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अध्यात्मविद्या

आजकलकी भाषामें अंग्रेजीमें बी० ए०, एम० ए०आदिकी परीक्षामें पास हो जाना ‘उच्च शिक्षा’ प्राप्त करना है और इन परीक्षाओंका पाठ्यक्रम जिन संस्थाओंमें पढ़ाया जाता है वे उच्च शिक्षालय या कॉलेज हैं। ऐसे कई कॉलेज जिस संस्थाके अन्तर्गत होते हैं, उसका नाम विश्वविद्यालय या युनिवर्सिटी है। ‘उच्च शिक्षा’ का सच्चा अर्थ तो यह होना चाहिये कि जिस शिक्षाको प्राप्त करके मनुष्यका हृदय ऊँचा हो जाय। वह उच्च तत्त्वको जान ले, सत्यको पहचान ले और प्राप्त कर ले। सत्यसे वर्जित केवल तर्कशक्तिका विकास करनेवाला ज्ञान ‘उच्च शिक्षा’ कदापि नहीं है।

इस शिक्षाकी जरूरत है तो इसको भी प्राप्त करो-कराओ, परन्तु इसे भाषाशिक्षा, विज्ञानशिक्षा, कृषिशिक्षा या गणितशिक्षा कहो। कहो नहीं तो, समझो तो ऐसा ही। परन्तु उच्च शिक्षाकी ओर भी जरूर ध्यान दो। वह उच्च शिक्षा है—अध्यात्मविद्या। ‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ भगवान‍्के इन वचनोंको याद रखो।

अध्यात्मविद्या भी वह नहीं जिससे केवल ‘वेदान्तरत्न’ या ‘भक्तिकौस्तुभ’ की उपाधि ही नामके पीछे लग जाय। अध्यात्मविद्या असली वह है जिससे तुम्हारी मनोवृत्ति ऊँची हो, सत्यको खोजनेकी प्रवृत्ति जाग उठे, सत्यकी ओर मन लगे और सत्यकी उपलब्धि जबतक न हो तबतक यह विद्याभ्यास न छूटे।

याद रखो—अध्यात्मविद्याके बिना तुम सत्यकी ओर अपना मुख नहीं फिरा सकते, सत्यकी ओर तुम्हारी गति नहीं हो सकती और तुम सत्यको नहीं पा सकते और सत्यको पाये बिना मनुष्य-जीवन व्यर्थ है।

इस विद्याका पहला लाभ है—जीवनका संयमित होना। जिसका जीवन असंयत है, जिसका शरीर, इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं हैं, जो इन्द्रियोंका गुलाम है वह कभी सच्चा विद्वान् नहीं कहा जा सकता। संयमी ही स्वतन्त्र है—चाहे वह शारीरिक बन्धनमें हो और इसके विपरीत किसी भी नियमके अधीन न रहनेवाला यथेच्छाचारी असंयमी पुरुष सर्वथा परतन्त्र है। जिस विद्याका पहला लाभ इस परतन्त्रताकी बेड़ीको काट डालना है, वही अध्यात्मविद्या है। हिन्दुओंके प्राचीन ब्रह्मचर्याश्रमोंमें सर्वप्रथम इसीकी व्यावहारिक शिक्षा दी जाती थी।

इसका दूसरा लाभ है सद्भावों और सद‍्गुणोंकी प्राप्ति। जो विद्या दुष्टभाव और दुर्गुणोंसे हमारे हृदय और कर्मोंको भर देती है, वह तो अविद्याका ही मोहसे बदला हुआ सुन्दर नाम है। अध्यात्मविद्या हृदयको सद्भावोंसे और आचरणोंको सद‍्गुणोंसे भर देती है।

इसका तीसरा लाभ है, सत्यकी ओर प्रवृत्त होना। जीवनको सत्यकी खोजमें लगा देना। जो सत्यकी खोजमें लगा है, वही सदाचारी है। सत्य भाषण, सत्य आचार, सत्य व्यवहार उस सत्यकी प्राप्तिके साधन हैं। वह सत्य भगवान‍्का ही नामान्तर है।

और अध्यात्मविद्याका चरम लाभ है परमात्माको पा लेना। यही सब दु:खोंसे सदाके लिये मुक्त करके नित्य सनातन परमानन्द देनेवाली अवस्था है। परमानन्द ही इसका स्वरूप है। इसका कोई भोक्ता नहीं है। यह ज्ञानस्वरूप और चेतन है। यही परम सत्य है।

इस परम सत्यको पाना ही मनुष्य-जीवनका लक्ष्य है। इस लक्ष्यकी ओर अनन्यदृष्टि रखकर निश्चयात्मिका बुद्धिके द्वारा आगे बढ़ते रहो। इस लक्ष्यको सामने रखकर इसे पानेके लिये जिस विद्याका अध्ययन किया जाता है, वही अध्यात्मविद्या है, वही उच्च शिक्षा है, वही पारमार्थिक शिक्षा है।

अवश्य ही इसमें व्यावहारिक शिक्षाका विरोध नहीं है। व्यवहारके सब कार्य करो और भलीभाँति करो, परन्तु लक्ष्यकी ओर दृष्टि बनाये रखो। लक्ष्य बना रहेगा तो व्यवहार तुम्हारे मार्गका बाधक न होकर सहायक होगा।

परन्तु लक्ष्य बनाने और उसे स्थिर रखनेके लिये भी प्राथमिक शिक्षाकी आवश्यकता है। उसी शिक्षाका नाम धार्मिक शिक्षा है। अतएव ऐसी चेष्टा करो जिसमें प्रत्येक बच्चेको घरमें और स्कूल-कॉलेजोंमें धार्मिक शिक्षा अवश्य मिले, जिससे उनका लक्ष्य ठीक हो और वे व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करते समय भी लक्ष्यपर स्थिर दृष्टि रख सकें!

भगवान‍्से यह प्रार्थना करो और आत्मामें निश्चय करो कि हमारा और हमारी सन्तानके लक्ष्य भगवान् रहें। हम भगवान‍्के लिये ही सब काम करें, भगवान‍्के ही लिये जियें और अन्तमें भगवान‍्के लिये भगवान‍्का स्मरण करते हुए इस नश्वर शरीरको त्यागकर भगवान‍्के चरणोंमें चले जायँ।

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