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संत-महिमा

संतभावकी प्राप्ति भगवत्कृपासे होती है

संसारमें संतोंका स्थान सबसे ऊँचा है। देवता और मनुष्य, राजा और प्रजा—सभी सच्चे संतोंको अपनेसे बढ़कर मानते हैं। संतका ही जीवन सार्थक होता है। अतएव सभी लोगोंको संतभावकी प्राप्तिके लिये भगवान् के शरण होना चाहिये। यहाँ एक प्रश्न होता है कि ‘संतभावकी प्राप्ति प्रयत्नसे होती है या भगवत्कृपासे अथवा दोनोंसे? यदि यह कहा जाय कि वह केवल प्रयत्न साध्य है तो सब लोग प्रयत्न करके संत क्यों नहीं बन जाते? यदि कहें कि भगवत्कृपासे होती है तो भगवत्कृपा सदा सबपर अपरिमित है ही, फिर सबको संतभावकी प्राप्ति क्यों नहीं हो जाती? दोनोंसे कही जाय तो फिर भगवत्कृपाका महत्त्व ही क्या रह जायगा, क्योंकि दूसरे प्रयत्नोंके सहारे बिना केवल उससे भगवत्प्राप्ति हुई नहीं? इसका उत्तर यह है कि भगवत्प्राप्ति यानी संतभावकी प्राप्ति भगवत्कृपासे ही होती है। वास्तवमें भगवत्प्राप्तपुरुषको ही संत कहा जाता है। ‘सत् पदार्थ केवल परमात्मा है और परमात्माके यथार्थ तत्त्वको जो जानता है और उसे उपलब्ध कर चुका है वही संत है। हाँ, गौणी वृत्तिसे उन्हें भी संत कह सकते हैं जो भगवत्प्राप्तिके पात्र हैं, क्योंकि वे भगवत्प्राप्तिरूप लक्ष्यके समीप पहुँच गये हैं और शीघ्र उन्हें भगवत्प्राप्तिकी सम्भावना है।

इसपर यह शंका होती है कि जब परमात्माकी कृपा सभीपर है, तब सभीको परमात्माकी प्राप्ति हो जानी चाहिये। परंतु ऐसा क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि यदि परमात्माकी प्राप्तिकी तीव्र चाह हो और भगवत्कृपामें विश्वास हो तो सभीको प्राप्ति हो सकती है। परंतु परमात्माकी प्राप्ति चाहते ही कितने मनुष्य हैं तथा परमात्माकी कृपापर विश्वास ही कितनोंको है? जो चाहते हैं और जिनका विश्वास है उन्हें प्राप्ति होती ही है। यदि यह कहा जाय कि परमात्माकी प्राप्ति तो सभी चाहते हैं, तो यह ठीक नहीं है; ऐसी चाह वास्तविक चाह नहीं है। हम देखते हैं जिसको धनकी चाह होती है, वह धनके लिये सब कुछ करने तथा इतर सबका त्याग करनेको तैयार हो जाता है, इसी प्रकारकी भगवत्प्राप्तिकी तीव्र चाह कितनोंको है? धन तो चाहनेपर भी प्रारब्धमें होता है तभी मिलता है, प्रारब्धमें नहीं होता तो नहीं मिलता। परंतु भगवान् तो चाहनेपर अवश्य मिल जाते हैं, क्योंकि भगवान् धनकी भाँति जड नहीं हैं। जड धन हमारी चाहके बदलेमें वैसी चाह नहीं कर सकता, परंतु भगवान् तो, जो उनको चाहता है, उसको स्वयं चाहते हैं, और यह निश्चित सत्य है कि भगवान् की चाह कभी निष्फल नहीं होती, वह अमोघ होती है। अतएव भगवान् की चाहसे बिना ही प्रयत्न किये भक्तकी चाह अपने-आप पूर्ण हो जाती है। पर इतना स्मरण रखना चाहिये कि भक्तके चाहनेपर ही भगवान् उसे चाहते हैं। यदि यह कहें कि भक्तके बिना चाहे भगवान् क्यों नहीं चाहते? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् में वस्तुत: ‘चाह’ है ही नहीं, भक्तकी चाहसे ही उनमें चाह पैदा होती है। इसपर यह शंका है कि जब भक्तकी चाहसे ही भगवान् में चाह होकर भगवान् मिलते हैं तब केवल भगवत्कृपाकी प्रधानता कहाँ रही? चाह भी तो एक प्रयत्न ही है? इसका उत्तर यह है कि भगवान् को प्राप्त करनेकी इच्छामात्रको प्रयत्न नहीं कहा जा सकता। और यदि इसीको प्रयत्न मानें तो इतना प्रयत्न तो अवश्य ही करना पड़ता है। परंतु ध्यान देकर देखनेसे मालूम होगा कि इच्छा करने मात्रसे प्राप्त होनेवाले एक श्रीभगवान् ही हैं। दुनियामें लोग नाना प्रकारके पदार्थोंकी इच्छा करते हैं; परंतु इच्छा करनेसे ही उन्हें कुछ नहीं मिलता। इच्छा हो, प्रारब्धका संयोग हो और फिर प्रयत्न हो तब भौतिक पदार्थ मिलता है। पर भगवान् के लिये तो इच्छामात्रसे ही काम हो जाता है। इच्छा करनेपर जो प्रयत्न होता है वह प्रयत्न तो भगवान् स्वयं करा लेते हैं। साधक तो केवल निमित्तमात्र बनता है। अर्जुनसे भगवान् ने कहा—‘ये सब मेरे द्वारा मारे हुए हैं तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा।’ (गीता ११। ३३) इसी प्रकार अपनी प्राप्तिरूप कार्यकी सिद्धिमें भी सब कुछ भगवान् ही कर लेते हैं। इच्छा करनेवाले भक्तको केवल निमित्तमात्र बनाते हैं। जो लोग भगवत्प्राप्तिको केवल अपने पुरुषार्थसे सिद्ध होनेवाली मानते हैं, उनको भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देते। हाँ, उन्हें बड़ी कठिनाईसे ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है परंतु उसमें भी गुरुकी शरण तो ग्रहण करनी ही पड़ती है। भगवान् स्वयं कहते हैं—

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(गीता ४। ३४)

‘उस ज्ञानको तू समझ; श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्यके पास जाकर उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।’

श्रुति कहती है—

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
(कठ० १।३।१४)

‘उठो, जागो और महान् पुरुषोंके समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छुरेकी धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस पथको भी वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।’

भगवत्प्राप्तिमें केवल अपना पुरुषार्थ माननेका कारण—अहंकाररूपी दोष है। भक्तके इस अहंकार दोषको नष्ट करनेके लिये भगवान् उसे भीषण संकटमें डालकर यह बात प्रत्यक्ष दिखला देते हैं कि कार्यसिद्धिमें अपनी सामर्थ्य मानना मनुष्यकी एक बड़ी गलती है। इस प्रकार अहंकारनाशके लिये जो विपत्तिमें डालना है, यह भी भगवान् की विशेष कृपा है। केनोपनिषद् में एक कथा है—इन्द्र, अग्नि, वायु और देवोंने विजयमें अपने पुरुषार्थको कारण समझा, इसलिये उन्हें गर्व हो गया। तब भगवान् ने उनपर कृपा करके यक्षके रूपमें अपना परिचय दिया और उनके गर्वका नाश किया। जब अग्नि, वायुदेवता परास्त हो गये और यह समझ गये कि हमारे अन्दर वस्तुत: कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, तब भगवान् ने विशेष दया करके भगवती उमाके द्वारा इन्द्रको अपना यथार्थ परिचय दिया। सफलतामें अपना पुरुषार्थ मानकर मनुष्य गर्व करता है परन्तु अनिवार्य विपत्तिमें जब वह अपने पुरुषार्थसे निराश हो जाता है तब निरुपाय होकर भगवान् की शरण जाता है और आर्त होकर पुकार उठता है—‘नाथ, मुझे इस घोर संकटसे बचाइये। मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। मैं जो अपने बलसे अपना उद्धार मानता था, वह मेरी भारी भूल थी। राग-द्वेष और काम-क्रोधादि शत्रुओंके दबानेसे अब मुझे इस बातका पूरा पता लग गया कि आपकी कृपाके बिना मेरे लिये इनसे छुटकारा पाना कठिन ही नहीं, वरं असम्भव-सा है।’ जब अहंकारको छोड़कर इस तरह सरल भावसे और सच्चे हृदयसे मनुष्य भगवान् के शरण हो जाता है तब भगवान् उसे अपना लेते हैं और आश्वासन देते हैं, क्योंकि भगवान् की यह घोषणा है—

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्‍व्रतं मम॥
(वा० रा० ६। १८। ३३)

‘जो एक बार भी मेरी शरण होकर कहता है, मैं तुम्हारा हूँ, (तुम मुझे अपना लो) मैं उसे सब भूतोंसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’ इसपर भी मनुष्य उनके शरण होकर अपना कल्याण नहीं करता, यह बड़े आश्चर्यकी बात है!

दयासागर भगवान् की जीवोंपर इतनी अपार दया है कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं। वस्तुत: उन्हें दया-सागर कहना भी उनकी स्तुतिके व्याजसे निन्दा ही करना है। क्योंकि सागर तो सीमावाला है, परंतु भगवान् की दयाकी तो कोई सीमा ही नहीं है। अच्छे-अच्छे पुरुष भी भगवान् की दयाकी जितनी कल्पना करते हैं, वह उससे भी बहुत ही बढ़कर है। उसकी कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। कोई ऐसा उदाहरण नहीं जिसके द्वारा भगवान् की दयाका स्वरूप समझाया जा सके। माताका उदाहरण दें तो वह भी उपयुक्त नहीं है। कारण, दुनियामें असंख्य जीव हैं और उन सबकी उत्पत्ति माताओंसे ही होती है, उन सारी माताओंके हृदयोंमें अपने पुत्रोंपर जो दया या स्नेह है, वह सब मिलकर भी उन दयासागरकी दयाकी एक बूँदके बराबर भी नहीं है। ऐसी हालतमें और किससे तुलना की जाय? तो भी माताका उदाहरण इसीलिये दिया जाता है कि लोकमें जितने उदाहरण हैं, उन सबमें इसकी विशेषता है। माता अपने बच्चेके लिये जो कुछ भी करती है, उसकी प्रत्येक क्रियामें दया भरी रहती है। इस बातका बच्चेको भी कुछ-कुछ अनुभव रहता है। जब बच्चा शरारत करता है तो उसके दोषनिवारणार्थ माँ उसे धमकाती मारती है और उसको अकेला छोड़कर कुछ दूर हट जाती है। ऐसी अवस्थामें भी बच्चा माताके ही पास जाना चाहता है। दूसरे लोग उससे पूछते हैं—‘तुम्हें किसने मारा?’ वह रोता हुआ कहता है—‘माँने!’ इसपर वे कहते हैं—‘तो आइन्दा उसके पास नहीं जाना।’ परंतु वह उनकी बातपर ध्यान न देकर रोता है और माताके पास ही जाना चाहता है। उसे भय दिखलाया जाता है कि ‘माँ तुझे फिर मारेगी।’ पर इस बातका उसपर कोई असर नहीं होता, वह किसी भी बातकी परवा न करके अपने सरल भावसे माताके ही पास जाना चाहता है। रोता है, परंतु चाहता है माताको ही। जब माता उसे हृदयसे लगाकर उसके आँसू पोंछती है, आश्वासन देती है, तभी वह शान्त होता है। इस प्रकार माताकी दयापर विश्वास करनेवाले बच्चेकी भाँति जो भगवान् के दया-तत्त्वको जान लेता है और भगवान् की मारपर भी भगवान् को ही पुकारता है, भगवान् उसे अपने हृदयसे लगा लेते हैं। फिर जो भगवान् की कृपाको विशेषरूपसे जान लेता है, उसकी तो बात ही क्या है?

लड़का नीचेके तल्लेसे ऊपरके तल्लेपर जब चढ़ना चाहता है तो माता उसे सीढ़ियोंके पास ले जाकर चढ़नेके लिये उत्साहित करती है। कहती है—‘बेटा! चढ़ो, गिरोगे नहीं, मैं साथ हूँ न? लो, मैं हाथ पकड़ती हूँ।’ यों साहस और आश्वासन देकर उसे एक-एक सीढ़ी चढ़ाती है, पूरा खयाल रखती है, कहीं गिर न जाय; जरा-सा भी डिगता है तो तुरंत हाथका सहारा देकर थाम लेती और चढ़ा देती है; बच्चा जब चढ़नेमें कठिनाईका अनुभव करता है तब माँकी ओर ताककर मानो इशारेसे माँकी मदद चाहता है। माँ उसी क्षण उसे अवलम्बन देकर चढ़ा देती है और पुन: उत्साह दिलाती है। बच्चा कहीं फिसल जाता है तो माँ तुरंत उसे गोदमें उठा लेती है, गिरने नहीं देती। इसी प्रकार जो पुरुष बच्चेकी भाँति भगवान् पर भरोसा (निर्भर) करता है, भगवान् उसकी उन्नति और रक्षाकी व्यवस्था स्वयं करते हैं, उसे तो केवल निमित्त बनाते हैं। सांसारिक माता तो कदाचित् असावधानी और सामर्थ्यके अभावसे या भ्रमसे गिरते हुए बच्चेको न भी बचा सके, परंतु वे सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी, परमदयालु, सर्वज्ञ प्रभु तो अपने आश्रितोंको कभी गिरने देते ही नहीं। वरन् उत्तरोत्तर उसे सहायता देते हुए, एक-एक सीढ़ी चढ़ाते हुए सबसे ऊपरके तल्लेपर, जहाँ पहुँचना ही जीवका अन्तिम ध्येय है, पहुँचा ही देते हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रयत्न भगवान् ही करते हैं, भक्तको तो केवल इच्छा करनी पड़ती है और उसीसे भगवान् उसे निमित्त बना देते हैं। बच्चा कभी अभिमानवश यह सोचता है कि मैं अपने ही पुरुषार्थसे चढ़ता हूँ, तब माता कुछ दूर हटकर कहती है, ‘अच्छा चढ़।’ परंतु सहारा न पानेसे वह चढ़ नहीं सकता। गिरने लगता है और रोता है, तब माता दौड़कर उसे बचाती है। इसी प्रकार अपने प्रयत्नका अभिमान करनेवाला भी गिर सकता है। परन्तु यह ध्यान रहे, भगवान् की कृपाका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि मनुष्य सब कुछ छोड़कर हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ जाय, कुछ भी न करे। ऐसा मानना तो प्रभुकी कृपाका दुरुपयोग करना है। जब माता बच्चेको ऊपर चढ़ाती है, तब सारा कार्य माता ही करती है, परन्तु बच्चेको माताके आज्ञानुसार चेष्टा तो करनी ही पड़ती है। जो बच्चा माँके इच्छानुसार चेष्टा नहीं करता या उससे विपरीत करता है, उसको माता उसके हितार्थ डराती-धमकाती है तथा कभी-कभी मारती भी है।

इस मारमें भी माँके हृदयका प्यार भरा रहता है, यह भी उसकी परम दयालुता है। इसी प्रकार भगवान् भी दयापर वश होकर समय-समयपर हमको चेतावनी देते हैं। मतलब यह कि जैसे बच्चा अपनेको और अपनी सारी क्रियाओंको माताके प्रति सौंपकर मातृपरायण होता है, इसी प्रकार हमें भी अपने-आपको और अपनी सारी क्रियाओंको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उनके चरणोंमें पड़ जाना चाहिये। इस प्रकार बच्चेकी तरह परम श्रद्धा और विश्वासके साथ जो अपने-आपको परमात्माकी गोदमें सौंप देता है वही पुरुष परमात्माकी कृपाका इच्छुक और पात्र समझा जाता है और इसके फलस्वरूप वह परमात्माकी दयासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है। सारांश यह है कि परमात्माकी प्राप्ति परमात्माकी दयासे ही होती है; दया ही एकमात्र कारण है। परन्तु यह दया मनुष्यको अकर्मण्य नहीं बना देती। परमात्माकी दयासे ही ऐसा परम पुरुषार्थ बनता है। जीवका अपना कोई पुरुषार्थ नहीं, वह तो निमित्तमात्र होता है।

संतकी विशेषता

उपर्युक्त दयासागर भगवान् की दयाके तत्त्व और रहस्यको यथार्थ जाननेवाला पुरुष भी दयाका समुद्र और सब भूतोंका सुहृद् बन जाता है, भगवान् ने कहा है—‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ (गीता ५। २९) इस कथनका रहस्य यही है कि दयामय भगवान् को सब भूतोंका सुहृद् समझनेवाला पुरुष उस दयासागरके शरण होकर निर्भय हो जाता है तथा परम शान्ति और परमानन्दको प्राप्त होकर स्वयं दयामय बन जाता है। इसलिये भगवान् ठीक ही कहते हैं कि मुझको सबका सुहृद् समझनेवाला शान्तिको प्राप्त हो जाता है, ऐसे भगवत्प्राप्त पुरुष ही वास्तवमें संत-पदके योग्य हैं। ऐसे संतोंको कोई-कोई तो विनोदमें भगवान् से भी बढ़कर बता दिया करते हैं। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं—

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥

‘भगवान् समुद्र हैं तो संत मेघ हैं, भगवान् चन्दन हैं तो संत समीर(पवन) हैं। इस हेतुसे मेरे मनमें ऐसा विश्वास होता है कि रामके दास रामसे बढ़कर हैं।’ दोनों दृष्टान्तोंपर ध्यान दीजिये। समुद्र जलसे परिपूर्ण है, परंतु वह जल किसी काममें नहीं आता। न कोई उसे पीता है और न उससे खेती ही होती है। परंतु बादल जब उसी समुद्रसे जलको उठाकर यथायोग्य बरसाते हैं तो केवल मोर, पपीहा और किसान ही नहीं—सारे जगत् में आनन्दकी लहर बह जाती है। इसी प्रकार परमात्मा सच्चिदानन्दघन सब जगह विद्यमान हैं, परन्तु जबतक परमात्माके तत्त्वको जाननेवाले भक्तजन उनके प्रभावका सब जगह विस्तार नहीं करते, तबतक जगत् के लोग परमात्माको नहीं जान सकते। जब महात्मा संत पुरुष सर्वसद्गुणसागर परमात्मासे समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनन्द आदि गुण लेकर बादलोंकी भाँति संसारमें उन्हें बरसाते हैं, तब जिज्ञासु साधकरूप मोर, पपीहा, किसान ही नहीं, अपितु सारे जगत् के लोग उससे लाभ उठाते हैं। भाव यह है कि भक्त न होते तो भगवान् की गुणगरिमा और महत्त्व-प्रभुत्वका विस्तार जगत् में कौन करता? इसलिये भक्त भगवान् से ऊँचे हैं। दूसरी बात यह है कि जैसे सुगन्ध चन्दनमें ही है, परंतु यदि वायु उस सुगन्धको वहन करके अन्य वृक्षोंतक नहीं ले जाता तो चन्दनकी गन्ध चन्दनमें ही रहती, नीम आदि वृक्ष कदापि चन्दन नहीं बनते। इसी प्रकार भक्तगण यदि भगवान् की महिमाका विस्तार नहीं करते तो दुर्गुणी, दुराचारी मनुष्य भगवान् के गुण और प्रेमको पाकर सद्गुणी, सदाचारी नहीं बनते। इसलिये भी संतोंका दर्जा भगवान् से बढ़कर है। वे संत जगत् के सारे जीवोंमें समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनन्दका विस्तारकर सबको भगवान् के सदृश बना देना चाहते हैं।

संतोंकी दया

उन महात्माओंमें कठोरता, वैर और द्वेषका तो नाम ही नहीं रहता। वे इतने दयालु होते हैं कि दूसरेके दु:खको देखकर उनका हृदय पिघल जाता है। वे दूसरेके हितको ही अपना हित समझते हैं। उन पुरुषोंमें विशुद्ध दया होती है। जो दया कायरता, ममता, लज्जा, स्वार्थ और भय आदिके कारण की जाती है, वह शुद्ध नहीं है। जैसे भगवान् की अहैतुकी दया समस्त जीवोंपर है—इसी प्रकार महापुरुषोंकी अहैतुकी दया सबपर होती है। उनकी कोई कितनी ही बुराई क्यों न करे, बदला लेनेकी इच्छा तो उनके हृदयमें होती ही नहीं। कहीं बदला लेनेकी-सी क्रिया देखी जाती है, तो वह भी उसके दुर्गुणोंको हटाकर उसे विशुद्ध करनेके लिये ही होती है। इस क्रियामें भी उनकी दया छिपी रहती है। जैसे माता-पिता-गुरुजन बच्चेके सुधारके लिये स्नेहपूर्ण हृदयसे उसे दण्ड देते हैं—इसी प्रकार संतोंमें भी कभी-कभी ऐसी क्रिया होती है, परंतु इसमें भी परम हित भरा रहता है। वे संत करुणाके भण्डार होते हैं। जो कोई उनके समीप जाता है, वह मानो दयाके सागरमें गोते लगाता है। उन पुरुषोंके दर्शन, भाषण, स्पर्श और चिन्तनमें भी मनुष्य उनके दयाभावको देखकर मुग्ध हो जाता है। वे जिस मार्गसे निकलते हैं, मेघकी ज्यों दयाकी वर्षा करते हुए ही निकलते हैं। मेघ सब समय और सब जगह नहीं बरसता, परन्तु संत तो सदा सर्वदा सर्वत्र बरसते ही रहते हैं। उनके दर्शन, भाषण, चिन्तन और स्पर्शसे सारे जीव पवित्र हो जाते हैं, उनके चरण जहाँ टिकते हैं, वह भूमि पावन हो जाती है। उनके चरणोंसे स्पर्श की हुई रज स्वयं पवित्र होकर दूसरोंको पवित्र करनेवाली बन जाती है। उनके द्वारा देखे, चिन्तन किये हुए और स्पर्श किये हुए पदार्थ भी पवित्र हो जाते हैं। फिर उनके कुलकी— विशेषत: उन्हें जन्म देनेवाले माता-पिताकी तो बात ही क्या है। ऐसे महापुरुष जिस देशमें जन्मते हैं और शान्त होते हैं, वे देश तीर्थ माने जाते हैं। आजतक जितने तीर्थ बने हैं, वे सब परमेश्वर और परमेश्वरके भक्तोंके निमित्तसे ही बने हैं। इतना ही नहीं, सब लोकोंको पवित्र करनेवाले तीर्थ भी उनके चरणस्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं।

धर्मराज युधिष्ठिर महात्मा विदुरसे कहते हैं—

भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता॥
(श्रीमद्भा० १।१३।१०)

‘हे स्वामिन्! आप-सरीखे भगवद्भक्त स्वयं तीर्थरूप हैं। (पापियोंके द्वारा कलुषित हुए) तीर्थोंको आपलोग अपने हृदयमें स्थित भगवान् श्रीगदाधरके प्रभावसे पुन: तीर्थत्व प्रदान करा देते हैं।’

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन्-
लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेत:॥
(स्कन्द० माहेश्वर० कौमार० ५५।१४०)

‘जिसका चित्त अपार संवित्सुखसागर परब्रह्ममें लीन है, उसके जन्मसे कुल पवित्र होता है, उसकी जननी कृतार्थ होती है और पृथ्वी पुण्यवती होती है।’

यह सब उनके द्वारा स्वाभाविक ही होता है, उन्हें करना नहीं पड़ता। भगवान् तो भजनेवालोंको भजते हैं, परंतु वे दयालु संत नहीं भजनेवालेका, यहाँतक कि गाली देने और अहित करनेवालेका भी हित ही करनेमें तुले रहते हैं। कुल्हाड़ा चन्दनको काटता है, पर चन्दन उसे स्वाभाविक ही अपनी सुगन्ध दे देता है।

काटइ परसु मलय सुनु भाई।
निज गुन देइ सुगंध बसाई॥

प्रह्लाद, अम्बरीष आदिके इतिहास इसमें प्रमाण हैं। अतएव विनोदमें भक्तको भगवान् से बढ़कर बतलाना भी युक्तियुक्त ही है। संतजन सुरसरि और सुरतरुसे भी विशेष उपकारी हैं। गंगा और कल्पवृक्ष उनके शरण होनेपर क्रमश: पवित्र करते और मनोरथ पूर्ण करते हैं। परन्तु संत तो इच्छा करनेवाले और न करनेवाले सभीके घर स्वयं जाकर उनके इस लोक और परलोकके कल्याणकी चेष्टा करते हैं। इसपर यदि यह कहा जाय कि संत जब सबका हित चाहते हैं तो सबका हित हो क्यों नहीं जाता? इसका उत्तर यह है कि सामान्यभावसे तो संतसे जिन लोगोंकी भेंट हो जाती है, उन सभीका हित होता है। परंतु विशेष लाभ तो श्रद्धा और प्रेम होनेपर ही होता है। यदि यह कहा जाय कि जबरदस्ती सबका हित संत क्यों नहीं कर देते? इसका उत्तर यह है कि जबरदस्ती कोई किसीका परम हित नहीं कर सकता। पतंग दीपकमें जलकर मरते हैं। दयालु पुरुष उनपर दया करके उन्हें बचानेके लिये उस दीपक या लालटेनको बुझाकर उनका परम हित करना चाहते हैं, परन्तु वे पतंग जहाँ दूसरे दीपक जलते रहते हैं, वहाँ जाकर जल मरते हैं। इसी प्रकार जिन लोगोंको कल्याणकी स्वयं इच्छा नहीं होती उनका कल्याण करना बहुत ही कठिन है।

यदि यह कहा जाय कि श्रद्धा-प्रेम करनेवालोंका तो विशेष कल्याण करते हैं और दूसरोंका सामान्यभावसे करते हैं, तो इसमें विषमताका दोष आता है। इसका उत्तर यह है कि ऐसी बात नहीं है। श्रद्धा और प्रेमकी कमीके कारण यदि लोग संतोंकी सबपर छायी हुई समान अपरिमित दयासे लाभ नहीं उठा सकते तो इसमें उनका दोष नहीं है। सूर्य बिना किसी पक्षपात या संकोचके सभीको समानभावसे प्रकाश देता है, परंतु दर्पणमें प्रतिबिम्ब पड़ता है और सूर्यकान्त शीशा सूर्यके प्रकाशको पाकर दूसरी वस्तुको जला दे सकता है। इसमें सूर्यका दोष या पक्षपात नहीं है। इसी प्रकार जिनमें श्रद्धा, प्रेम नहीं है वे काष्ठकी भाँति कम लाभ उठाते हैं और श्रद्धा, प्रेमवाले सूर्यकान्त शीशेकी भाँति अधिक लाभ उठाते हैं। सूर्य सबको स्वाभाविक ही प्रकाश देता है; परंतु उल्लूके लिये वह अन्धकाररूप होता है। चन्द्रमाकी सर्वत्र बिखरी हुई चाँदनीको चोर बुरा समझता है, इसमें चन्द्रमाका कोई दोष नहीं है, वे तो सबका उपकार ही करते हैं। इसी प्रकार महापुरुष तो सभीका उपकार ही करते हैं; किन्तु अत्यन्त दुष्ट और नीच प्रकृतिवाले मनुष्य उल्लूकी भाँति अपनी बुद्धिहीनताके कारण उनसे द्वेष करते हैं और चोरकी भाँति उनकी निन्दा करते हैं—इसमें संतोंका क्या दोष?

यदि कहा जाय कि ऐसे दयालु पुरुषोंसे जब प्रत्यक्ष ही सबको परम लाभ है, तब सभी लोग उनका संग और सेवन करके लाभ क्यों नहीं उठाते? इसका यह उत्तर है कि वे लोग संतोंके गुण, प्रभाव और तत्त्वको नहीं जानते। तत्त्व जाने बिना कोई विशेष लाभ नहीं उठा सकता। एक कुत्ता था। उसने गुड़की हाँड़ीमें मुँह डाल दिया। इतनेमें खड़खड़ाहटकी आवाज हुई। कुत्तेने भागना चाहा। इसी गड़बड़में हाड़ी फूट गयी। हाँड़ीकी गर्दनी कुत्तेके गलेमें रह गयी। कुत्तेको कष्ट पाते देखकर एक दयालु मनुष्य हाथमें लाठी लेकर इसलिये कुत्तेके पीछे दौड़ा कि लाठीसे हाँड़ीकी गर्दनी तोड़ दी जाय तो कुत्ता कष्टसे छूट जाय। कुत्तेने अपने पीछे लाठी लिये दौड़ते हुए मनुष्यके असली उद्देश्यको न समझकर यह समझा कि यह मुझे मारनेको दौड़ रहा है। वह और भी जोरसे भागा और उसका कष्ट दूर नहीं हो सका। इसी प्रकार महापुरुषोंके तत्त्वको न समझकर उनकी क्रियामें भी विपरीत भावना कर सब लोग लाभ नहीं उठा सकते।

संतोंमें समता

ऐसे महापुरुषोंकी दया ही नहीं, समता भी बड़ी अद्भुत होती है, उन्हें यदि समताकी मूर्ति कहें तब भी अत्युक्ति नहीं। भगवान् सम हैं और उन संतोंकी भगवान् में स्थिति है—इसलिये वे भी स्वाभाविक ही समताको प्राप्त हैं। जैसे सुख-दु:खकी प्राप्ति होनेपर अज्ञानी पुरुषकी शरीरमें समता रहती है वैसे ही संतोंकी चराचर सब जीवोंमें समता रहती है।

प्र०-अज्ञानियोंका देहमें जैसा प्रेम है क्या संतोंका सारे चराचरमें वैसा प्रेम हो जाता है? या संतोंका जैसे देहमें प्रेम नहीं है, वैसे क्या चराचर भूतोंसे उनका प्रेम हट जाता है? उनकी समताका क्या स्वरूप है?

उ०-उनकी समता वस्तुत: इतनी विलक्षण है कि उदाहरणके द्वारा वह समझायी नहीं जा सकती; क्योंकि अज्ञानीका देहमें जैसा अहंकार रहता है, संतका संसारमें वैसा अहंकार नहीं रहता। इसलिये यह कहना नहीं बनता कि संतका अज्ञानियोंकी देहकी भाँति सबमें प्रेम हो जाता है और सबमें प्रेमका अभाव इसलिये नहीं बतलाया जा सकता कि अज्ञानी लोग अपने देहके स्वार्थके लिये जहाँ दूसरेका अहित कर डालते हैं, वहाँ ये संत पुरुष दूसरोंके हितके लिये हँसते-हँसते अपने शरीरकी बलि चढ़ा देते हैं। परन्तु उनकी वह समता इतनी अद्भुत है कि दूसरेके हितके लिये शरीरका बलिदान करनेपर भी उसमें कोई विषमता नहीं आ सकती। इसलिये किसी उदाहरणके द्वारा इस समताका स्वरूप समझाना बहुत कठिन है। तथापि लोक और वेदमें समझानेके लिये ऐसा ही कहा जाता है कि जैसे अज्ञानीको सुख-दु:खकी प्राप्तिमें सारे शरीरमें समता होती है, वैसे ही संतोंको सब जीवोंके सुख-दु:खकी प्राप्तिमें समता और अहंकार न होते हुए भी समता होती है। अर्थात् जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने सुख-दु:खसे सुखी-दु:खी होता है, संतजन ममता और अहंकारसे रहित होनेपर भी और अपने सुख-दु:खसे सुखी-दु:खीसे प्रतीत न होनेपर भी दूसरे समस्त जीवोंके सुख-दु:खमें सुखी-दु:खीसे प्रतीत होते हैं। ऐसी स्थिति मनुष्यको प्रतिपक्ष भावनासे प्राप्त होती है। [अज्ञानी मनुष्य जैसे अपनी देहमें अहंभावना और दूसरोंमें परभावना करते हैं—इससे विपरीत दूसरोंमें आत्मभावना और अपने शरीरमें परकी-सी भावना करनेका नाम प्रतिपक्ष (उलटी) भावना है।] बहुत-से लोग संतोंकी समदृष्टिके रहस्यको न जानकर समदृष्टिसम्बन्धी शास्त्रवाक्योंका दुरुपयोग करते हैं। गीतामें भगवान् ने कहा है—

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(५।१८)

‘वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं।’

इसका उलटा अर्थ करते हुए वे लोग कहते हैं कि ‘खान-पान आदिमें समव्यवहार करना ही समदर्शन है।’ परन्तु ऐसा समव्यवहार न तो सम्भव है, न आवश्यक है और न भगवान् के कथनका यह उद्देश्य ही है। क्योंकि हाथी सवारीके योग्य है, कुत्ता सवारीके योग्य नहीं। गौका दूध सेवन योग्य है, कुतिया और हथिनीका नहीं। इन सबके खाद्य, व्यवहार, स्वरूप, आकृति, जाति और गुण एक-दूसरेसे अत्यन्त विलक्षण और भिन्न होनेके कारण इन सबमें समान व्यवहार नहीं हो सकता है, न करना ही चाहिये और न करनेके लिये कोई कह ही सकता है। जैसे अपने लिये सुख और सुखके साधनकी प्राप्ति और दु:खके साधनकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न किया जाता है, वैसे ही सबमें एक ही आत्मा समरूपसे स्थित है, इस बातका अनुभव करते हुए, सबके लिये उनका जिस प्रकारसे हित हो उसी प्रकारसे यथायोग्य व्यवहार करना ही वास्तविक समता है।

जैसे हम अपने देहमें हाथोंसे ग्रहण करनेका, आँखोंसे देखनेका, कानोंसे सुननेका—इस प्रकार विभिन्न इन्द्रियोंके द्वारा यथायोग्य विभिन्न व्यवहार करते हैं, परन्तु आत्मीयताकी दृष्टिसे सबमें समता है। वैसे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करते हुए आत्मीयताकी दृष्टिसे सबमें समता रहनी चाहिये। शास्त्रीय विषमता व्यवहारमें दूषित नहीं है, बल्कि परमार्थमें सहायक है। जिस विषमतासे किसीका अहित हो, वही वास्तविक विषमता है। स्त्रियोंके अवयव एकसे होनेपर भी माता, बहिन और पत्नीके साथ सम्बन्धके अनुसार ही यथायोग्य विभिन्न व्यवहार होते हैं और यह विषमता शास्त्रीय और न्यायसंगत होनेसे सेवनीय है। इतना ही नहीं, परम पूजनीया मातामें पूज्यभाव होनेपर भी रजस्वला या प्रसवकी स्थितिमें हम उसका स्पर्श नहीं करते, करनेपर स्नान करनेकी विधि है। ऐसी विषमता वस्तुत: विषमता नहीं है। इसके माननेमें लाभ है और न माननेमें हानि। घरमें कुत्तेको रोटी देते हैं, गायको घास देते हैं, बीमारको दवा दी जाती है परन्तु सभीको घास, दवा या रोटी समान नहीं दी जाती। यह विषमता विषमता नहीं है। जैसे कोई भी अपने आत्माका जान-बूझकर अहित नहीं करता, उसे दु:ख नहीं देता और अपना कल्याण चाहता है एवं सुख तथा कल्याणके लिये चेष्टा करता है—इसी प्रकार किसीको दु:ख न पहुँचाकर, अहित न चाहकर सबका कल्याण चाहना और सुख पहुँचानेकी चेष्टा करना ही समता है। फिर व्यवहारमें यथायोग्य कितनी ही विषमता क्यों न हो, विषमता नहीं है।

मान लीजिये, हमसे कोई मित्रता करता है और दूसरा कोई वैर करता है। उन दोनोंके न्यायका भार प्राप्त हो जाय तो हमें पक्षपातरहित होकर न्याय करना चाहिये, बल्कि कहीं अपने मित्रको समझाकर उसकी सम्मतिसे शत्रुता रखनेवालेका कुछ पक्ष भी कर लें तो वह भी समता ही है।

अनुकूल हितकर पदार्थके प्राप्त होनेपर सबके लिये समभावसे विभाग करना चाहिये, परन्तु कहीं दूसरोंको अधिक और श्रेष्ठ वस्तु दे दें स्वयं कम लें—निकृष्ट लें या बिलकुल ही न लें तो यह विषमता विषमता नहीं है! क्योंकि इसमें किसीका अहित नहीं है, बल्कि अपने स्वार्थका त्याग है! इसी प्रकार विपत्ति और दु:खकी प्राप्तिमें सबके लिये न्याययुक्त समविभाग करते समय भी यदि कहीं दूसरोंको बचाकर विपत्ति या दु:ख अपने हिस्सेमें ले लिया जाय तो यह विषमता भी विषमता नहीं है, बल्कि स्वार्थका त्याग होनेके कारण इसमें उलटा गौरव है। प्रभुमें स्थित होनेके कारण संतमें प्रभुकी समताका समावेश हो जाता है। अतएव इस अनोखी समताका पूरा रहस्य तो प्रभुको प्राप्त करनेपर ही मनुष्य समझ सकता है।

मान-अपमान और निन्दा-स्तुतिमें भी संतमें समता रहती है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि व्यवहारमें सब जगह समताका ही प्रदर्शन हो। हृदयमें मान-अपमानकी प्राप्तिमें हर्ष, शोक आदि विकार नहीं होते।

प्र०-साधारण मनुष्योंको निन्दा और अपमानकी प्राप्तिमें जैसा दु:ख होता है, क्या संतोंको वैसा ही स्तुति या मानमें होता है? अथवा स्तुति या मानमें लोगोंको जैसी प्रसन्नता होती है, संतोंको निन्दा या अपमानमें क्या वैसी ही प्रसन्नता होती है? इन दोनोंमेंसे संतकी समतामें हार्दिक भाव कैसा होता है?

उ०-दोनोंसे ही विलक्षण होता है, अर्थात् मान-अपमान और निन्दा-स्तुतिमें यथायोग्य न्याययुक्त व्यवहार-भेद होनेपर भी उन्हें हर्ष शोक नहीं होते।

प्र०-क्या अपमान और निन्दाका प्रतीकार भी संत करते हैं?

उ०-यदि अपमान या निन्दा करनेवालेका या अन्य किसीका हित हो तो प्रतीकार भी कर सकते हैं।

प्र०-क्या वे मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाकी प्राप्तिको व्यवहारमें स्वीकार कर लेते हैं या उनका विरोध ही करते हैं।

उ०-देश, काल और परिस्थितिको देखकर शास्त्रानुकूल दोनों ही बातें कर सकते हैं। विरोध करनेमें किसीका हित होता है तो विरोध करते हैं और स्वीकार करनेमें किसीका हित होता है तो न्यायसे प्राप्त होनेपर स्वीकार भी कर लेते हैं।

प्र०-तब फिर व्यवहारमें महापुरुषकी पहचान कैसे हो?

उ०-व्यवहारकी क्रियासे महापुरुषको पहचानना बहुत कठिन है। इतना ही जान सकते हैं कि ये अच्छे पुरुष हैं। फिर चाहे वे सिद्ध हों या साधक! दोनोंको ही संत माननेमें कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि साधक भी तो सिद्ध संत बननेवाला है। वस्तुत: जिसका व्यवहार सत् है वही संत है।

लाभ हानि और जय-पराजयमें भी संतकी विलक्षण समता होती है।

प्र०-साधारण मनुष्योंको जैसे लाभ और जयमें प्रीति-प्रसन्नता होती है, तो क्या संतको इसके विपरीत हानि और पराजयमें प्रसन्नता होती है? अथवा साधारण मनुष्योंको जैसे हानि-प्राप्तिमें द्वेष, घृणा, भय, शोक आदि होते हैं, तो क्या संतको लाभ और जयमें द्वेष, घृणा, भय, शोक आदि होते हैं।

उ०-नहीं, उसकी समता इन सबसे विलक्षण है; क्योंकि वे हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि समस्त विकारोंसे सर्वथा रहित होते हैं।

प्र०-ऐसी अवस्थामें क्या हानि-पराजय होनेपर साधारण मनुष्योंकी भाँति संतका व्यवहार ईर्ष्या और भयका-सा भी हो सकता है।

उ०-यदि संसारका हित हो या न्याययुक्त मर्यादाकी रक्षा हो तो हो भी सकता है; परन्तु उनके मनमें किसी प्रकारका भी विकार नहीं होता।

प्र०-जो कुछ भी बाहरी क्रिया होती है वह पहले मनमें आती है। बिना मनमें आये बाहरी क्रिया कैसे सम्भव है?

उ०-नाटकके पात्रोंमें जैसे सभी प्रकारके बाहरी व्यवहार होते हैं; परन्तु उनके मनमें अभिनय बुद्धिके अतिरिक्त कोई वास्तविकता नहीं होती, इसी प्रकार संतोंके द्वारा नाटकवत् बाहरी व्यवहार होनेपर भी उनके मनमें वस्तुत: कोई विकार नहीं होता।

इसी प्रकार शीतोष्ण, सुख-दु:ख आदि प्रिय-अप्रिय सभी पदार्थोंके सम्बन्धमें उनका समभाव रहता है। सबमें एक अखण्ड नित्य भगवत्स्वरूप समता सदा-सर्वदा सर्वत्र बनी रहती है।

संतोंमें विशुद्ध विश्वप्रेम

संतमें केवल समता ही नहीं, समस्त विश्वमें हेतु और अहंकाररहित अलौकिक विशुद्ध प्रेम भी होता है। जैसे भगवान् वासुदेवका सबमें अहैतुक प्रेम है, वैसे ही भगवान् वासुदेवकी प्राप्ति होनेपर संतका भी समस्त चराचर जगत् में अहैतुक प्रेम हो जाता है; क्योंकि साधन अवस्थामें वह सबको वासुदेवस्वरूप ही समझकर अभ्यास करता है। अतएव सिद्धावस्थामें तो उसके लिये यह बात स्वभावसिद्ध होनी ही चाहिये।

प्र०-ऐसा अहैतुक प्रेम भक्तिके साधनसे होता है या ज्ञानके साधनसे?

उ०-दोनोंमेंसे किसी एकके साधनसे हो सकता है। जो भक्तिका साधन करता है, वह सब भूतोंको ईश्वर समझकर अपने देह और प्राणोंसे बढ़कर उनमें प्रेम करता है; और जो ज्ञानका साधन करता है, वह सम्पूर्ण भूतोंको अपना आत्मा समझकर उनसे देह, प्राण और आत्माके समान प्रेम करता है।

प्र०-जैसे एक अज्ञानी मनुष्यका अपने शरीर, घर, स्त्री, पुत्र, धन, जमीन आदिमें प्रेम होता है, क्या संत पुरुषका सारे विश्वमें वैसा ही प्रेम होता है?

उ०-नहीं, इससे अत्यन्त विलक्षण होता है। अज्ञानी मनुष्य तो शरीर, घर, स्त्री, पुत्र आदिके लिये नीति, धर्म, न्याय, ईश्वर और परोपकारतकका त्याग कर देता है तथा अपने देह, प्राणकी रक्षाके लिये स्त्री, पुत्र, धन आदिका भी त्याग कर देता है; परन्तु संत तो नीति, धर्म, न्याय, ईश्वर और विश्वके लिये केवल स्त्री, पुत्र, धनका ही नहीं, अपने शरीरका भी त्याग कर देते हैं। वे विश्वकी रक्षाके लिये पृथ्वीका, पृथ्वीकी रक्षाके लिये द्वीपका, द्वीपके लिये ग्रामका, ग्रामके लिये कुटुम्बका, कुटुम्ब और उपर्युक्त सबके हितके लिये अपने प्राणोंका आनन्दपूर्वक त्याग कर देते हैं! फिर धर्म, ईश्वर और समस्त विश्वके लिये त्याग करना तो उनके लिये कौन बड़ी बात है। जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने आत्माके लिये सबका त्याग कर देता है, वैसे ही संत पुरुष धर्म, ईश्वर और विश्वके लिये सब कुछ त्याग कर देते हैं; क्योंकि धर्म, ईश्वर और विश्व ही उनका आत्मा है; परन्तु अज्ञानीका जैसे देहमें अहंकार और स्त्री पुत्रादि कुटुम्बमें ममत्व होता है, वैसा संतका अहंकार और ममत्व कहीं नहीं होता। उनका सबमें हेतुरहित विशुद्ध और अत्यन्त अलौकिक अपरिमित प्रेम होता है।

प्र०-भक्तिमार्गपर चलनेवाले भक्तका सम्पूर्ण चराचरमें प्राणोंसे बढ़कर अत्यन्त विलक्षण प्रेम क्यों और कैसे हो जाता है?

उ०-इसलिये होता है कि वे सारे विश्वको अपने इष्टदेवका साक्षात् स्वरूप समझते हैं।

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥

वे भक्त समस्त विश्वके लिये अपने तन, मन, धनको न्योछावर किये रहते हैं। अपनी चीजें स्वामीके काममें आती देखकर वे इस भावसे बड़े ही आनन्दित होते हैं कि स्वामीने कृपापूर्वक हमको और हमारी वस्तुओंको अपना लिया। भक्त अपना यह ध्येय समझता है कि हमारी सब चीजें भगवान् की ही हैं, इसीलिये उन्हींकी सेवामें लगनी चाहिये; परंतु जबतक भगवान् उनको काममें नहीं लाते, तबतक भगवान् ने उनको स्वीकार कर लिया, ऐसा भक्त नहीं समझता और जबतक भगवान् ने स्वीकार नहीं किया, तबतक वह अपने ध्येयकी सिद्धि नहीं मानता; परन्तु जब वे वस्तुएँ प्रसन्नतापूर्वक विश्वरूप भगवान् के काममें आ जाती हैं तब वह अपने ध्येयकी सिद्धि समझकर परम प्रसन्न होता है। विश्वरूप भगवान् की प्रसन्नतामें ही उसकी प्रसन्नता है। इसीलिये वह अपने प्राणोंसे बढ़कर समस्त चराचर विश्वमें प्रेम करता है। यदि कहा जाय कि फिर उसका प्रेम हेतुरहित और विशुद्ध कैसे माना जा सकता है, जब कि वह अपने इष्टको सन्तुष्ट और प्रसन्न करनेके हेतुसे प्रेम करता है? इसका उत्तर यह है कि यह हेतु वस्तुत: हेतु नहीं है यह पवित्र भाव है। यही मनुष्यका परम लक्ष्य होना चाहिये।

जो प्रेम अपने व्यक्तिगत स्वार्थको लेकर होता है, वही कलंकित और दूषित है; परन्तु जब दूसरेके हितके लिये किया जानेवाला प्रेम भी पवित्र माना जाता है, तब दूसरे सबको साक्षात् भगवान् का स्वरूप समझकर ही उनसे प्रेम करना तो परम पवित्र प्रेम है।

प्र०-ज्ञानके मार्गमें चलनेवालेका देह, प्राण और आत्माके समान प्रेम क्यों और कैसे हो जाता है?

उ०-ज्ञानके मार्गमें चलनेवाला सबके आत्माको अपना आत्मा ही समझता है।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता ६। २९)

‘सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त हुए आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें, बर्फमें जलके सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है।’

जब सबको वह आत्मा ही समझता है तब सारे विश्वमें आत्माके सदृश उसका प्रेम होना युक्तियुक्त ही है। इसीलिये जैसे देहको आत्मा माननेवाला अज्ञानी अपने ही हितमें रत रहता है, वैसे ही संत पुरुष सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत रहते हैं और ऐसे सर्वभूतहितमें रत ज्ञानमार्गी साधक ही निर्गुण परमात्मा को प्राप्त होते हैं। भगवान् ने कहा है—

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२।३-४)

‘जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

परंतु जैसे अज्ञानी मनुष्यका देहमें अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति होती है, वैसे संतका विश्वमें अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति नहीं होती। उनका विश्वप्रेम विशुद्ध ज्ञानपूर्ण होता है। अहंकार, अभिमान, ममता, आसक्ति आदि दोषोंको लेकर अथवा व्यक्तिगत स्वार्थवश जो प्रेम होता है, वही दूषित समझा जाता है। क्षणभंगुर, नाशवान् दृश्य पदार्थोंको सत्य मानकर उनके सम्बन्धसे होनेवाले भ्रमजन्य सुखको सुख मानकर उनमें प्रेम करना अज्ञानपूर्ण प्रेम है। ये दोनों बातें संतमें नहीं होतीं—इसलिये उस ज्ञानी संतका प्रेम विशुद्ध और ज्ञानपूर्ण होता है।

प्र०-जैसे भक्त सम्पूर्ण विश्वको साक्षात् अपना इष्टदेव भगवान् समझकर काम पड़नेपर विश्व-हितके लिये प्रसन्नतापूर्वक अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्यसहित अपने-आपको बलि-वेदीपर चढ़ा देता है, क्या ज्ञानमार्गपर चलनेवाला भी अवसर आनेपर ऐसा ही कर सकता है?

उ०-हाँ, कर सकता है; क्योंकि प्रथम तो उसकी दृष्टिमें ऐश्वर्य और देहका कोई मूल्य ही नहीं है। और दूसरे, अज्ञानी मनुष्य ऐश्वर्य और देहको आनन्ददायक मानकर मूल्यवान् समझते हैं। अतएव इनकी दृष्टिसे उन्हें सुख पहुँचानेके लिये ज्ञानी पुरुष ऐश्वर्य और देहका त्याग कर दें—इसमें आश्चर्य और शंका ही क्यों होनी चाहिये?

ज्ञानमार्गपर चलनेवाला पुरुष समस्त चराचर विश्वको अपने चिन्मय आत्मरूपसे ही अनुभव करता है। अतएव उसका सबके साथ आत्मवत् व्यवहार होता है। जैसे किसी समय अपने ही दाँतोंसे जीभके कट जानेपर कोई भी मनुष्य दाँतोंको दण्ड नहीं देना चाहता, वह जानता है कि दाँत और जीभ दोनों मेरे ही हैं। जीभमें तो तकलीफ है ही, दाँतोंमें और तकलीफ क्यों उत्पन्न की जाय। इसी प्रकार ज्ञानमार्गी संत सबको अपना आत्मा समझनेके कारण किसीके द्वारा अनिष्ट किये जानेपर भी उसे दण्ड देनेकी भावना नहीं करते। कभी-कभी यदि ऐसी कोई बात देखी जाती है तो उसका हेतु भी आत्मोपम प्रेम ही होता है। जैसे अपने दूसरे अच्छे अंगोंकी रक्षाके लिये मनुष्य समझ-बूझकर सड़े हुए अंगको कटवा देनेमें अपना हित समझता है, इसी प्रकार संतोंके द्वारा भी विश्वहितार्थ स्वाभाविक ही कभी-कभी ऐसी क्रिया होती देखी जाती है।

संतोंके उपर्युक्त विश्वप्रेमका तत्त्व और रहस्य बड़ा ही विलक्षण है। वास्तवमें जो संत होते हैं, वे ही इसको जानते हैं। ऐसे संतोंके गुण, आचरण, प्रभाव और तत्त्वका अनुभव उनका संग और सेवन करनेसे ही हो सकता है।

संतोंके आचरण और उपदेश

प्र०-ऐसे संत महात्माओंके आचरण अनुकरणीय हैं या उपदेश?

उ०-आचरण और उपदेश दोनों ही अनुकरणीय हैं। केवल आचरण और उपदेश ही क्यों, उनके एक-एक गुणको अपने हृदयमें भलीभाँति धारण करना चाहिये। हाँ, यदि आचरण और उपदेशमें भिन्नता प्रतीत हो तो वहाँ उपदेशको ही प्रधान समझा जाता है। यद्यपि महापुरुषोंके आचरण शास्त्रके अनुकूल ही होते हैं और शास्त्रानुकूल ही वे उपदेश-आदेश करते हैं, परन्तु उन पुरुषोंके तत्त्व और रहस्यको न जाननेके कारण जो-जो आचरण शास्त्रके अनुकूल न प्रतीत हों, उनका अनुकरण नहीं करना चाहिये।

यद्यपि उन महापुरुषोंके लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथापि स्वाभाविक ही वे लोगोंपर दया कर लोकहितके लिये शास्त्रानुकूल आचरण करते हैं। उनसे शास्त्रविपरीत आचरण होनेका तो कोई कारण ही नहीं है; परन्तु शास्त्रके अनुकूल जितने कर्म होने चाहिये, उनमें स्वभावकी उपरामताके कारण अथवा शरीरका बाह्यज्ञान न रहनेके कारण या और किसी कारण उनमें कमी प्रतीत हो तो उनको इसके लिये कोई बाध्य भी नहीं कर सकता; क्योंकि वे विधि-निषेधरूप शास्त्रसे पार पहुँचे हुए हैं। उनपर ‘यह ग्रहण करो’ और ‘यह त्याग करो’—इस प्रकारका शासन कोई भी नहीं कर सकता। उनके गुण और आचरण ही सदाचार हैं। उनकी वाणी उपदेश-आदेश ही वेदवाणी हैं। फिर उनके लिये विधान करनेवाला कौन? अत एव उनके द्वारा होनेवाले आचरण सर्वथा अनुकरणीय ही हैं, तथापि जिस आचरणमें सन्देह हो, जो शास्त्रके विपरीत प्रतीत होता हो उसके लिये या तो उन्हीं पुरुषोंसे पूछकर सन्देह मिटा लेना चाहिये अथवा उसको छोड़कर जो शास्त्रानुकूल प्रतीत हों उन्हींके अनुसार आचरण करना चाहिये।

प्र०-जब ऐसे महापुरुषोंपर विधि-निषेध शास्त्रका कोई शासन ही नहीं, तब वे कर्मोंका आचरण क्यों करते हैं?

उ०-लोगोंपर दया कर केवल लोकहितके लिये। स्वयं भगवान् वासुदेव भी तो अवतार लेकर लोकहितार्थ कर्माचरण करते हैं। संतको करनेके लिये भी कहा है—

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
(गीता ३। २१-२२)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं, वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है। हे अर्जुन! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।’

भगवान् के इस आदर्शके अनुसार यदि संत पुरुष आचरण करें तो इसमें उनका गौरव है और लोगोंका परम कल्याण है और इसीलिये संतोंके द्वारा स्वाभाविक ही लोकहितकर कर्म होते हैं। ऐसे संतोंका जीवन लोगोंके उपकारके निमित्त ही होता है। अतएव लोगोंको भी इस प्रकारके संत बननेके लिये भगवान् की शरण होकर पद-पदपर भगवान् की दयाका दर्शन करते हुए हर समय प्रसन्नचित्त रहना चाहिये। भगवान् को यन्त्री मानकर अपनेको उनके समर्पण करके उनके हाथका यन्त्र बनकर उनके आज्ञानुसार चलना चाहिये और यह याद रखना चाहिये कि जो इस प्रकार अपने-आपको भगवान् के अर्पण कर देता है, उसके सारे आचरण भगवत्कृपासे भगवान् के अनुकूल ही होते हैं—यही शरणागतिकी कसौटी है। इस शरणागतिसे ही भगवान् की अनन्त दयाके दर्शन होते हैं और भगवान् की दयासे ही देवताओंके द्वारा भी पूजनीय परम दुर्लभ संतभावकी प्राप्ति होती है।

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