की थी वह अपरिमित थी, उसके लिये अर्जुनको किसी प्रकारकी साधना नहीं करनी पड़ी थी, भगवान् ने स्वयं ही उनपर कृपा करके वह शक्ति प्रदान की थी।
मनुष्यमात्रको उचित है कि इस प्रकार भगवान् की अनन्त और अलौकिक शक्तिको, उनके दिव्य विराट् रूपको तथा रहस्यसहित उनके प्रभाव, तत्त्व, लीला और गुणोंको बारंबार याद करके भगवान् में अनन्य प्रेम करें और उनके दर्शन करनेके पात्र बनें।