Hindu text bookगीता गंगा
होम > भगवान् की पूजा के पुष्प > भगवान‍्को पुकारो

भगवान‍्को पुकारो

निराश न हो, निश्चय रखो—भगवान‍्का वरद हाथ सदा ही तुम्हारे ऊपर छाया किये हुए है। भजन करो, उस छत्रछायाको प्रत्यक्ष देख सकोगे और फिर तो अपनेको इतने महान‍्की शक्तिसे सदा सुरक्षित पाकर आनन्दमें नाच उठोगे।

देखो, देखो, वे मुसकराते हुए तुम्हें पुकार रहे हैं, तुम्हारे बहुत समीप आ गये हैं, अत्यन्त ही निकट हैं; बस, चाहते ही तुम उन्हें स्पर्श कर सकते हो; पकड़ लो उन्हें! अभागे! क्यों देर करते हो? विश्वास नहीं है, इसीसे वंचित हो रहे हो!

••••

समझते हो, ये भावुकताकी बातें हैं, कल्पनाकी सृष्टि है, शब्द-जालमात्र है। हाय! इसीसे ठगे जा रहे हो। एक बार पूरा विश्वास करके देखो तो सही!

बच्चा दु:खी होकर रोता है, माँको पुकारता है, बच्चेकी दर्दभरी और आवेगभरी पुकार सुनते ही माँ आती है। माँ शायद दूर हो तो न सुन सके, परन्तु यह तुम्हारी सच्चिदानन्दमयी माँ तो निरन्तर तुम्हारे साथ ही रहती है। जब पुकारोगे, तभी उत्तर पाओगे। पुकारना सीखो! पुकारो-पुकारो।

••••

पूछते हो, कैसे पुकारें? वैसे ही पुकारो, जैसे अनन्य-आश्रित मातृपरायण बच्चा पूरे विश्वाससे माँको पुकारता है। पुकारना तो तुम जानते हो, परन्तु विश्वास नहीं करते, इसीसे नहीं पुकार पाते।

••••

विश्वास करो—सरलता, कोमलता तथा भरोसेसे हृदयको भर लो। फिर पुकारो। तुम्हारी पुकार व्यर्थ नहीं जायगी।

••••

द्रौपदीने पुकारा था, गजराजने पुकारा था। आज भी लोग पुकारते होंगे और उसी भाँति उत्तर भी पाते होंगे। तुम भी वैसे ही पुकारो—उत्तर पाओगे!

परन्तु यह मत आशा रखो—इस धारणाको ही छोड़ दो कि सब जाननेवाले तुम्हारे सुहृद् भगवान् तुम्हारे मनकी करके तुम्हें अधोगतिमें जाने देंगे।

••••

बच्चा आगकी तरफ दौड़ता है, रास्तेमें कोई बाधा पाकर रोता है। करुणस्वरमें माँको पुकारता है, माँ दौड़ी आती है परन्तु आकर बच्चेको आगके अन्दर थोड़े ही जाने देती है। वह आगसे उसको और भी दूर हटा लेती है, वह यदि नहीं भूलता तो अज्ञानवश और भी रोता है। विशेष दु:खका अनुभव करता है। माँ उसके इस रोनेकी परवा तो नहीं करती, परन्तु माँको उसका किसी बातके लिये भी रोकर दु:खी होना सहन भी नहीं होता। वह पुचकारती है, उसे शान्त करना चाहती है और अपने आँचलमें छिपाकर—आवरण अलग करके अमृत-तुल्य स्तन्य पिलाने लगती है।

••••

बस—भगवान‍्को पुकारो, वे भी आयेंगे, तुम्हें गोदमें उठा लेंगे और अपने हृदयकी अप्रतिम सुधा-धारासे तुम्हें तृप्त कर देंगे। वह सुधा-धारा ऐसी मधुर होगी कि तुम तृप्त होकर भी अतृप्त ही रहोगे। भगवत्प्रेमसे प्राप्त हुई इस नित्य तृप्तिमें निरन्तर अतृप्तिका बोध ही भक्ति है। यही भक्तका महान् मनोरथ है, जिसके सामने वह कैवल्य मोक्षतकको तुच्छ समझता है।

अगला लेख  > उपदेश करो अपने लिये