मायाकी मोहिनी
मायाकी कैसी मोहिनी है! बुद्धिमान् पुरुष भी मोहरूप कर्तव्यके मोहमें पड़कर असली कर्तव्यको भूल रहे हैं! सोचो तो सही। तुम कौन हो और तुम्हारा क्या कर्तव्य है? मोहसे छूटना कर्तव्य है या मोहकी गाँठोंको और भी उलझाना? जिस नाम और रूपके चक्करमें फँसे हुए तुम उस नाम-रूपके कल्पित सम्बन्धसे अपनेको सम्बन्धित मानकर कर्तव्य-बोधसे उस मोहको और भी घना बना रहे हो, वह नाम-रूप वस्तुत: क्या तुम्हारा स्वरूप है? माँके पेटमें आनेसे पहले क्या तुम्हारा यही नाम-रूप था? यदि नहीं तो इससे कैसा सम्बन्ध और कैसा कर्तव्य? खोल दो न अपने ही हाथों दी हुई इस गाँठको। क्यों ‘नलिनीके सुअटा’ बने बँध रहे हो?
‘क्या करें, यहाँ ऐसी ही योग्यता है, ऐसा किये बिना आदर्श बिगड़ता है, लोग क्या कहेंगे?’ मन-ही-मन ऐसी कल्पना-जल्पना करके क्यों अपनेको जकड़ते जा रहे हो? कैसी योग्यता? कैसा आदर्श? मायाके चक्करमें फँसे रहना ही क्या तुम्हारे लिये योग्य है? अज्ञानके बन्धनसे न छूटना ही क्या आदर्श है? लोग निन्दा करेंगे? किसकी? तुम्हारी या तुमने जिनको अपने साथ तादात्म्य कर लिया है उन नाम और रूपकी? अरे, उनकी निन्दासे तुम्हारा क्या बिगड़ता है? होने दो उनकी निन्दा, बिगड़ने दो उनकी इज्जत, नष्ट हो जाने दो न उनके अस्तित्वको। तुम क्यों उन्हें बचानेकी फिक्रमें सूखे जा रहे हो? उन्हींके कारण तो तुम्हारी यह दुर्दशा है। नित्य सत्य और अज-अविनाशी होनेपर भी उन्हींके मोहमें तुम अनित्यसे—असत् से हो रहे हो और उन्हींकी ममता और आसक्ति तुम्हें जन्म और मृत्युके सन्ताप-भरे सपने दिखा रही है।
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‘घरवालोंको क्लेश होगा, पुत्र-बन्धु आदि कष्ट पावेंगे।’ मान लो, तुम्हारा यह पंचभूतका चोला आज छूट गया होता तो इनकी क्या स्थिति होती? तब ये जिन्दा रहते या नहीं? यदि रहते तो अब भी रहेंगे? तुम क्यों नहीं अपनेको मर गया मान लेते? सचमुच जरा मरके देखो तो सही, कुछ ही दिनोंमें तुम्हारी सारी याद किस आसानीसे भुला दी जाती है। तुम्हारी आवश्यकता कैसे अनावश्यक हो जाती है? सचमुच तुमको किसीने नहीं पकड़ रखा है, तुमने आप ही अपनेको पकड़ा हुआ मान लिया है। तोड़ डालो न इस भ्रमके बन्धनको!
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‘क्या करें जिम्मेवारी निबाहना भी मनुष्यका धर्म है। हम सब समझते हुए जिम्मेवारीका त्याग कैसे कर दें?’ बड़े जिम्मेवार बन रहे हो और बात तो जाने दो, शरीरकी जिम्मेवारी तो निबाहो, तुम्हारी जिम्मेवारीका निर्वाह तभी समझा जायगा जब तुम इसे बीमारी या मौतके मुँहसे बचा सकोगे। जब तुम शरीरकी जिम्मेवारी भी नहीं निबाह सकते तब और जिम्मेवारीकी तो बात ही कौन-सी है? बिना ही बनाये पंच बनकर जिम्मेवार बन बैठे हो! मोहने ही प्रेमका स्वाँग भरकर तुम्हारे ऊपर जिम्मेवारी और कर्तव्यका बोझ लाद रखा है। उतारकर फेंक दो न जिम्मेवारीके इस बोझको। तुरन्त हलके हो जाओगे।
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देखो तो, तुम्हारे नित्य निरामय आनन्दघन-स्वरूपमें विषाद, मृत्यु और दु:खको स्थान ही कहाँ है? तुम अमृतोंके अमृत, आनन्दके आनन्द और प्रकाशोंके प्रकाश हो। तुम्हारी ही चाँदनी सर्वत्र छिटक रही है, तुम्हारा ही प्रकाश सर्वत्र फैल रहा है, तुम्हारा ही ऐश्वर्य सर्वत्र व्याप्त है, तुम्हारा ही आनन्द सर्वत्र विस्तृत है, तुम्हारी ही सुधा-माधुरीसे सब जीवन धारण कर रहे हैं। तुम अखण्ड हो, अनन्त हो, अजर हो, अमर हो, सत् हो, सनातन हो, चेतन हो, ज्ञानस्वरूप हो। अपने स्वरूपको क्यों नहीं सँभालते? क्यों अपनी ही भूलभरी भूलसे भूल-भुलैयामें पड़े भटक-से रहे हो?
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संसारका कर्तव्य कभी पूरा नहीं होगा। यहाँकी सफलता भी असफलता है। वह अनन्त सुख—जो तुम्हारा स्वरूप है—तुम्हें अपने अन्दर ही प्राप्त होगा। वह धनसे, भोगोंसे, विजयसे, कीर्तिसे, नीतिसे, धर्मसे, किसीसे भी किसीमें भी नहीं मिलेगा। फिर तुम क्यों कर्तव्यका बोझा लादे, योग्यता और अयोग्यताका आडम्बर लिये, जिम्मेवारीका भार उठाये, उन्मत्तकी भाँति इधर-उधर धक्के खा रहे हो?
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वह नित्यस्वरूप आत्मा न उत्पन्न होता है, न मरता है, न किसी अन्य कारणसे उत्पन्न हुआ है, न आप ही कुछ बना है, वह तो अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर वह नहीं मरता। किसीके नाशसे उसका नाश नहीं होता। वह अणु-से-अणु और महान्-से-महान् है। वह तुम्हारे अन्दर है, तुम्हारा अपना स्वरूप है। तुम उसको पहचानो, उसकी महिमाको जानो—तुम्हारा सारा शोक, विषाद, भ्रम मिट जायगा।