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परमानन्दकी प्राप्तिके लिये साधनकी आवश्यकता

संसारमें सभी लोग सुखकी खोजमें हैं, सभी परमानन्द पाना चाहते हैं। रात-दिन सुख ही प्राप्त करनेकी चेष्टामें लगे हुए हैं, परन्तु सुख तो दूर रहा, असली सुखकी तो छाया भी नहीं मिलती! इसमें क्या कारण है? इतना प्रयत्न करनेपर भी सुख क्यों नहीं मिलता?

इस प्रश्नपर विचार करनेसे यह मालूम होता है कि हमारे सुखकी प्राप्तिमें तीन बड़े बाधक शत्रु हैं। उन्हींके कारण हम सुखके समीप नहीं पहुँच पाते। वे हैं मल, विक्षेप और आवरण।

मल है मनकी मलिनता, विक्षेप है चंचलता और आवरण है अज्ञानका पर्दा। जबतक इन तीनोंका नाश नहीं होता तबतक यथार्थ सुखकी प्राप्ति असम्भव है। इनमें आवरणका नाश तो सहज ही हो सकता है। आवरणको हटानेके लिये खास प्रयत्न करनेकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् स्वयं बुद्धियोग प्रदान करके सारा मोह हर लेते हैं। भगवान् कहते हैं—

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०।९-१०)

‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं, उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

जबतक मन मलिन और चंचल है तबतक प्रेमपूर्वक भजन ही नहीं होता फिर बुद्धियोग कहाँसे मिले। पापके कारण मनमें जो अनेकों प्रकारके मलिन विचार उठा करते हैं, एकान्तमें ध्यानके लिये बैठनेपर जो बुरे-बुरे भाव मनमें उत्पन्न होते हैं, यही मनकी मलिनता है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अभिमान, कपट, ईर्ष्या आदि दुर्गुण और दुर्भाव मलके ही कारण होते हैं। जिस व्यक्तिमें ये दोष जितने अधिक हैं, उसका चित्त उतना ही मलसे आच्छन्न है।

मल-दोषके नाशके लिये कई उपाय बतलाये गये हैं। इनमेंसे प्रधान दो हैं—भगवान् के नामका जप और निष्काम कर्म। भगवान् का नाम पापके नाशमें जादूका-सा काम करता है। नाममें पापनाशकी अपरिमेय शक्ति है, परन्तु नाममें प्रीति, श्रद्धा और विश्वास होना चाहिये। जैसे लोभी व्यापारीका एकमात्र ध्येय रुपया पैदा करना और इकट्ठा करना होता है और वह जैसे निरन्तर उसी ध्येयको ध्यानमें रखकर सब काम करता है, ठीक इसी प्रकार भगवत्प्रेमका लक्ष्य बनाकर हमें रामनाम रूपी सच्चा धन एकत्र करना चाहिये—

कबिरा सब जग निरधना धनवंता नहिं कोय।
धनवंता सोइ जानिये जाके रामनाम धन होय॥

इसी प्रकार निष्काम कर्मयोगसे भी मलका नाश होता है। निष्काम कर्मयोगके प्रधान दो भेद हैं—भक्तिप्रधान कर्मयोग और कर्मप्रधान कर्मयोग। पहलेमें भक्ति मुख्य होती है और दूसरेमें कर्मकी मुख्यता होती है। इन दोनोंमें भक्तिप्रधान कर्मयोग विशेषरूपसे श्रेष्ठ है। वास्तवमें दोनोंमें ही भगवत्-प्रीति ही लक्ष्य है। अन्य कोई भी स्वार्थ नहीं है। स्वार्थका अभाव हुए बिना कर्मयोग बनता ही नहीं। फलासक्तिको त्याग कर भगवत्प्रेमके लिये जो शास्त्रोक्त कर्म किये जाते हैं उन्हींको निष्काम कर्मयोग समझना चाहिये। इस निष्काम कर्मयोगसे हमारे मनके मलरूप दुर्गुणों और दुराचारोंका नाश होकर सद्गुण, सदाचार, शान्ति और सुखकी प्राप्ति होती है। सात्त्विक भावों और गुणोंका परम विकास होता है। इस प्रकार मलदोषका नाश होनेपर विक्षेप अपने-आप ही मिट जाता है और चित्त परम निर्मल और शान्त होकर भगवान् की भक्तिमें लग जाता है। तदनन्तर भगवत्कृपासे आवरण भंग हो जाता है। आवरणका नाश होते ही परमानन्दकी प्राप्ति होती है और मानव-जीवन सफल हो जाता है। मुक्ति अथवा भगवत्साक्षात्कार करनेके लिये निष्कामभावसे की हुई भगवान् की भक्तिसे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। हमारा लक्ष्य यही रहे कि भगवान् में हमारा अनन्य प्रेम हो। इसीके लिये तत्परतासे चेष्टा हो, सफलता चाहनेवाले सभी लोग अपना लक्ष्य बनाकर चलते हैं, सब अपने जीवनका एक ध्येय रखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसी ध्येयको परम श्रेष्ठ, सर्वोत्तम मानते हैं। ध्येयमें सर्वश्रेष्ठ बुद्धि न होगी तो उस ओर बढ़ना कठिन ही नहीं, असम्भव है। संसारमें सबसे बढ़कर हमारा लक्ष्य हो। उस लक्ष्यसे विचलित करनेवाला राग-द्वेषसे उत्पन्न हुआ मोह है; क्योंकि मोहके वश होकर हम अपने यथार्थ लक्ष्यको नहीं देख पाते—

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप॥
(गीता ७।२७)

‘हे भारत! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दु:खादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञानताको प्राप्त हो रहे हैं।’ यह प्राय: सभी प्राणियोंकी दशा है।

बहुत-से भाई यह कहते हैं कि इतने दिनोंसे साधन कर रहे हैं पर अभीतक भगवत्प्राप्ति नहीं हुई। इसका एकमात्र कारण यही है कि मन-बुद्धि पवित्र और स्थिर नहीं हैं। साधनकी सफलता मन और बुद्धिकी पवित्रता और स्थिरतापर ही निर्भर है। मन और बुद्धि पवित्र और स्थिर नहीं है तो फिर साधनका फल प्रत्यक्ष होगा ही कैसे? निष्ठापूर्वक साधनसे ही मन और बुद्धिमें निर्मलता तथा स्थिरता आती है। मन और इन्द्रियाँ शुद्ध और स्थिर होकर भगवान् में प्रवेश कर जायँ इसके लिये पहले आवश्यकता इस बातकी है कि मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें किया जाय। जबतक ये काबूमें नहीं आते तबतक भगवान् के स्वरूपमें स्थिर होकर भगवान् की प्राप्ति हो नहीं सकती।

महर्षि पतंजलिने मनको वशमें करनेका उपाय बतलाया है—अभ्यास और वैराग्य। इससे चित्त वशमें होता है। वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं और चित्तका ‘निरोध’ होता है। यही भाव भगवान् ने गीतामें व्यक्त किया है—

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(६।३५)

‘अभ्यास और वैराग्यसे मन वशमें होता है।’ जिसका चित्त संयत है वही प्रयत्न करनेपर भगवान् की प्राप्ति कर सकता है। व्यभिचारिणी वृत्तियोंसे भगवान् को पकड़ना कठिन ही नहीं प्रत्युत असम्भव-सा है।

जबतक चित्तमें विषयासक्ति है, तबतक चित्तका वशमें होना कठिन है। विषयासक्तिके नाशके लिये वैराग्य ही प्रधान उपाय है। विचार करना चाहिये कि संसारके विषय सभी दु:खरूप हैं। भगवान् ने संसारके भोगोंको दु:खमूलक और क्षणिक बतलाकर यह कहा है कि बुधजन इनमें नहीं रमते—

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५।२२)

‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी दु:खके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।’

अतएव बुद्धिमान् मनुष्योंको विचार करना चाहिये कि जब मूर्ख ही इन विषयोंमें रमते हैं तब हम समझदार कहलाते हुए मूर्ख क्यों बनें! विषयोंमें जो रमता है वह मूर्ख इसलिये है कि उसका समय और धन व्यर्थ जाता है, जीवन पापमय होता है और पापके कारण उसे दु:ख उठाना पड़ता है।

जो मनुष्य अपने-आप दु:खका कारण बनता है वही मूर्ख है। इसलिये चित्तकी वृत्तियोंको विषयोंसे बराबर हटाते रहना चाहिये। संसारके जितने भोग हैं उनमें दु:ख और दोषका दर्शन करे। यद्यपि मोह और आसक्तिके कारण विषय अमृतके समान सुखकारी लगते हैं परन्तु परिणाममें विषके समान घातक हैं, प्राण हर लेनेवाले हैं, लोक-परलोक बिगाड़नेवाले हैं। विषयोंका भोक्ता संसारमें बार-बार जन्मता-मरता है और नाना प्रकारके दु:खोंमें घुलता रहता है। विषयोंका भोग विष-भक्षणसे भी अधिक बुरा है। विचारके द्वारा विषयोंमें जो केवल दु:ख-ही-दु:ख देखता है वही बुद्धिमान् है। दोष-दर्शनका अभिप्राय यही है कि सारे विषय अत्यन्त अपवित्र हैं, घृणा करनेलायक हैं; और उनमें रमना पाप है। साथ ही यह भी विचार करना चाहिये कि यदि ये विषय कदाचित् स्थायी होते तो सदा सुख देनेवाले समझे जा सकते, परन्तु ये क्षणभंगुर हैं; पल-पलमें इनका रूप बदलता रहता है। इसके सिवा इनमें सुख भी क्षणिक ही होता है (यद्यपि वह भी भ्रमसे ही होता है)। क्षणभरके लिये सुख देकर महान् दु:खके सागरमें डुबा जाते हैं। वे यदि वस्तुत: सुखरूप होते तो सदा ही सुखरूप ही होते। अतएव विषय अनित्य हैं, अस्थायी हैं, असुख हैं, विषरूप हैं, नरकमें गिरानेवाले हैं। विषयोंके प्रति हमारी रागदृष्टि है और वैराग्यके प्रति जो हमारी विरक्ति है इसीके कारण सारी व्यवस्था उलटी हो गयी है और विषयोंमें हमें सुख भासता है और वैराग्यमें दु:ख।

असलमें तो नित्य न होनेके कारण विषय सर्वथा असत् हैं। विषयोंकी यह अनित्यता और उनका असत् पन प्रत्यक्ष देखते हुए और अनुभव करते हुए भी हम उनके उपभोगके लिये प्रवृत्त होते हैं, यही हमारी मूर्खता है। इस मूर्खताको विचारसे हटाना चाहिये। विचारसे विवेक उत्पन्न होगा और फिर विवेकसे ही वैराग्यका शुभोदय होगा। इस दृढ़ वैराग्यशस्त्रसे विषयरूप संसारवृक्षको काटना गन्नेको काटनेके समान सुगम हो जाता है। विषयोंकी ओर वृत्तियोंका कदापि न जाना, उनसे परम उपरामता हो जाना, उनका चिन्तन न होना ही इनका काटना है। सारे अनर्थोंकी उत्पत्ति इन्हींके चिन्तनसे होती है। भगवान् ने कहा है—

ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात् स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(गीता २।६२-६३)

‘विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है तथा क्रोधसे अत्यन्त मूढभाव उत्पन्न हो जाता है, मूढभावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है और स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है।’

सत्ता और आसक्तिको लेकर विषयोंका चिन्तन करना ही गिरनेका कारण है। नाशवान्, क्षणभंगुर और अनित्य समझकर इनको दु:खका कारण समझें तो ये हमें स्पर्श भी नहीं कर सकते।

भगवान् ने गीतामें बतलाया है—जिसके सारे कर्म और सारे पदार्थोंमें आसक्ति नहीं है वही सर्वसंकल्पोंका संन्यासी है—

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥
(गीता ६।४)

‘जिस कालमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है उस कालमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारुढ कहा जाता है।’

जिसका मन पदार्थों और कर्मोंमें आसक्त नहीं होता वही योगी है। क्रिया करता है पर आसक्त नहीं होता। स्फुरणा हो पर आसक्ति नहीं, ऐसा सर्वसंकल्पोंका त्यागी ही योगारूढ है। इससे यही सिद्ध हुआ कि पदार्थोंको क्षणभंगुर, नाशवान् समझ लेनेपर उनका स्मरण होना स्फुरणामात्र है अतएव यह अनर्थकारी नहीं है। सत्ता होनेपर ही आसक्ति होती है, असत् अर्थात् अभावमें आसक्ति नहीं होती। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि ये चराचर जीव भी असत् हैं। वे असत् नहीं हैं। कार्यरूप हमारा यह शरीर असत् है, क्षणभंगुर है, नाशवान् है, आदि और अन्तवाला है। जो असत् है उसका भाव नहीं होता, जो सत् है उसका कभी अभाव नहीं होता। भगवान् ने कहा है—

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
(गीता २।१६)

तथा—

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
(गीता २।१८)

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।

देह नाशवान् है पर देही (आत्मा) अविनाशी है। देह असत् है, देही सत् है। देहके सभी पदार्थ अनित्य और क्षणभंगुर हैं। संसारमें जो कुछ भी सत्ता-स्फूर्ति हम देख रहे हैं वह सब परमात्माकी ही है। वह विज्ञानानन्दघन परमात्मा नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, अव्यय है। उसी एकसे सब सत्ता, सब स्फूर्ति है। सारी चेतना और स्फुरणा उसीकी है। वही नित्य-सत्यस्वरूप है। संसारकी सत्ताके मूलमें परमात्माका निवास है। यह सारी दमकती हुई चेतनता परमात्माकी स्फूर्ति है। यह सब परमात्माका स्वरूप है। सबके नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता; वह सर्वदा, सर्वत्र प्रत्यक्ष विद्यमान है। ऐसे उस परमेश्वरकी शरण ग्रहण करके आनन्दके समुद्रमें गोते लगाना चाहिये। इसके लिये प्रभुने कई उपाय बतलाये हैं—

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३।२४-२५)

‘उस परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं; अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं। परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।’

महात्माजन क्या उपाय बतलाते हैं? वे किसी एकके अंगमात्रको बतला दें—उस एक अंगमात्रके साधनसे भी उस साधकका कल्याण हो जाता है।

छान्दोग्योपनिषद् में उद्दालकने सत्यकामको गौओंकी सेवा ब्रह्मज्ञानके लिये बतलायी। केवल गौओंकी सेवामात्रसे सत्यकामको भगवान् की प्राप्ति हो गयी। महात्माके द्वारा बतलाये जानेके कारण गौकी सेवा ही परम साधन हो गया। महर्षि पतंजलिके बतलाये हुए अष्टांगयोगमेंसे भी किसी एक अंग अथवा किसी उपांगमात्रसे भी ब्रह्मकी प्राप्ति हो सकती है। केवल ध्यानसे या प्राणायामसे भी भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। नियमके एक अंग स्वाध्याय अथवा ईश्वरप्रणिधानसे भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है।

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।
(योग० १।२३)

अतएव इससे यही प्रमाणित हुआ कि एक अंग अथवा एक उपांगसे भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है। हृदयको पवित्र, मन-बुद्धिको स्थिर करनेके लिये शास्त्रोंमें बतलाये हुए विभिन्न मार्गोंमेंसे किसी भी मार्गको निश्चित कर प्राणपणसे प्रयत्न करना चाहिये। भगवत्कृपासे विजय निश्चित है, सफलता मिलेगी ही।

बारहवें अध्यायमें भगवान् ने यह बतलाया है कि जो मेरे परायण हुए भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही तैलधाराके सदृश अनन्य ध्यानयोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, उन मेरेमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूपी संसारसागरसे उद्धार कर देता हूँ। इसके अनन्तर भगवान् ने अर्जुनको उपदेश दिया कि तू मेरेमें मन लगा, मेरेमें ही बुद्धिको लगा, इसके अनन्तर तू मेरेमें ही निवास करेगा अर्थात् मेरेको ही प्राप्त होगा इसमें कुछ भी संशय नहीं है। फिर यदि तू मनको अचलरूपसे मुझमें नहीं लगा सकता तो अभ्यासके द्वारा मेरेको प्राप्त होनेके लिये इच्छा कर। यदि तू इस अभ्यासको करनेमें भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करनेके ही परायण हो। इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मोंको करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। यदि इसको भी करनेमें तू अपनेको असमर्थ पाता है तो सब कर्मोंके फलका त्याग कर। ऐसे त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।

ऊपरके अवतरणमें भगवान् ने साधनाके विभिन्न मार्ग सुझाये हैं। जिसको जो रुचे, जिसकी जैसी योग्यता हो वह उसीको कर सकता है। इसी प्रकार चौथे अध्यायमें भी भगवान् ने यज्ञके नामसे साधनकी कई युक्तियाँ और मार्ग बतलाये हैं—

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:॥
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्‍ध्वा प्राणायामपरायणा:॥
अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:॥
(गीता ४।२४—३०)

‘जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है—उस ब्रह्मकर्ममें स्थित रहनेवाले पुरुषद्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। दूसरे योगीजन देवताओंके पूजनरूप यज्ञका ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्निमें अभेददर्शनरूप यज्ञके द्वारा ही आत्मारूप यज्ञका हवन किया करते हैं। अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियोंको संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि समस्त विषयोंको इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं। दूसरे योगीजन इन्द्रियोंकी सम्पूर्ण क्रियाओंको और प्राणोंकी समस्त क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं। कई पुरुष द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करनेवाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतोंसे युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं। दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायुमें अपानवायुको हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले—प्राणायाम-परायण पुरुष प्राण और अपानकी गतिको रोककर प्राणोंको प्राणोंमें ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश कर देनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।’

ऊपरके श्लोकोंमें भगवान् ने साधनाके भिन्न-भिन्न मार्ग तथा कल्याणके अनेक उपाय बतलाये हैं। इनमेंसे किसी एकको भी चरितार्थ करनेवाला व्यक्ति परमात्माको प्राप्त कर सकता है। यहाँ ‘यज्ञ’ शब्द साधनका वाचक है जिसके द्वारा सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। कर्मनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा—इन्हीं दोके भेद विस्तारसे बतलाये गये हैं। इनके अंग-उपांग हैं। उनमेंसे किसी एक मार्गका भी साधन महात्मा पुरुष बतला दें तो हम संसारसागरसे तर जायँ और हमें भगवान् की प्राप्ति हो जाय। कर्मयोग और सांख्ययोगके साधनोंसे जो अध्यात्मपथमें प्रवेश करते हैं उनकी सफलता तो निश्चित ही है। पर संत महापुरुषोंके बतलाये हुए किसी भी एक मार्गका जो अनुसरण करते हैं वे भी परमपदको प्राप्त हो जाते हैं।

ऊपर बताये हुए साधनोंमेंसे किसी एक साधनका अवलम्बन करनेसे मल, विक्षेप और आवरणका सर्वथा नाश हो जाता है अर्थात् उसके सारे दुर्गुण, दुराचार, दु:ख और विघ्नोंका एवं मोहका अत्यन्त अभाव हो जाता है और मन, बुद्धि स्थिर होकर भगवत्कृपासे भगवत्तत्त्वको जानकर साधक परम शान्ति और परम आनन्दको प्राप्त हो जाता है।

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