दुनियाका सुधार और उद्धार
दुनियाके सुधार और उद्धारकी चिन्ता छोड़कर पहले अपना सुधार और उद्धार करो। तुम्हारा सुधार हो गया तो समझो कि दुनियाके एक आवश्यक अंगका सुधार हो गया। यदि ऐसा न हुआ, तुम्हारे हृदयमें उच्च भावोंका संग्रह नहीं हो सका, तुम्हारी क्रियाएँ राग-द्वेषरहित, पवित्र नहीं हुईं और तुमने दुनियाके सुधारका बीड़ा उठा लिया तो याद रखो, तुमसे दुनियाका सुधार होगा ही नहीं। यह मत समझो कि तुम लोकसेवक हो, लोकसेवा करते हो तो फिर तुम्हारे व्यक्तिगत चरित्रसे इसका क्या सम्बन्ध है? तुम्हारा चरित्र कलुषित या दूषित होगा तो तुम लोकसेवा कर ही नहीं सकते। लोकसेवा तुम उस सामग्रीसे ही तो करोगे जो तुम्हारे पास है! दुनियाके सामने तुम वही चीज रखोगे, उसको वही पदार्थ दोगे जो तुम्हारे अन्दर है! दुनियाको तुम स्वाभाविक ही वही क्रिया सिखलाओगे, जो तुम करते हो। इससे दुनियाका कल्याण कभी नहीं होगा।
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जबतक तुम्हारी आभ्यन्तरिक आँखोंपर राग-द्वेषका चश्मा चढ़ा है, तबतक तुमको वस्तुस्थितिका यथार्थ दर्शन नहीं होगा। और यथार्थ ज्ञान बिना तुम इस बातका विचार नहीं कर सकोगे कि किस बातसे किसका सुधार या उद्धार होगा। विचार करोगे भी तो वह यथार्थ नहीं होगा। क्योंकि तुम्हारे विचारमें वही कार्य ठीक जँचेगा जिससे तुम्हारा राग है। परन्तु सम्भव है, वह कार्य ठीक न हो।
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तुम यथार्थमें सुधरे नहीं हो और दुनियाका सुधार करना चाहते हो तो ऐसी हालतमें दो बातें होंगी। या तो तुम अज्ञानसे अपनेको उत्तम स्थितिमें पहुँचा हुआ—दुनियाको सुधारनेकी योग्यता रखनेवाला उच्च कोटिकापुरुष मानकर अभिमानके वश हो जाओगे अथवा दम्भ और कपट करने लगोगे। दोनों ही तरहसे तुम्हारा पतन होगा। दुनियाका सुधार तो होगा ही नहीं।
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अभिमान दूसरोंको तुम्हारी दृष्टिसे अपनेसे नीचे गिरे हुए दिखावेगा। तुम उनपर शासन करना चाहोगे, उनके नेता बननेकी इच्छा करोगे, अपने झंडेके नीचे लाकर उन्हें अनुयायी बनाना चाहोगे। वे तुम्हारे अभिमानसे चिढ़ेंगे। परस्पर वैमनस्य होगा—द्वेषपूर्ण दल-बन्दियाँ होंगी। तुम्हारी और उनकी शक्ति एक-दूसरेको नीचा दिखानेमें खर्च होने लगेगी। चित्त अशान्त रहेगा और इस चिन्तामें दुनियाके सुधारकी बात भूलकर तुम दुनियाका बड़ा अकल्याण कर बैठोगे।
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याद रखो—जिस क्रियासे या चेष्टासे दुनियाकी यथार्थ भलाई है,उसमें तुम्हारी भलाई अवश्य ही निहित है। परन्तु दुनियाकी भलाई स्वयं भले बने बिना तुम कर ही नहीं सकते! इसलिये पहले खुद अपना सुधार करो। अपना सुधार होनेके बाद तुम दुनियाके सुधारकी घोषणा नहीं करोगे। फिर तो तुम्हारी हर एक क्रिया दुनियाका सुधार करेगी। तुम्हारा जगत्में रहना,तुम्हारा श्वास लेना, तुम्हारा खाना-पीना, तुम्हारा सोना-उठना, तुम्हारा व्यवहार करना, सभी कुछ स्वाभाविक, दुनियाकी भलाई ही करनेवाला होगा।
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जबतक तुम्हारे मनमें यह बात है कि मेरे बिना संसारका भला कैसे होगा, तबतक संसारका तुमसे भला नहीं होगा। जबतक तुम यह समझते हो, मैं उत्तम हूँ, मुझमें सद्गुण हैं, मैं ऊँचा हूँ, दूसरे लोग निकृष्ट हैं, दुर्गुणी हैं, नीच हैं, तबतक तुम जगत्का कल्याण नहीं कर सकोगे। जबतक तुम यह चाहते हो कि मैं दुनियाका भला करूँ और दुनिया मुझे अपना नेता माने, अपना पूज्य समझे, अपना सेव्य समझे और मेरा सम्मान करे, मेरी सेवा-पूजा करे और मेरी बड़ाई हो, तबतक तुम उसका यथार्थ कल्याण नहीं कर सकते। क्योंकि तुम्हारे मनमें नेता, पूज्य और सेव्य बननेकी जो चाह है, वह तुम्हारे अन्दर एक ऐसी कमजोरी पैदा करती रहती है, जिससे तुम दुनियाके सामने सच्ची भलाईकी बात नहीं कह सकते। किसी भी अंशमें हो, तुम्हें उनके मनके अनुकूल ही बातें करनी पड़ेंगी। तुम्हारे मनमें यह डर रहेगा कि कहीं ये लोग नाराज न हो जायँ। क्योंकि उनकी नाराजीमें तुम्हें सेवा-पूजा और मान-प्रतिष्ठा न मिलनेकी आशंका है।
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याद रखो—जबतक तुम मान-बड़ाईके लिये लोकसेवा करते हो, लोकसेवा करके मान-बड़ाई पानेमें प्रसन्न होते हो, तबतक तुम्हारे मनमें लोकसेवाके साथ-ही-साथ मान-बड़ाईकी एक ऐसी चाह छिपी है, जो धीरे-धीरे तुम्हें लोकसेवासे हटाकर लोकरंजनकी ओर ले जाती है। और जब तुम्हारे मनमें लोकरंजनका भाव हो जायगा—तुम्हारा उद्देश्य लोकरंजन हो जायगा, तब तुम्हें लोकसेवा बिलकुल छोड़नी पड़ेगी। फिर तो तुम वही करोगे जिसमें लोकरंजन होगा; क्योंकि उसीसे तो तुम्हें मान-बड़ाई मिलेगी। जिस क्रिया और चेष्टासे तुम्हें मान-बड़ाई नहीं मिलेगी, उसे तुम नहीं करोगे—चाहे वह लोकहित और अपने हितके लिये कितनी ही आवश्यक क्यों न हो। और जिस क्रिया या चेष्टासे तुम्हें मान-बड़ाई प्राप्त होगी, उसको बुरा माननेपर भी तुम करोगे। तुम्हारा जीवन दम्भ और कपटपूर्ण बन जायगा।
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इसका यह तात्पर्य नहीं कि तुम लोकसेवा करना छोड़ दो। लोकसेवा खूब करो, परन्तु साथ ही अपनेको लोकसेवाके योग्य भी बनाते रहो। कूड़ा भरे हुए झाड़ूसे दूसरेका घर झाड़ने जाओगे तो वहाँ झाड़नेके बदले कूड़ा बिखेर दोगे। तुम्हारे अन्दर जितनी ही पवित्रता आवेगी, उतनी ही तुम लोकसेवाकी योग्यता प्राप्त करोगे। इसीलिये बड़ी सावधानीसे अपने भावोंको पवित्र बनाओ, अपने चरित्रको सुधारो, अपने आचरणोंको ऊँचा बनाओ, राग-द्वेषका त्याग करो और मान-प्रतिष्ठाकी चुहड़ी चाहको छोड़ो; फिर तुम जो कुछ करोगे उसीसे दुनियाका सुधार या उद्धार होगा, चाहे उस समय तुम्हारी क्रियाएँ सर्वथा निवृत्तिपरक ही क्यों न हों।