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महाराज युधिष्ठिरके जीवनसे आदर्श शिक्षा

महाराज युधिष्ठिरके सम्बन्धमें यह कहना अयुक्त न होगा कि इस संसारमें उनका जीवन महान् आदर्श था। जिस प्रकार त्रेतायुगमें साक्षात् मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी धर्मपालनमें परम आदर्श थे, लगभग उसी प्रकार द्वापरयुगमें केवल नीति और धर्मका पालन करनेमें महाराज युधिष्ठिरको आदर्श पुरुष कहा जा सकता है। अत: महाभारतके समस्त पात्रोंमें नीति और धर्मका पालन करनेके विषयमें महाराज युधिष्ठिरका आचरण सर्वथा आदर्श एवं अनुकरणीय है। भारतवासियोंके लिये तो युधिष्ठिरका जीवन सन्मार्गपर ले चलनेवाला एक अलौकिक पथप्रदर्शक है। वे सद्गुण और सदाचारके भण्डार थे। जहाँ उनका निवास हो जाता था, वह स्थान सद्गुण और सदाचारसे परिप्लावित हो जाता था। वे अपनेसे वैर करनेवाले व्यक्तियोंसे भी दयापूर्ण प्रेमका व्यवहार करते थे, इसलिये उनको लोग अजातशत्रु कहा करते थे। क्षात्रधर्ममें उनकी इतनी दृढ़ता थी कि प्राण भले ही चले जायँ परन्तु उन्हें युद्धसे मुँह मोड़ना कभी नहीं आता था—इसी कारण वे ‘युधिष्ठिर’ नामसे प्रसिद्ध थे। उनके जैसा धर्मपालनका उदाहरण संसारके इतिहासमें कम ही मिलता है। उनमें प्राय: कोई भी बात नहीं थी, जो हमारे लिये शिक्षाप्रद न हो। एक जुआ खेलनेको छोड़कर उनमें और कोई भी दुर्व्यसन नहीं था। वह भी बहुत कम मात्रामें था। ऐसे तो बड़े-से-बड़े धार्मिक पुरुषोंके जीवनकी सूक्ष्म आलोचना करनेपर ऐसी कई बातें प्रतीत हो सकती हैं जो अनुकरणके योग्य न हों, किन्तु महाराज युधिष्ठिरकी तो प्राय: सभी बातें अनुकरणीय हैं। गुरु द्रोणाचार्यके पूछनेपर अश्वत्थामाकी मृत्युके सम्बन्धमें उन्होंने जो छलयुक्त मिथ्या भाषण किया था, उसके लिये वे सदा पश्चात्ताप किया करते थे। घरमें उनका बर्ताव इतना शुद्ध और उत्तम होता था कि उनके भाई, माता, स्त्री, नौकर आदि सभी उनसे सदा प्रसन्न रहते थे। इतना ही नहीं, वे जिस देशमें निवास करते थे, वहाँकी सारी प्रजा भी उनके सद्‍व्यवहारके कारण उनको श्रद्धा और पूज्यभावसे देखा करती थी। ब्राह्मण और साधुसमाज तो उनके विनम्र एवं मधुर स्वभावको देखकर सदा ही उनपर मुग्ध रहा करता था। तात्पर्य यह है कि महाराज युधिष्ठिर एक बड़े भारी सद्गुणसम्पन्न, सदाचारी, स्वार्थत्यागी, सत्यवादी, ईश्वरभक्त, धीर,वीर और गम्भीर स्वभाववाले तथा क्षमाशील धर्मात्मा थे, कल्याण चाहनेवाले महानुभावोंके लाभार्थ उनके जीवनकी कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओंका दिग्दर्शनमात्र यहाँ कराया जाता है। मेरा विश्वास है कि महाराज युधिष्ठिरके गुण और आचरणोंको समझकर तदनुसार आचरण करनेसे बहुत भारी लाभ हो सकता है।

निर्वैरता

एक समयकी बात है, राजा दुर्योधन कर्ण, शकुनि और दु:शासन आदि भाइयोंके सहित बड़ी भारी सेना लेकर गौओंके निरीक्षणका बहाना करके पाण्डवोंको सन्ताप पहुँचानेके विचारसे उस द्वैत नामक वनमें गया, जहाँपर पाण्डव निवास करते थे। दुर्योधनका उद्देश्य बुरा तो था ही, देवराज इन्द्र उसकी इस बातको जान गये। बस, उन्होंने चित्रसेन गन्धर्वको आज्ञा दी कि ‘जल्दीसे जाकर उस दुष्ट दुर्योधनको बाँध लाओ।’ देवराजकी यह आज्ञा पाकर वह गन्धर्व दुर्योधनको युद्धमें परास्त करके उसको साथियोंसहित बाँधकर ले गया। किसी प्रकार जान बचाकर दुर्योधनका वृद्ध मन्त्री कुछ सैनिकोंके साथ तुरंत महाराज युधिष्ठिरकी शरणमें पहुँचा और वहाँपर उसने इस घटनाका सारा समाचार सुनाया और उसने दुर्योधन आदिको गन्धर्वके हाथसे छुड़ानेकी भी प्रार्थना की। इतना सुनकर महाराज युधिष्ठिर कब चुप रहनेवाले थे। वे तुरंत दुर्योधनकी रक्षाके लिये प्रस्तुत हो गये। उन्होंने कहा—‘नरव्याघ्र अर्जुन, नकुल, सहदेव और अजेय वीर भीमसेन! उठो, उठो। तुम सब लोग शरणमें आये हुए इन पुरुषोंकी और अपने कुलवालोंकी रक्षाके लिये शस्त्र ग्रहण करके तैयार हो जाओ। जरा भी विलम्ब मत करो; देखो दुर्योधनको गन्धर्व कैद करके लिये जा रहे हैं! उसे तुरंत छुड़ाओ।’

शरणं च प्रपन्नानां त्राणार्थं च कुलस्य च।
उत्तिष्ठध्वं नरव्याघ्रा: सज्जीभवत मा चिरम्॥
अर्जुनश्च यमौ चैव त्वं च वीरापराजित:।
मोक्षयध्वं नरव्याघ्रा ह्रियमाणं सुयोधनम्॥
(वन० २४३। ६-७)

महाराज युधिष्ठिरने फिर कहा—‘मेरे वीर श्रेष्ठ बन्धुओ! शरणागतकी यथाशक्ति रक्षा करना सभी क्षत्रिय राजाओंका महान् कर्तव्य है! शत्रुकी रक्षाका माहात्म्य तो और भी बड़ा है! मैंने यदि यह यज्ञ आरम्भ न किया होता तो मैं स्वयं ही उस बन्दी दुर्योधनको छुड़ानेके लिये दौड़ पड़ता, पर अब विवशता है। इसीलिये कहता हूँ, वीरवरो! जाओ—जल्दी जाओ; हे कुरुनन्दन भीमसेन! यदि वह गन्धर्वराज समझानेसे न माने तो तुमलोग अपना प्रबल पराक्रम दिखलाकर किसी तरह अपने भाई दुर्योधनको उसकी कैदसे छुड़ाओ।’ इस प्रकार अजातशत्रु धर्मराजके इन वचनोंको सुनकर भीमसेन आदि चारों भाइयोंके मुखपर प्रसन्नता छा गयी। उन लोगोंके अधर और भुजदण्ड एक साथ फड़क उठे। उन सबकी ओरसे महावीर अर्जुनने कहा—‘महाराज! आपकी जो आज्ञा! यदि गन्धर्वराज समझाने-बुझानेपर दुर्योधनको छोड़ देंगे; तब तो ठीक ही है; नहीं तो यह माता पृथ्वी गन्धर्वराज का रक्तपान करेगी।’ अर्जुनकी इस प्रतिज्ञाको सुनकर दुर्योधनके बूढ़े मन्त्री आदिको शान्ति मिली। इधर ये चारों पराक्रमी पाण्डव दुर्योधनको मुक्त करनेके लिये चल पड़े। सामना होनेपर अर्जुनने धर्मराजके आज्ञानुसार दुर्योधनको यों ही मुक्त कर देनेके लिये गन्धर्वोंको बहुत समझाया, परन्तु उन्होंने उनकी एक न सुनी। तब लाचार होकर अर्जुनने घोर युद्धद्वारा गन्धर्वोंको परास्त कर दिया। तत्पश्चात् परास्त चित्रसेनने अपना परिचय दिया और दुर्योधनादिको कैद करनेका कारण बताया। यह सुनकर पाण्डवोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे चित्रसेन और दुर्योधनादिको लेकर धर्मराजके पास आये। धर्मराजने दुर्योधनकी सारी करतूत सुनकर भी बड़े प्रेमके साथ दुर्योधन और उसके सब साथी बंदियोंको मुक्त करा दिया। फिर उसको स्नेहपूर्वक आश्वासन देते हुए उन्होंने सबको घर जानेकी आज्ञा दे दी। दुर्योधन लज्जित होकर सबके साथ घर लौट गया। ऋषि-मुनि तथा ब्राह्मण लोग धर्मराज युधिष्ठिरकी प्रशंसा करने लगे!

यह है महाराज युधिष्ठिरके आदर्श जीवनकी एक घटना! निर्वैरता तथा धर्मपालनका अनूठा उदाहरण! उनके मनमें दुष्ट दुर्योधनकी काली करतूतोंको सुनकर भी क्रोधकी छायाका भी स्पर्श नहीं हुआ। इतना ही नहीं, उसके दोषोंकी ओर उनकी दृष्टि भी नहीं गयी। बल्कि उनका हृदय उलटे दयासे भर गया। उन्होंने जल्दी ही उसको गन्धर्वराजके कठिन बन्धनसे मुक्त करवा दिया। यहींतक नहीं, उनकी इन क्रियासे दुर्योधन दु:खी और लज्जित न हो, इसके लिये उन्होंने प्रेमपूर्ण वचनोंसे उसको आश्वासन भी दिया। मित्रोंकी तो बात ही क्या दु:खमें पड़े हुए शत्रुओंके प्रति भी हमारा क्या कर्तव्य है, इसकी शिक्षा स्पष्टरूपसे हमें धर्मराज युधिष्ठिर दे रहे हैं।

धैर्य

यह बात तो संसारमें प्रसिद्ध ही है कि दुर्योधनने कर्णकी सम्मतिसे शकुनिके द्वारा धर्मराज युधिष्ठिरको छलसे जूएमें हराकर दाँवपर रखी हुई द्रौपदीको जीत लिया था। उसके पश्चात् दुर्योधनकी आज्ञासे दु:शासनने द्रौपदीको केश पकड़कर खींचते हुए भरी सभामें उपस्थित किया। द्रौपदी अपनी लाज बचानेके लिये रुदन करती हुई पुकारने लगी। सारी सभा द्रौपदीके व्याकुलतासे भरे हुए करुणापूर्ण रुदनको देखकर दु:खी हो रही थी। किन्तु दुर्योधनके भयसे विदुर और विकर्णके सिवा किसीने भी उसके इस घृणित कुकर्मका विरोधतक नहीं किया। द्रौपदी उस समय रजस्वला थी और उसके शरीरपर एक ही वस्त्र था। ऐसी अवस्थामें भी दु:शासनने भरी सभामें उसका वस्त्र खींचकर उसे नंगी कर देना चाहा। कर्ण नाना प्रकारके दुर्वचनोंद्वारा द्रौपदीका अपमान करने लगा। दुष्ट दुर्योधनने तो अपनी बायीं जाँघ दिखलाकर उसपर बैठनेका संकेत करके द्रौपदीके अपमानकी हद ही कर दी! वस्तुत: भारतकी एक सती अबलाके प्रति अत्याचारकी यह पराकाष्ठा थी? अब भीमसेनसे नहीं रहा गया। क्रोधके मारे उनके होठ फड़क उठे, रोमकूपोंसे चिनगारियाँ निकलने लगीं, किन्तु धर्मराजकी आज्ञा और संकेतके बिना उनसे कुछ भी करते न बना। परंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर तो वचनबद्ध थे, इसलिये वे यह सब देख-सुनकर भी मौनव्रत धारण किये हुए चुपचाप शान्तभावसे बैठे रहे। द्रौपदी चीख उठी, उसने अपनी रक्षाके लिये आँखोंमें आँसू भरकर सारी सभासे अनुरोध किया, पर सबने सिर नीचा कर लिया। अन्तमें उसने सबसे निराश होकर भगवान् श्रीकृष्णको सहायताके लिये पुकारा और आर्त भक्तकी पुकार सुनकर भगवान् ने ही द्रौपदीकी लाज बचायी। हमें यहाँ युधिष्ठिर महाराजके धैर्यको देखना है। वे जरा-सा इशारा कर देते तो एक क्षणमें वहाँपर प्रलयका दृश्य उपस्थित हो गया होता, परन्तु उन्होंने उस समय धैर्यका सच्चा स्वरूप क्या हो सकता है, इसको प्रत्यक्ष करके दिखला दिया! धन्य हैं अपूर्व धैर्यवान् युधिष्ठिरजी महाराज!

अक्रोध, क्षमा

महाराज युधिष्ठिर अक्रोध और क्षमाके मूर्तिमान् विग्रह थे। महाभारतके वनपर्वमें (अध्याय २७, २८, २९) एक कथा आती है कि द्रौपदीने एक बार महाराज युधिष्ठिरके मनमें क्रोधका संचार करानेके लिये अतिशय चेष्टा की। उसने महाराजसे कहा—‘नाथ! मैं राजा द्रुपदकी कन्या हूँ, पाण्डवोंकी धर्मपत्नी हूँ, धृष्टद्युम्नकी भगिनी हूँ; मुझको जंगलोंमें मारी-मारी फिरती देखकर तथा अपने छोटे भाइयोंको वनवासके घोर दु:खसे व्याकुल देखकर भी यदि आपको धृतराष्ट्रके पुत्रोंपर क्रोध नहीं आता तो इससे मालूम होता है कि आपमें जरा भी तेज और क्रोधकी मात्रा नहीं है। परंतु देव! जिस मनुष्यमें तेज और क्रोधका अभाव है, जो क्रोधके पात्रपर भी क्रोध नहीं करता, वह तो क्षत्रिय कहलानेयोग्य ही नहीं है। जो उपकारी हो, जिसने भूल या मूर्खतासे कोई अपराध कर दिया हो, अथवा अपराध करके जो क्षमा-प्रार्थी हो गया हो, उसको क्षमा करना तो क्षत्रियका परम धर्म है, परन्तु जो जान-बूझकर बार-बार अपराध करता हो उसको भी क्षमा करते रहना क्षत्रियका धर्म नहीं है। अत: स्वामी! जान-बूझकर नित्य ही अनेकों अपराध करनेवाले ये धृतराष्ट्र पुत्र क्षमाके पात्र नहीं, बल्कि क्रोधके पात्र हैं। इन्हें समुचित दण्ड मिलना ही चाहिये।’ यह सुनकर महाराज युधिष्ठिरने उत्तर दिया—‘द्रौपदी, तुम्हारा कहना ठीक है, किन्तु जो मनुष्य क्रोधके पात्रको भी क्षमा कर देता है वह अपनेको और उसको—दोनोंको ही महान् संकटसे बचानेवाला होता है।

आत्मानं च परांश्चैव त्रायते महतो भयात्।
क्रुध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन् द्वयोरेष चिकित्सक:॥
(वन० २९। ९)

अत: हे द्रौपदी! धीर पुरुषोंद्वारा त्यागे हुए क्रोधको मैं अपने हृदयमें कैसे स्थान दे सकता हूँ!१ क्रोधसे वशीभूत हुआ मनुष्य तो सभी पापोंको कर सकता है। वह अपने गुरुजनोंका नाश कर डालता है। श्रेष्ठ पुरुषोंका तिरस्कार कर देता है। क्रोधी पुत्र अपने पिताको तथा क्रोध करने वाली स्त्री अपने पतितकको मार डालती है। क्रोधी पुरुषको अपने कर्तव्य या अकर्तव्यका ज्ञान बिलकुल नहीं रहता, वह जो चाहे सो अनर्थ बात-की-बातमें कर डालता है, उसे वाच्य-अवाच्यका भी ध्यान नहीं रहता,२ वह जो मनमें आता है वही बकने लगता है। अत: तुम्हीं बतलाओ, महान् अनर्थोंके मूल कारण क्रोधको मैं कैसे आश्रय दे सकता हूँ! द्रौपदी! क्रोधको तेज मानना मूर्खता है। वास्तवमें जहाँ तेज है, वहाँ तो क्रोध रह ही नहीं सकता। ज्ञानियोंका यह वचन है तथा मेरा भी यही निश्चय है कि जिस पुरुषमें क्रोध होता ही नहीं अथवा क्रोध होनेपर भी जो अपने विवेकद्वारा उसे शान्त कर देता है, उसीको तेजस्वी कहते हैं, न कि क्रोधीको तेजस्वी कहा जाता है। सुनो, जो क्रोधपात्रको भी क्षमा कर देता है, वह सनातन लोकको प्राप्त होता है। महामुनि कश्यपने तो कहा है कि क्षमा ही धर्म है, क्षमा ही यज्ञ है, क्षमा ही वेद है और क्षमा ही शास्त्र है। इस प्रकार क्षमाके स्वरूपको जाननेवाला सबको क्षमा ही करता है।३ क्षमा ही ब्रह्म, क्षमा ही भूत, भविष्य, तप, शौच, सत्य सब कुछ है।

१-तं क्रोधं वर्जितं धीरै: कथमस्मद्विधश्चरेत्।
एतद् द्रौपदि सन्धाय न मे मन्यु: प्रवर्धते॥
(वन० २९। ८)
२-वाच्यावाच्यो हि कुपितो न प्रजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते तथा॥
(वन० २९। ५)
३-क्षमा धर्म: क्षमा यज्ञ: क्षमा वेदा: क्षमा श्रुतम्।
य एतदेवं जानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति॥
(वन० २९। ३६)

इस चराचर जगत् को भी क्षमाने ही धारण कर रखा है।१ तेजस्वियोंका तेज, तपस्वियोंका ब्रह्म, सत्यवादियोंका सत्य, याज्ञिकोंका यज्ञ तथा मनको वशमें करनेवालोंकी शान्ति भी क्षमा ही है।२ जिस क्षमाके आधारपर सत्य, ब्रह्म, यज्ञ और पवित्र लोक स्थित हैं, उस क्षमाको मैं कैसे त्याग सकता हूँ।३ तपस्वियोंको, ज्ञानियोंको, (सकाम) कर्मियोंको जो गति मिलती है, उससे भी उत्तम गति क्षमावान् पुरुषोंको मिलती है। जो सब प्रकारसे क्षमाको धारण किये होते हैं, उनको ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। अत: सबको निरन्तर क्षमाशील बनना चाहिये।४ हे द्रौपदी! तू भी क्रोधका परित्याग करके क्षमा धारण कर।’

१-क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च।
क्षमा तप: क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत्॥
(वन० २९।३७)
२-क्षमा तेजस्विनां तेज: क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम्।
क्षमा सत्यं सत्यवतां क्षमा यज्ञ: क्षमा शम:॥
३-तां क्षमां तादृशीं कृष्णे कथमस्मद्विधस्त्यजेत्।
यस्यां ब्रह्म च सत्यं च यज्ञा लोकाश्च धिष्ठिता:॥
४-क्षन्तव्यमेव सततं पुरुषेण विजानता।
यदा हि क्षमते सर्वं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥
(वन०२९।४०—४२)

कितना सुन्दर उपदेश है, कितने भव्य भाव हैं! जंगलमें दु:खसे कातर बनी हुई अपनी धर्मपत्नीके प्रति निकले हुए धर्मराजके ये वचन अक्रोधके ज्वलन्त उदाहरण हैं! तेज, क्षमा और शान्तिका इतना सुन्दर सम्मिश्रण और किसीमें प्राय: ढूँढ़नेसे भी नहीं मिलता।

सत्य

महाराज युधिष्ठिर सत्यवादी थे, यह शास्त्र तथा लोक—दोनोंमें ही प्रसिद्ध है। भीमसेनने एक समय धर्मराजसे अपने भाइयों तथा द्रौपदीके कष्टोंकी ओर ध्यान दिलाकर जूएमें हारे हुए अपने राज्यको बलपूर्वक वापस कर लेनेकी प्रार्थना की।* इसपर महाराज युधिष्ठिरने उत्तर दिया—‘भीमसेन! राज्य, पुत्र, कीर्ति, धन—ये सब एक साथ मिलकर सत्यके सोलहवें हिस्सेके समान भी नहीं हैं। अमरता और प्राणोंसे भी बढ़कर मैं सत्यपालनरूप धर्मको मानता हूँ।

* महाभारत वनपर्वके अध्याय ३३-३४ में यह प्रसंग है।

तू मेरी प्रतिज्ञाको सच मान।१ कुरुवंशियोंके सामने की गयी अपनी उस सत्य प्रतिज्ञासे मैं जरा भी विचलित नहीं हो सकता। तू बीज बोकर फलकी प्रतीक्षा करनेवाले किसानकी तरह वनवास तथा अज्ञातवासके समाप्तिकालकी प्रतीक्षा कर।’ भीमसेनने फिर प्रार्थना की—‘महाराज, हमलोग तेरह महीनेतक तो वनवास कर ही चुके हैं, वेदके आज्ञानुसार आप इसीको तेरह वर्ष क्यों न समझ लें?’२ किन्तु धर्मराजने इसको भी छलयुक्त सत्यका आश्रय लेना समझा और उसे स्वीकार नहीं किया। वे अपने यथार्थ सत्यपर ही डटे रहे।

१-मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्यां
वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च।
राज्यं च पुत्राश्च यशो धनं च
सर्वं न सत्यस्य कलामुपैति॥
(वन०३४।२२)
२-अस्माभिरुषिता: सम्यग्वने मासास्त्रयोदश।
परिमाणेन तान् पश्य तावत: परिवत्सरान्॥
(वन० ३५।३२)
‘यो मास: स संवत्सर:’ इति श्रुते:॥

धर्मराजकी सत्यतापर उनके शत्रु भी विश्वास करते थे। सत्यपालनकी महिमाके कारण उनका रथ पृथ्वीसे चार अंगुल ऊपर उठकर चला करता था। सत्यपालनका इतना माहात्म्य है! महाभारतमें तो एक जगह कहा गया है कि एक बार सहस्र अश्वमेधयज्ञोंके फल केवल सत्यके महाफलके साथ तौले गये तो उनकी अपेक्षा सत्यका फल ही अधिक भारी सिद्ध हुआ।*

* अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥
(शान्ति०१६२।२६)

परन्तु कहाँ सत्यके आदर्शस्वरूप महाराज युधिष्ठिर और कहाँ प्राय: पग-पगपर मिथ्याका आश्रय ग्रहण करनेवाला आजकलका साधारण जनसमुदाय!

विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता, समता

एक समय साक्षात् धर्मने महाराज युधिष्ठिरकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे हरिणका रूप धारण किया। वे किसी अग्निहोत्री ब्राह्मणकी अरणी (जिससे अग्निप्रकट किया जाता है) को अपने सींगोंमें उलझाकर जंगलमें चले गये। ब्राह्मण व्याकुल होकर महाराज युधिष्ठिरके पास पहुँचा और उनसे हरिणद्वारा अपनी अरणीके ले जानेकी बात कही। ब्राह्मणने धर्मराज युधिष्ठिरसे यह याचना की कि वे किसी प्रकार उस अरणीको ढुँढ़वाकर उसे दे दें ताकि अग्निहोत्रका काम बंद न हो। यह सुनना था कि महाराज युधिष्ठिर अपने चारों भाइयोंको साथ लेकर उस हरिणके पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए जंगलमें बहुत दूरतक चले गये। किन्तु अन्तमें वह हरिण अन्तर्धान हो गया और सभी भाई प्याससे व्याकुल होकर और थककर एक वटवृक्षके नीचे बैठ गये। कुछ देर बाद धर्मराजकी आज्ञा लेकर नकुल जलकी खोजमें निकले। वे जल्दी ही एक जलाशयपर पहुँच गये परंतु ज्यों ही उन्होंने वहाँके निर्मल जलको पीना चाहा, त्योंही यह आकाशवाणी हुई—‘माद्रीपुत्र नकुल! यह स्थान मेरा है, मेरे प्रश्नोंका उत्तर दिये बिना कोई इसका जल नहीं पी सकता। इसलिये तुम पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दो, फिर स्वयं जल पीओ तथा भाइयोंके लिये भी ले जाओ।’ किन्तु नकुल तो प्यासके मारे बेचैन हो रहे थे। उन्होंने उस आकाशवाणीकी ओर ध्यान नहीं दिया और जल पी लिया। फलस्वरूप जल पीते ही उनकी मृत्यु हो गयी। इधर नकुलके लौटनेमें विलम्ब हुआ देखकर धर्मराजकी आज्ञासे क्रमश: सहदेव, अर्जुन और भीम ये तीनों भाई भी उस जलाशयके निकट आये और इन तीनोंने भी प्याससे व्याकुल होनेके कारण यक्षके प्रश्नोंकी परवाह न करते हुए जलपान कर ही लिया और उसी प्रकार इन लोगोंकी भी क्रमश: मृत्यु हो गयी। अन्तमें महाराज युधिष्ठिरको स्वयं ही उस जलाशयपर पहुँचना पड़ा। वहाँ उन्हें अपने चारों भाइयोंको मरा हुआ देखकर, बड़ा भारी दु:ख तथा आश्चर्य हुआ। वे उनकी मृत्युका कारण सोचने लगे। जलकी परीक्षा करनेपर उसमें कोई दोष नहीं दिखायी पड़ा और न उन मृत भाइयोंके शरीरपर कोई घाव ही दीख पड़े। अत: उन्हें उनकी मृत्युका कोई कारण समझमें नहीं आया। थोड़ी देर बाद अत्यन्त प्यास लगनेके कारण जब वे भी जल पीनेके लिये बढ़े तब फिर वही आकाशवाणी हुई। उसे सुनकर धर्मराजने आकाशचारीसे उसका परिचय पूछा। आकाशचारीने अपनेको यक्ष बतलाया तथा उसने यह भी कहा कि ‘तुम्हारे भाइयोंने सावधान करनेपर भी मेरे प्रश्नोंका उत्तर नहीं दिया—लापरवाहीके साथ जल पी लिया। इसीलिये मैंने ही इनको मार डाला है। तुम भी मेरे प्रश्नोंका उत्तर देकर ही जल पी सकते हो। अन्यथा तुम्हारी भी यही गति होगी।’ महाराज युधिष्ठिरने कहा—‘यक्ष! तुम प्रश्न करो। मैं अपनी बुद्धिके अनुसार तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर देनेकी चेष्टा करूँगा।’

इसपर यक्षने बहुतेरे प्रश्न किये और महाराज युधिष्ठिरने उसके सब प्रश्नोंका यथोचित उत्तर दे दिया। यहाँ उन सारे-के-सारे प्रश्नोंका उल्लेख न करके केवल धर्मराज द्वारा दिये गये उत्तरोंका अधिकांश भाग दिया जाता है। महाराज युधिष्ठिरने यक्षसे कहा—

वेदका अभ्यास करनेसे मनुष्य श्रोत्रिय होता है। तपस्यासे महत्ताको प्राप्त करता है। धैर्य रखनेसे दूसरे सहायक बन जाते हैं। वृद्धोंकी सेवा करनेसे मनुष्य बुद्धिमान् होता है। तीनों वेदोंके अनुसार किया हुआ कर्म नित्य फल देता है। मनको वशमें रखनेसे मनुष्यको कभी शोकका शिकार नहीं होना पड़ता। सत्पुरुषोंके साथकी हुई मित्रता जीर्ण नहीं होती। मानके त्यागसे मनुष्य सबका प्रिय होता है। क्रोधके त्यागसे शोकरहित होता है। कामनाके त्यागसे अर्थकी सिद्धि होती है। लोभके त्यागसे वह सुखी होता है। स्वधर्मपालनका नाम तप है, मनको वशमें करना दम है, सहन करनेका नाम क्षमा है, कर्तव्यसे विमुख हो जाना लज्जा है, तत्त्वको यथार्थरूपसे जानना ज्ञान है, चित्तके शान्त भावका नाम शम है, सबको सुखी देखनेकी इच्छाका नाम आर्जव है। क्रोध मनुष्यका वैरी है। लोभ असीम व्याधि है। जो सब भूतोंके हितमें रत है वह साधु है और जो निर्दयी है वह असाधु है। धर्मपालनमें मूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्ममें अकर्मण्यता ही आलस्य है, शोक करना ही मूर्खता है, स्वधर्ममें डटे रहना ही स्थिरता है। इन्द्रिय निग्रह धैर्य है, मनके मैलका त्याग करना स्नान है। प्राणियोंकी रक्षा करना दान है। धर्मका जाननेवाला ही पण्डित तथा नास्तिक ही मूर्ख है। जन्म-मरणरूप संसारको प्राप्त करानेवाली वासनाका नाम काम है। दूसरेकी उन्नतिको देखकर जो मनमें सन्ताप होता है, उसका नाम मत्सरता है। अहंकार ही महा अज्ञान है। मिथ्या धर्माचरण दिखानेका नाम दम्भ है। दूसरेके दोषोंको देखना पिशुनता है। जो पुरुष वेद, धर्मशास्त्र, ब्राह्मण, देवता, श्राद्ध और पितर आदि में मिथ्या बुद्धि रखता है, वह अक्षय नरकको पाता है। प्रिय वचन बोलनेवाला लोगोंको प्रिय होता है। विचारकर कार्य करनेवाला प्राय: विजय पाता है। मित्रोंकी संख्या बढ़ानेवाला सुखपूर्वक रहता है। धर्ममें रतपुरुष सद्गुणोंको प्राप्त करता है। प्रतिदिन प्राणी यमलोककी यात्रा करते हैं, इसको देखकर भी बचे हुए लोग सदा स्थिर रहना चाहते हैं, इससे बढ़कर और आश्चर्य क्या है?

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषा: स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्॥
(वन० ३१३।११६)

जिसके लिये प्रिय, अप्रिय, सुख-दु:ख, भूत-भविष्य आदि सब समान हैं, वह नि:सन्देह सबसे बड़ा धनी है।

तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदु:खे तथैव च।
अतीतानागते चोभे स वै सर्वधनी नर:॥
(वन० ३१३। १२१)

इस प्रकार अनेकों प्रश्नोंका समुचित उत्तर पानेके बाद यक्ष प्रसन्न हुआ। उसने महाराज युधिष्ठिरको जल पीनेकी आज्ञा दी और कहा—‘इन चारों भाइयोंमेंसे तुम जिस एकको कहो, मैं उसे जिला दूँगा।’ इसपर महाराज युधिष्ठिरने अपने भाई नकुलको जिलानेके लिये कहा। यक्षने आश्चर्यचकित होकर पूछा—‘अजी, दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले भीमको तथा जिसके अपार बाहुबलका तुम लोगोंको भरोसा है उस अर्जुनको छोड़कर तुम नकुलको क्यों जिलाना चाहते हो?’ महाराज युधिष्ठिरने कहा—‘जो मनुष्य अपने धर्मका नाश कर देता है, या यों कहो कि त्याग कर देता है उसका धर्म भी नाश कर देता है। परंतु जो धर्मकी रक्षा करता है उसकी रक्षा धर्म करता है।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:॥

यक्ष! मुझको लोग सदा धर्मपरायण रहनेवाला समझते हैं इसलिये मेरा भाई नकुल ही जीवित हो, मैं धर्मको नहीं छोड़ सकता।

धर्मशील: सदा राजा इति मां मानवा विदु:।
स्वधर्मान्न चलिष्यामि नकुलो यक्ष जीवतु॥

मेरे पिताकी कुन्ती और माद्री दो स्त्रियाँ थीं, वे दोनों पुत्रवती बनी रहें, ऐसा मेरा निश्चित विचार है।

कुन्ती चैव तु माद्री च द्वे भार्ये तु पितुर्मम।
उभे सपुत्रे स्यातां वै इति मे धीयते मति:॥
(वन० ३१३। १२८, १३०, १३१)

क्योंकि मेरे लिये जैसी मेरी माता कुन्ती है, वैसी ही माद्री है। उन दोनोंमें कोई भी मेरे लिये न्यूनाधिक नहीं है। इसलिये मैं उन दोनों माताओंपर समान भाव रखना चाहता हूँ। (कुन्तीका पुत्र मैं तो जीवित हूँ ही, अब माद्रीका पुत्र) नकुल भी जीवित हो जाय।*

* यथा कुन्ती तथा माद्री विशेषो नास्ति मे तयो:।
मातृभ्यां सममिच्छामि नकुलो यक्ष जीवतु॥
(वन० ३१३। १३२)

क्योंकि समता ही सब धर्मोंमें सबसे बड़ा धर्म है!’ महाराज युधिष्ठिरका यह धर्ममय उत्तर सुनकर यक्ष बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने कहा—‘हे युधिष्ठिर! तुम सचमुच बड़े धर्मात्मा हो, अर्थ और कामसे बढ़कर तुम धर्मको मानते हो। तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जायँ।’ यक्षके यह कहते ही चारों भाई तत्काल जी उठे। महाराज युधिष्ठिरने यक्षसे यथार्थ परिचय देनेकी प्रार्थना की। तब यक्षने खुलकर कहा—‘वत्स युधिष्ठिर! मैं तुम्हारा पिता साक्षात् धर्म हूँ। तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये मैंने ही हरिणका रूप धारण किया था और उस ब्राह्मणकी अरणी उठा ले गया था।’ इसके पश्चात् धर्मने महाराज युधिष्ठिरको अरणी लौटा दी तथा युधिष्ठिरसे वर माँगनेके लिये कहा। महाराज युधिष्ठिरने प्रार्थना की—‘देव! आप सनातनदेवोंके देव हैं। मैं आपके दर्शनोंसे ही कृतार्थ हो गया। आप जो कुछ मुझे वर देंगे, उसे मैं शिरोधार्य करूँगा। विभो! मुझको आप यही वर दें कि मैं क्रोध, लोभ, मोह आदिको सदाके लिये जीत लूँ तथा मेरा मन दान, तप और सत्यमें निरन्तर लगा रहे।’*

* जयेयं लोभमोहौ च क्रोधं चाहं सदा विभो।
दाने तपसि सत्ये च मनो मे सततं भवेत्॥

धर्मने कहा—‘पाण्डव! ये गुण तो स्वभावसे ही तुममें वर्तमान हैं। तुम तो साक्षात् धर्म हो, तथापि तुमने मुझसे जितनी वस्तुएँ माँगी हैं वे सब तुम्हें प्राप्त हों।’* यह कहकर धर्म अन्तर्धान हो गये।

* उपपन्नो गुणैरेतै: स्वभावेनासि पाण्डव।
भवान् धर्म: पुनश्चैव यथोक्तं ते भविष्यति॥
(वन० ३१४। २४-२५)

महाराज युधिष्ठिरद्वारा दिये गये इन उत्तरोंकी मार्मिकताको सम्भव है, आजके नास्तिकयुगमें पैदा होनेके कारण हमलोग न समझ सकें तथा महाराज युधिष्ठिरका मूल्य न आँक सकें, किन्तु यदि सरल मनसे विचार किया जाय तो हमलोगोंको धर्मराजके महान् व्यक्तित्वका प्रत्यक्षीकरण हो सकेगा और हम सब लोग उनकी विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता एवं समतासे भरे हुए इन वचनोंको सुनकर ‘धन्य-धन्य’ कह उठेंगे! धर्मराजके जीवनमें क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणोंका लेश भी नहीं था; दान, तप, सत्य आदि दैवी गुणोंके वे अधिष्ठान थे; फिर भी उन्होंने उपर्युक्त वरकी ही याचना की! धन्य है उनकी निरभिमानता!!

पवित्रताका प्रभाव

जब महाराज युधिष्ठिर अपने सब भाइयोंके साथ विराट-नगरमें छिपे हुए थे तब कौरवोंके द्वारा उन लोगोंकी खोजके लिये अनेकों प्रयत्न किये गये, पर कहीं भी उनका पता न चला। सभी सभासदोंने नाना प्रकारके उपाय बतलाये, परन्तु सभी निष्फल हो गये। अन्तमें भीष्मपितामहने एक युक्ति बतलायी। उन्होंने कहा—‘अबतक पाण्डवोंका पता लगानेके लिये जितने भी उपाय काममें लाये गये हैं तथा अभी काममें लाये जानेवाले हैं, वे सब मेरी सम्मतिमें सर्वथा अनुपयुक्त हैं। क्योंकि साधारण दूतोंद्वारा क्या उनका पता लग सकता है? उनकी खोज करनेका साधन यह है, आपलोग इसको ध्यानपूर्वक सुनें। जिस देश और राज्यमें पवित्रात्मा जितेन्द्रिय राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँके राजाका अमंगल नहीं हो सकता। उस देशके मनुष्य निश्चय ही दानशील, उदार, शान्त, लज्जाशील, प्रियवादी, जितेन्द्रिय, सत्यपरायण, हृष्ट, पुष्ट, पवित्र तथा चतुर होंगे। वहाँकी प्रजा असूया, ईर्ष्या, अभिमान और मत्सरतासे रहित होगी तथा सब लोग स्वधर्मके अनुसार आचरण करनेवाले होंगे।*

* तत्र तात न तेषां हि राज्ञां भाव्यमसाम्प्रतम्।
पुरे जनपदे चापि यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
दानशीलो वदान्यश्च निभृतो ह्रीनिषेवक:।
जनो जनपदे भाव्यो यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
प्रियवादी सदा दान्तो भव्य: सत्यपरो जन:।
हृष्ट: पुष्ट: शुचिर्दक्षो यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
नासूयको न चापीर्षुर्नाभिमानी न मत्सरी।
भविष्यति जनस्तत्र स्वयं धर्ममनुव्रत:॥
(विराट० २८।१४—१७)

वहाँ निस्सन्देह अच्छी तरहसे वर्षा होगी। सारा-का-सारा देश प्रचुर धन-धान्यसम्पन्न और पीड़ारहित होगा। वहाँके अन्न सारयुक्त होंगे, फल रसमय होंगे, पुष्प सुगन्धित होंगे, वहाँका पवित्र पवन सुखदायक होगा, वहाँ प्रचुर मात्रामें दूध देनेवाली हृष्ट-पुष्ट गायें होंगी। धर्म वहाँ स्वयं मूर्तिमान् होकर निवास करेंगे। वहाँके सभी मनुष्य सदाचारी, प्रीति करनेवाले, संतोषी तथा अकाल-मृत्युसे रहित होंगे। देवताओंकी पूजामें प्रीति रखनेवाले, उत्साहयुक्त और धर्मपरायण होंगे। वहाँके मनुष्य सदा परोपकार परायण होंगे। हे तात! महाराज युधिष्ठिरके शरीरमें सत्य, धैर्य, दान, परमशान्ति, ध्रुव क्षमा, शील, कान्ति, कीर्ति, प्रभाव, सौम्यता, सरलता आदि गुण निरन्तर निवास करते हैं। ऐसे महाराज युधिष्ठिरको बड़े-बड़े ब्राह्मण भी नहीं पहचान सकते, फिर साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है?’ इस प्रकार भीष्म महाराजके वचनोंको सुनकर कृपाचार्यने उनका समर्थन किया।

धर्मात्मा शक्यते ज्ञातुं नापि तात द्विजातिभि:॥
किं पुन: प्राकृतैस्तात पार्थो विज्ञायते क्वचित्।
यस्मिन् सत्यं धृतिर्दानं परा शान्तिर्ध्रुवा क्षमा॥
ह्री: श्री: कीर्ति: परं तेज आनृशंस्यमथार्जवम्।
(विराट० २८।३०—३२)

पाठक विचार करें, महाराज युधिष्ठिरके जीवनमें कितनी पवित्रता थी। इस वर्णनमें तो पवित्रताकी पराकाष्ठा हो गयी है। जिस धर्मराजके निवास करनेसे वहाँका देश पवित्रताकी चरम सीमापर पहुँच जाता था, उनकी पवित्रताकी हमलोग कल्पना भी नहीं कर सकते।

उदारता

महाराज युधिष्ठिरमें इसी प्रकार उदारता भी अद्भुत थी। जिस धृतराष्ट्रने पाण्डवोंको जला देनेके लिये लाक्षाभवनमें भेजा था, जिसके हृदयमें पाण्डवोंको तेरह वर्षके लिये वनवासकी यात्रा करते देखकर जरा भी दया नहीं आयी, उसी धृतराष्ट्रने महाभारतकी लड़ाईके १५ वर्ष बाद तपस्या करनेके लिये वन जाते समय दान-पुण्यमें खर्च करनेके लिये, विदुरको भेजकर जब धनकी याचना की और उसपर उसके साथ महाराज युधिष्ठिरने जैसा व्यवहार किया उसको देखकर हृदय मुग्ध हो जाता है। महाराज युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रका यह सन्देश सुनते ही विदुरसे कहला भेजा कि ‘मेरा शरीर और मेरी सारी सम्पत्ति आपकी ही है। मेरे घरकी प्रत्येक वस्तु आपकी है। आप इन्हें इच्छानुसार संकोच छोड़कर व्यवहारमें ला सकते हैं।’ इस वचनको सुनकर धृतराष्ट्रकी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा। वे भीष्म, द्रोण, सोमदत्त, जयद्रथ, दुर्योधन आदि पुत्र, पौत्रोंका एवं समस्त मृत सुहृदोंका श्राद्ध करके दान देने लगे। वस्त्र, आभूषण, सोना, रत्न, गहनोंसे सजाये हुए घोड़े, ग्राम, गौएँ आदि अपरिमित वस्तुएँ दान दी गयीं। धृतराष्ट्रने जिसको सौ देनेको कहा था उसे हजार और जिसे हजार देनेको कहा था उसे दस हजार, बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिरकी आज्ञासे दिये गये। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार मेघ वृष्टिद्वारा भूमिको तृप्त कर देता है, उसी प्रकार भाँति-भाँतिके द्रव्योंके प्रचुर दानसे ब्राह्मणोंको तृप्त कर दिया गया। लगातार दस दिनोंतक इच्छापूर्वक दान देते-देते धृतराष्ट्र थक गये।

शते देये दशशतं सहस्रे चायुतं तथा।
दीयते वचनाद्राज्ञ: कुन्तीपुत्रस्य धीमत:॥
(आश्रम० १४।१०)

हमलोग महाराज युधिष्ठिरकी इस अनुपम उदारताकी ओर देखें और फिर आजकलकी संकीर्णतासे उसका मुकाबला करें। आकाश-पातालका अन्तर दिखायी देगा। अपनी बुराई करनेवालोंकी बात तो दूर रही, आजकलके अधिकांश लोग अपने माता-पिता एवं सुहृदोंके प्रति भी कैसा असत्यव्यवहार करते हैं, यह किसीसे छिपा नहीं है। उनकी वृद्धावस्था आनेपर उनके लिये साधारण अन्न-वस्त्रकी भी व्यवस्था नहीं हो पाती।

त्याग

स्वर्गारोहणके समयकी कथा है, महाराज युधिष्ठिर हिमालयपर चढ़ने गये। द्रौपदी तथा उनके चारों भाई एक-एक करके बर्फमें गिरकर मर गये। किसी प्रकार साथका एक कुत्ता बच गया था, वही धर्मराज युधिष्ठिरका अनुसरण करता जा रहा था। उसी समय देवराज इन्द्र रथ लेकर महाराज युधिष्ठिरके सम्मुख उपस्थित हुए। उन्होंने महाराज युधिष्ठिरको रथपर बैठनेके लिये आज्ञा दी। युधिष्ठिरने कहा—‘यह कुत्ता अबतक मेरे साथ चला आ रहा है। यह भी मेरे साथ स्वर्ग चलेगा।’ देवराज इन्द्रने कहा—‘नहीं, कुत्ता रखनेवालोंके लिये स्वर्गमें स्थान नहीं है। तुम कुत्तेको छोड़ दो।’ इसपर महाराज युधिष्ठिरने कहा—‘देवराज! आप यह क्या कह रहे हैं? भक्तोंका त्याग करना ब्रह्महत्याके समान महापातक बतलाया गया है। इसलिये मैं अपने सुखके लिये इस कुत्तेको किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता।

भक्तत्यागं प्राहुरत्यन्तपापं तुल्यं लोके ब्रह्मवध्याकृतेन।
तस्मान्नाहं जातु कथंचनाद्य त्यक्ष्याम्येनं स्वसुखार्थी महेन्द्र॥
(महाप्रस्थानिक० ३।११)

डरे हुएको, भक्तको, ‘मेरा कोई नहीं है’ ऐसा कहनेवाले शरणागतको, निर्बलको तथा प्राणरक्षा चाहनेवालेको छोड़नेकी चेष्टा मैं कभी नहीं कर सकता, चाहे मेरे प्राण भी क्यों न चले जायँ। यह मेरा सदाका दृढ़ व्रत है।’

भीतं भक्तं नान्यदस्तीति चार्तं प्राप्तं क्षीणं रक्षणे प्राणलिप्सुम्।
प्राणत्यागादप्यहं नैव मोक्तुं यतेयं वै नित्यमेतद् व्रतं मे॥
(महाप्रस्थानिक० ३।१२)

यह सुनकर देवराज इन्द्रने कहा—‘हे युधिष्ठिर! जब तुमने अपने भाइयोंको छोड़ दिया, धर्मपत्नी प्यारी द्रौपदी छोड़ दी, फिर इस कुत्तेपर तुम्हारी इतनी ममता क्यों है?’ युधिष्ठिरने उत्तर दिया— ‘देवराज!’ उन लोगोंका त्याग मैंने उनके मरनेपर किया है, जीवित अवस्थामें नहीं। मरे हुएको जीवनदान देनेकी क्षमता मुझमें नहीं है। मैं आपसे फिर निवेदन करता हूँ कि शरणागतको भय दिखलाना, स्त्रीका वध करना, ब्राह्मणका धन हरण कर लेना और मित्रोंसे द्रोह करना, इन चारके पापोंके बराबर केवल एक भक्तके त्यागका पाप है, ऐसी मेरी सम्मति है। अत: मैं इस कुत्तेको किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता।’

भीतिप्रदानं शरणागतस्य स्त्रिया वधो ब्राह्मणस्वापहार:।
मित्रद्रोहस्तानि चत्वारि शक्र भक्तत्यागश्चैव समो मतो मे॥
(महाप्रस्थानिक० ३।१६)

युधिष्ठिरके इन दृढ़ वचनोंको सुनकर साक्षात् धर्म, जो कि कुत्तेके रूपमें विद्यमान थे, प्रकट हो गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे कहा—‘युधिष्ठिर! कुत्तेको तुमने अपना भक्त बतलाकर स्वर्गतकका परित्याग कर दिया। अत: तुम्हारे त्यागकी बराबरी कोई स्वर्गवासी भी नहीं कर सकता। तुमको दिव्य उत्तम गति मिल चुकी।’ इस प्रकार साक्षात् धर्मने तथा उपस्थित इन्द्रादि देवताओंने महाराज युधिष्ठिरकी प्रशंसा की और वे प्रसन्नतापूर्वक महाराज युधिष्ठिरको रथमें बैठाकर स्वर्गमें ले गये।

पाठक! तनिक आधुनिक जगत् की ओर तो ध्यान दें! आज भी सहस्रों नर-नारी बदरिकाश्रम आदि तीर्थोंकी यात्रा करते हैं, परन्तु साथियोंके प्रति उनका व्यवहार कैसा होता है? कुत्ते आदि जानवरोंकी बात छोड़ दें, आजकलके तीर्थ-यात्रियोंके यदि निकटसम्बन्धी भी संयोगवश मार्गमें बीमार पड़ जाते हैं तो वे उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। उनके करुणक्रन्दनकी उपेक्षा करके वे मुक्तिकी खोजमें चले जाते हैं। परन्तु यह उनका भ्रममात्र है। दयामय भगवान् केवल भावके भूखे हैं। भावरहितके लिये उनका द्वार सदा बंद है। यथार्थ बात तो यह है कि भगवान् हमारी परीक्षाके लिये ही ऐसे अवसर उपस्थित करते हैं। यदि ऐसा अवसर प्राप्त हो जाय तो हमलोगोंको बड़ी प्रसन्नतासे प्रेमपूर्वक भगवान् की आज्ञा समझकर अनाथों, व्याधिपीड़ितों और दु:ख-ग्रस्तोंकी सहायता करनी चाहिये। उन्हें मार्गमें छोड़ जाना तो स्वयं अपने हाथोंसे मंगलमय भगवान् के पवित्र धामके पटको बंद कर देना है। यदि हम अपने इन कर्तव्योंका पालन करते हुए तीर्थयात्रा करें तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिस प्रकार धर्मके लिये कुत्तेको अपनानेके कारण महाराज युधिष्ठिरके सामने साक्षात् धर्म प्रकट हो गये थे, ठीक उसी प्रकार हमारे सामने भगवान् भी प्रकट हो सकते हैं।

उपसंहार

इस संसारमें बहुतसे धार्मिक महापुरुष हुए हैं, किन्तु ‘धर्मराज’ शब्दसे केवल महाराज युधिष्ठिर ही सम्बोधित किये गये हैं। महाराज युधिष्ठिरका सम्पूर्ण जीवन ही धर्ममय था। इसी कारण आजतक वे ‘धर्मराज’ के नामसे प्रसिद्ध हैं ! शास्त्रोंमें धर्मके जितने लक्षण बतलाये गये हैं वे प्राय: सभी उनमें विद्यमान थे। स्मृतिकार महाराज मनुने जो धर्मके दस लक्षण बतलाये हैं१ वे तो मानो उनमें कूट-कूटकर भरे थे। गीतोक्त दैवी सम्पदाके छब्बीस लक्षण२ तथा महर्षि पतंजलिके बतलाये हुए दस यम-नियमादि३ भी प्राय: उनमें मौजूद थे। और महाभारतमें वर्णित सामान्य धर्मके तो आप आदर्श ही थे। इस लेखमें उनके जीवनकी केवल आठ घटनाओंका ही उल्लेख किया गया है, परन्तु उनका सारा ही जीवन सद्गुण और सदाचारसे ओतप्रोत था।

१-धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
(मनु० ६। ९२)
‘धृति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध—ये दस धर्मके लक्षण हैं।’
२-गीतामें अध्याय १६ श्लोक १,२,३ देखिये।
३-अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:।
(योग० २।३०)
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—ये यम हैं।’
‘शौचसन्तोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:।
(योग० २।३२)
‘शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान—ये नियम हैं।’

महराज युधिष्ठिरने अवसर उपस्थित होनेपर अपने निर्वैरता, धैर्य, क्षमा, अक्रोध आदि सद्गुणोंका केवल वाचिक ही नहीं, बल्कि क्रियात्मक आदर्श सामने रखा। सत्यपालन तो उनका प्राण था। इस विषयमें आज भी वे अद्वितीय एवं अप्रतिम माने जाते हैं। धर्मराजका प्रत्येक वचन विद्वत्ता और बुद्धिमत्तासे परिपूर्ण होता था, यह यक्षकी आख्यायिकासे भी स्पष्ट हो जाता है। समताकी रक्षाके लिये तो उन्होंने अपने सहोदर भाइयोंतककी उपेक्षा कर दी और उनकी पवित्रता तो यहाँतक बढ़ी हुई थी कि उनकी निवासभूमि भी परम पवित्र बन जाती थी। उनके शम-दमादि शुभगुणोंसे प्रभावित होकर प्राय: समूचा देश संयमी बन जाता था। स्वार्थ त्यागकी तो उनमें बात ही निराली थी। एक क्षुद्र कुत्तेके लिये उन्होंने स्वर्गको भी ठुकरा दिया। उनका प्रत्येक कर्म स्वार्थत्याग और दयासे परिपूर्ण होता था। धृतराष्ट्रकी याचनापर उन्होंने जो महान् औदार्य दिखलाया, वह भी उनके अपूर्व स्वार्थत्यागकी भावनाका ही परिचायक है। यज्ञ, दान, तप, तेज, शान्ति, लज्जा, सरलता, निरभिमानता, निर्लोभता, भक्त वत्सलता आदि अनेकों गुण उनमें एक साथ ही भरे थे। ऐसे सर्वगुणसम्पन्न महाराज युधिष्ठिरके जीवनको यदि हम आदर्श मानकर चलें तो हमारे कल्याणमें तनिक भी सन्देह न रह जायगा। प्रेमी पाठक महानुभावोंसे मेरा यह विनम्र निवेदन है कि वे महाराज युधिष्ठिरके इन गुणोंको तथा उनके आदर्श आचरणोंको यथाशक्ति अपनानेकी चेष्टा करें।

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