भगवान्की रुचि
मनुष्य जैसा चिन्तन करता है, वैसी ही क्रिया होने लगती है और वह क्रमश: वैसे ही वातावरणसे घिर जाता है।
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विषय-चिन्तन ही पतन है और भगवच्चिन्तन ही यथार्थ उत्थान है।
विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना, विषय-भोग सभी महान् दु:ख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेमें हेतु हैं। इनसे मनुष्य दु:खकी परम्परामें पड़ जाता है। इनसे छूटनेके लिये बस, भगवच्चिन्तन ही एकमात्र साधन है। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं, कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है।
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श्रीभगवान् मंगलमय, आनन्दमय, ऐश्वर्यमय, ज्ञानमय, दयामय, प्रेममय, सौन्दर्यमय, माधुर्यमय और सामर्थ्यमय हैं। वे प्रत्येक प्राणीके स्वाभाविक ही सुहृद् हैं। उनसे माँगना हो तो यही माँगना चाहिये कि ‘हे भगवन्! तुम जो ठीक समझो, मेरे लिये वही विधान करो। तुम जो चाहो सो मुझे दो, मैं चाहूँ सो मत दो! ऐसी शक्ति दो, जिससे मेरे मनमें कोई कामना ही न पैदा हो और यदि हो तो तथा वह तुम्हारी इच्छाके विरुद्ध हो तो उसे तुरन्त नष्ट कर दो। उसे पूरी तो करो ही मत।’
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भगवान्की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये।
जो भगवान्की रुचिसे होनेवाले सच्चे आनन्दका परम लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अपनी आसक्ति, अपनी रुचि और अपनी रतिका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिये।
बस, भगवान्की जो रुचि है, वही हमारी रुचि हो; भगवान्की इच्छा ही हमारी इच्छा हो। हमारे गिरनेपर भगवान् हँसें तो हम भी उस हँसीको देखकर आनन्दमें मतवाले होकर हँस उठें। हमारे गौरव प्राप्त करनेपर यदि भगवान्का चेहरा उदास दीखे, उन्हें वह गौरव न रुचे, तो हमें भी उसमें नरकयन्त्रणाका अनुभव हो।
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भगवान्की रुचिकी अनुकूलताके सिवा और कोई इच्छा न हो, भगवान्के चिन्तनको छोड़कर और कोई चिन्तन न हो, समस्त जीवन उन्हींके प्रति निवेदन की हुई एक प्रार्थना हो। हृदयमें केवल उन्हींका सिंहासन रहे। सारे कर्म उन्हींकी सेवाके लिये हों। इस प्रकार सदा सर्वार्पण हुआ रहे। ‘हम’ पर हमारा अधिकार न हो, भगवान्का हो। हमारा ‘हम’ उनके प्रति अर्पित हो जाय।
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हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारी इन्द्रियाँ सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा उन्हींकी चीज बन जायँ और उन्हींकी सेवामें लगी रहें।
भगवान्के बिना जीवनमें भयंकरता-ही-भयंकरता भरी है; क्योंकि सारा सौन्दर्य, सारा माधुर्य, सारा प्रकाश, सारा ऐश्वर्य, सारी विभूति, सारा प्रेम, सारा ज्ञान, सारा यश, सारी श्री, सारी शक्ति, सारा बल, सारा पुरुषार्थ तो उन्हींमें है। उनके बिना जो कुछ है, वह तो भयानक है, दु:खमय है, विकराल है, प्रलयपीड़ा है, एक घोर यन्त्रणामय नरक है।