गीता गंगा
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विपत्तिकी अवस्थामें विश्वास

भगवान‍्में विश्वास करनेवाले सच्चे वे हैं, जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगवत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं।

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विपत्तिमें धैर्य न खोकर जो लोग भगवत्कृपाके विश्वासपर डटे रहते हैं और सत्यके पथसे जरा भी नहीं डिगते, उनकी विपत्ति बहुत ही शीघ्र महान् सम्पत्तिके रूपमें बदल जाती है और क्लेश तथा अशान्ति तो उन्हें किसी अवस्थामें नहीं होते।

जो विपत्तिमें भगवत्कृपाका दर्शन करते हैं, वे ही भगवत्कृपाके यथार्थ अधिकारी हैं।

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किसीसे कुछ भी न माँगोगे, लोग तुम्हें देखनेके लिये तुम्हारे पीछे-पीछे फिरेंगे। मान न चाहोगे, मान मिलेगा। स्वर्ग न चाहोगे, स्वर्गके दूत तुम्हारे लिये विमान लेकर आयेंगे। इतनेपर भी तुम इन्हें स्वीकार न करोगे तो भगवान् तुम्हें अपने हृदयसे लगा लेंगे।

उस मनुष्यका जीवन पापमय है, जो यश, मान, पूजा, प्रतिष्ठा आदिके लिये भगवान‍्को भूला रहता है। और वह तो इससे भी बहुत ही नीचा है, जो शरीरके आराम और इन्द्रियोंके भोगके लिये भगवान‍्को भूलकर धनादिके संग्रहमें लगा रहता है। निर्दोष तो वह भी नहीं है, जो धर्मके नामपर भगवान‍्को भूल जाता है; क्योंकि जो धर्म भगवान‍्को भुलाता है, निर्दोष धर्म ही नहीं है। सच्चे धर्म और भगवान‍्का तो वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा शरीर और प्राणोंका! भगवान‍्से रहित धर्म तो प्राणहीन शरीरके समान मुर्दा है।

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बीती हुई बातके लिये न रोओ; आगे क्या होगा; उसकी भी चिन्ता न करो; बस, वर्तमान सुधारो। साहस, उत्साह, श्रद्धा, तत्परता, संयम और विवेकके द्वारा भगवत्कृपाके बलपर डटकर लग जाओ—वर्तमानको कल्याणमय बनानेमें। फिर भविष्य तो अपने-आप ही कल्याणमय बन जायगा।

जो वर्तमानके सुधारकी परवा न करके भविष्य-सुखके सपने देखते हैं और भूतके लिये रोते हैं, उनके हिस्सेमें तो रोना ही आया है।

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संसारकी किसी वस्तुको पाकर अहंकार न करो, सभी विषयोंमें एक-से-एक बढ़कर पड़े हैं। अपनेको छोटा मानकर नम्रता और विनयके साथ सबसे सम्मानयुक्त व्यवहार करो। तभी सच्ची राह मिलेगी। जो अहंकारमें अन्धे हो रहे हैं, वे तो पथभ्रष्ट हैं।

सबका सम्मान करो, सबका हित करनेकी चेष्टा करो, सबको सुख पहुँचानेका ध्यान रखो। फिर तुम्हारा हित और तुम्हारा सुख तो तुम्हारे संगी ही बन जायँगे।

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