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खेलो, परन्तु फँसो मत

इस खेलको नित्य और स्थिर समझकर फँसो नहीं। खेलते रहो, खूब खेलो, परन्तु चित्तको सदा स्थिर रखो अपने नित्य, सत्य, सनातन और कभी न बिछुड़नेवाले प्यारे प्रभुके चरणोंमें। इस खेलके साथी पति-पत्नी, पुत्र-कन्या, मित्र-बन्धु आदि सब खेलके लिये ही मिले हैं। इनका सम्बन्ध खेलभरका ही है। जब यह खेल खतम हो जायगा और दूसरा खेल शुरू होगा, तब दूसरे साथी मिलेंगे। यही सदासे होता आया है। इसलिये खेलके आज मिले हुए साथियोंको ही नित्यके संगी मानकर इनमें आसक्त न होओ; नहीं तो खेल छोड़कर नये खेलमें जाते समय तुमको और इन तुम्हारे साथियोंको बड़ा क्लेश होगा। जहाँ और जब, वह खेलका स्वामी भेजेगा, तब वहाँ जाना पड़ेगा ही; इस खेलमें और इस खेलके साथियोंमें मन फँसा रहेगा तो रोते हुए जाओगे।

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तुम्हारा यह भ्रम ही है जो इस वर्तमान घर-द्वार, पुत्र-कन्या, भाई-बहिन, माता-पिता, पति-पत्नीको अपना मानते हो। इस जन्मके पहले जन्ममें भी तुम कहीं थे। वहाँ भी तुम्हारे घर-द्वार, सगे-सम्बन्धी सब थे; कभी पशु, कभी पक्षी, कभी देवता, कभी राक्षस और कभी मनुष्य, न मालूम कितने रूपोंमें तुम संसारमें खेले हो, परन्तु वे पुराने—पहले जन्मके घर-द्वार, साथी-संगी, स्वजन-आत्मीय अब कहाँ हैं; उन्हें जानते भी हो? कभी उनके लिये चिन्ता भी करते हो? तुम जिनके बहुत अपने थे, बड़े प्यारे थे, उनको धोखा देकर खेलके बीचमें ही उन्हें छोड़ आये, वे रोते ही रह गये और अब तुम उन्हें भूल ही गये हो! उस समय तुम भी आजकी तरह ही उन्हें प्यार करते थे, उन्हें छोड़नेमें तुम्हें भी कष्ट हुआ था, परन्तु जैसे आज तुम उन्हें भूल गये हो, वैसे ही वे भी नये खेलमें लगकर नये घर-द्वार, संगी-साथी पाकर तुम्हें भूल गये होंगे। यही होता है। फिर तुम इस भ्रममें क्यों पड़े हो कि इस संसारके घर-द्वार, इसके सगे-सम्बन्धी, यह शरीर मेरे हैं?

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बच्चे खेलते हैं, मिट्टीके घर बनाते हैं, तेरा-मेरा करते हैं, जबतक खेलते हैं, तबतक! तेरे-मेरेके लिये लड़ते-झगड़ते भी हैं, परन्तु जब खेल समाप्त होनेका समय होता है, तब अपने ही हाथों उन धूल-मिट्टीके घरोंको ढहाकर हँसते हुए चले जाते हैं। तुम सयाने लोग धूल-मिट्टी—काँच-पत्थरके घरोंपर बच्चोंको लड़ते देखकर उन्हें मूर्ख समझते हो और उनकी मूर्खतापर हँसते हो—परन्तु तुम भी वही करते हो, वे भी मिट्टी-धूलके, काँच-पत्थरोंके लिये लड़ते हैं और तुम भी उन्हींके लिये लड़ते-झगड़ते हो। उनके घर छोटे और थोड़ी देरके खेलके लिये होते हैं, तुम्हारे घर उनसे कुछ बड़े और उनकी अपेक्षा अधिक कालके लिये होते हैं। तुम्हें उनकी मूर्खतापर न हँसकर अपनी मूर्खतापर ही हँसना चाहिये। उनसे तुम्हारे अन्दर एक मूर्खता अधिक है वह यह कि वे तो खेलते समय ही तेरे-मेरेका आरोप करके लड़ते हैं, खेल खतम करनेके समय सबको ढहाकर हँसते हुए घर चले जाते हैं। परन्तु तुम तो खेल खतम होनेपर भी रोते हुए ही जाते हो; वहाँसे हटना चाहते ही नहीं, इसीलिये रोते जाना पड़ता है और इसीलिये अपने वास्तविक घर (परमात्मा)-में तुम नहीं पहुँच सकते। यदि तुम भी इन बच्चोंकी तरह खेलके समय तेरे-मेरे आरोप करके—(वस्तुत: अपना मानकर नहीं) मजेमें खेलो और खेल समाप्त होनेपर उसे खेल ही समझकर अपने मनसे सबको ढहाकर प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए वास्तविक घरकी ओर चल दो तो सीधे घर पहुँच जाओ और फिर वहाँसे लौटनेका अवसर ही न आवे। घरपर ही खूब मजेमें—बड़े आनन्दसे रहो। परन्तु खेल तो यही है कि तुमने इस खेलघरको असली घर मान लिया है और इसमें इतने फँस गये हो कि असली घरको भूल ही गये! मान लेनेमात्रसे यह घर और इसके रहनेवाले तुम्हारे ही-जैसे खेलनेको आये हुए लोग, जिनसे तुमने नाना प्रकारके नाते जोड़ लिये हैं, तुम्हारे होते भी नहीं; इन्हें अपना समझकर इनसे चिपटे हो, परन्तु बार-बार जबरदस्ती अलग किये जानेसे तुम्हें रोना-चिल्लाना पड़ता है। तुम्हारा स्वभाव ही हो गया है, हर एक खेलके संगी-साथियोंसे इसी प्रकार चिपटे रहना, दो घड़ीके लिये जहाँ भी जाते हो वहीं ममता फैलाकर बैठ जाते हो। इसीसे हर एक खेलमें तुम्हें रोना ही पड़ता है। न मालूम कितने लम्बे समयसे तुम इसी प्रकार रो रहे हो और न समझोगे तो न जाने कबतक रोते रहोगे। अच्छा हो यदि समझ जाओ और इस रोने-चिल्लानेसे—इस सदाकी साँसतसे तुम्हारा पीछा छूट जाय।

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