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घबराओ मत

दु:खोंसे घबराओ मत। दु:ख तुम्हारी भलाईके लिये ही तुम्हारे पास आते हैं। प्रत्येक दु:खको अपने पहले किये हुए किसी कर्मका ही फल समझो। याद रखो—दु:खकी प्राप्तिसे तुम्हारे कर्मका भोग पूरा हो जाता है और तुम कर्म-फलके बन्धनसे मुक्त होकर निर्मल हो जाते हो। भीष्मपितामहने तो देहत्यागके पूर्व कर्मोंको पुकारकर कहा था कि ‘यदि मेरे कोई कर्म शेष हों तो वे आकर मुझे अपना फल भुगता दें।’ अतएव कोई भी दु:ख प्राप्त हो तो उनको शान्तिपूर्वक भोगो और मनमें यह जानकर सुखी होओ कि कर्मफलका भोग हो गया यह बहुत उत्तम हुआ।

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तुम्हारे प्रत्येक सुख-दु:खका विधान भगवान् किया करते हैं, भगवान् परम दयालु हैं, उनका कोई विधान ऐसा नहीं होता जिसमें तुम्हारा कल्याण न भरा हो। इसलिये प्रत्येक दु:खकी प्राप्तिमें उनका विधान समझकर आनन्द प्राप्त करो। निश्चय समझो, इस दु:खको तुम्हारे मंगलके लिये ही भगवान‍्ने तुम्हारे पास भेजा है।

निश्चय समझो—अभावके अनुभव या प्रतिकूल अनुभवका नाम ही दु:ख है। अभावका अथवा प्रतिकूलताका बोध राग-द्वेषके कारण तुम्हारी अपनी भावनाके अनुसार होता है। राग-द्वेष न हो तो सब अवस्थाओंमें आनन्द रह सकता है। संसारमें जो कुछ होता है, सब भगवान‍्की लीला होती है, उनका खेल है, यह समझकर कहीं राग और ममता तथा द्वेष और विरोध न रखकर प्रतिकूलता या अभावका बोध त्याग दो, फिर कोई भी दु:ख तुमपर असर नहीं डाल सकेगा।

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मनके अनुकूल विषयोंकी अप्राप्ति अथवा नाशका नाम ही दु:ख है। विषयोंकी प्राप्तिसे मन विषयोंमें अधिक फँसता है। इसीलिये मुमुक्षु साधक जान-बूझकर धन, मान, सम्पदा, यश आदि सुखरूप विषयोंका त्याग किया करते हैं। यदि तुम्हारे पास ये विषय न रहें या होकर नाश हो जायँ तो यही समझो तुम एक बहुत घने दु:खजालसे छूट गये हो। इस अवस्थामें किसी प्रकारसे भी व्यथित मत होओ।

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सांसारिक सुख-दु:ख नाम और रूपको लेकर होते हैं। तुम आत्मस्वरूप हो। तुम न शरीर हो न नाम हो। तुम तो सदा ही सब सुख-दु:खोंके द्रष्टा हो। तुमने लड़कपनको देखा, जवानी देखी, बुढ़ापा देखते हो। अवस्थाएँ बदल गयीं; परन्तु तुम देखनेवाले वह-के-वह हो। इसीसे तुम्हें वे देखी हुई बातें याद आती हैं। निश्चय करो, तुम भोक्ता नहीं हो, तुम तो द्रष्टामात्र हो। सुख-दु:खोंसे सर्वथा परे हो, निर्लेप हो। तुम्हारे आत्मस्वरूपमें आनन्द-ही-आनन्द है। वह न कभी धनहीन होता है, न अपमानित होता है, न निन्दित होता है, न बीमार होता है और न मरता है। वह सब अवस्थाओंमें सम रहता है। फिर तुम नामरूपसे सम्बन्धित घटनाओंको दु:खका नाम देकर व्यथित क्यों होते हो? इस मूर्खताको छोड़कर हर हालतमें आनन्दका अनुभव करो। तुमपर कभी दु:ख आ ही नहीं सकता। तुम दु:खको ग्रहण करते हो, इसीसे दु:ख आता है। ग्रहण करना छोड़ दो; फिर कोई भी दु:ख तुम्हारे पासतक नहीं फटकेगा।

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अपना तन-मन-धन सब भगवान‍्के अर्पण कर दो; तुम्हारा है भी नहीं, भगवान‍्का ही है। अपना मान बैठे हो—ममता करते हो इसीसे दु:खी होते हो। ममताको सब जगहसे हटाकर केवल भगवान‍्के चरणोंमें जोड़ दो, अपने माने हुए सब कुछको भगवान‍्के अर्पण कर दो। फिर वे अपनी चीजको चाहे जैसे काममें लावें; बनावें या बिगाड़ें। तुम्हें उसमें व्यथा क्यों होने लगी? भगवान‍्को समर्पण करके तुम तो निश्चिन्त और आनन्दमग्न हो जाओ।

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याद रखो—विधान और विधातामें कोई भेद नहीं है। खेल भी वही और खिलाड़ी भी वही। इस परम रहस्यको समझकर हर हालतमें; प्रत्येक अवस्थामें विधानके रूपमें आये हुए विधाताको पहचानकर उन्हें पकड़ लो! फिर आनन्द-ही-आनन्द है।

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